किसी भी पुस्तक में पहले वर्णित बात का
सम्बन्ध बाद में कही गयी बात से अवश्य ही होता है | यही नियम ‘न करोति न लिप्यते’
के सम्बन्ध में भी लागू होता है | स्थूल बुद्धि से शरीर द्वारा किया गया कर्म भी आत्मा
के द्वारा कर्म होते हुए अर्थात आत्मा के द्वारा करते हुए दिखाई पड़ता है | अतः गीता
के प्रारम्भ में श्री कृष्ण भगवान अर्जुन की बुद्धि की स्थूलता को समझ कर कहते हैं-
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु
किंचन |
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ||
गीता-3/22 ||
अर्थात हे अर्जुन !
मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न ही कोई भी प्राप्त करने योग्य
वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ |
गीता के प्रारम्भ में ही अर्जुन को
श्री कृष्ण ने कर्म-योग का ज्ञान दिया था और उसे अपने आप को कर्तापन से दूर रहने
को समझाया था | इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझा रहे है कि मेरे लिए
कोई कर्तव्य नहीं है फिर भी मैं यह मनुज रूप धारण कर कर्म में ही बरतता हूँ अर्थात
कर्म करता हूँ | परमात्मा मनुष्य रूप धारण करने पर ही कर्म करते दिखाई पड़ते हैं
परन्तु वास्तव में कर्म करते नहीं हैं | यहाँ अर्जुन को समझ आ जानी चाहिए थी कि
कर्म मनुष्य का शरीर करता है न कि उसमें अवस्थित आत्मा | हम शरीर नहीं है बल्कि आत्मा
है | परन्तु यहाँ पर अर्जुन कर्तापन के भाव से अपने आपको मुक्त नहीं कर सका है,
क्योंकि उसकी आत्मा जीव (मन, चित्त) के साथ जुड़ कर जीवात्मा बन गई है और यह
जीवात्मा ही प्रकृति के गुणों का संग कर लेने से अपने आपको कर्ता और भोक्ता समझने
लग जाती है | इस कारण से ही अर्जुन प्रत्येक कर्म को स्वयं के द्वारा किया गया
मानता है जबकि वास्तव में कर्म भौतिक शरीर ही करता है, आत्मा का सम्बन्ध कर्म करने
से है ही नहीं | इस प्रकार जीवात्मा में पैदा हुआ कर्तापन का भाव ही मनुष्य को कर्म
की सम्पूर्ण प्रक्रिया को समझने से रोक देता है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
No comments:
Post a Comment