Friday, September 30, 2016

चाणक्य-नीति-7

                 गते शोको न कर्तव्यों भविष्यं नैव चिन्तयेत |
                 वर्तमानेन कालेन प्रवर्तन्ते विचक्षणाः || चाणक्य नीति-13/2 ||

                 जो हो चूका सो हो चूका, उस पर अफ़सोस नहीं करना चाहिए; आने वाले समय की भी इतनी चिंता नहीं करनी चाहिए | चतुर लोग वर्तमान काल में ही सुलभ साधनों से अपना काम निकाल लेते हैं |
|| हरिः शरणम् ||

Thursday, September 29, 2016

चाणक्य-नीति-6

दानं धर्मश्च विद्या च रूपं शीलं कुलं तथा |
सुखमायुर्यशश्चैव नव गोप्यानि यत्नतः || चाणक्य नीति शास्त्र ||

              दिया हुआ दान, किया हुआ शुभ कार्य, अपनी विद्या, अपना सौन्दर्य, उत्तम स्वभाव, अपने खानदान की बातें, सुख के साधन, आयु और कीर्ति की बातें; ये नौ वस्तुएं गोपनीय हैं, इनका ढिंढोरा नहीं पीटना चाहिए |
|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, September 28, 2016

चाणक्य-नीति-5

चाणक्य-नीति-5
दातृत्वं प्रियवक्तृत्वं धीरत्वमुचितज्ञता | अभ्यासेन न लभ्यरेन् चत्वारः सहजागुणा: || वृद्ध चाणक्य || देने का गुण, मधुर बोलने का गुण, धैर्यशीलता और विवेकशीलता; ये चार गुण जन्मतः प्राप्त होते हैं, अभ्यास से इन्हें प्राप्त नहीं किया जा सकता |
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

Tuesday, September 27, 2016

चाणक्य-नीति-4

 जानियात् प्रेषणे भ्रित्यान् बान्धवान् व्यसनागमे |
 मित्रं चापत्तिकाले तू भार्या च विभवक्षये || चाणक्यनीति-1/11 ||

      कहीं भेजते समय नोकरों की, संकट के समय रिश्तेदारों की, मुसीबत में मित्र की और धन के नाश हो जाने पर पत्नी की परीक्षा होती है अर्थात इनकी पहचान हो जाती है |
|| हरिः शरणम् ||

Monday, September 26, 2016

चाणक्य-नीति-3

                  जलबिन्दुनिपातेन क्रमशः पूर्यते घटः |
                  स हेतु: सर्व विद्यानां धर्मस्य च धनस्य च || चाणक्यनीति-12/22 ||

                 पानी की एक एक बूंद टपकने से धीरे धीरे घड़ा भर जाता है | इसी प्रकार थोडा थोडा सीखते रहने से विधाएं, थोडा थोडा करते रहने से धर्म और धन का भी संचय हो जाता है |
                          ||हरिः शरणम् ||

Sunday, September 25, 2016

चाणक्य-नीति-2

छिन्नोsपि चन्दनतरुर्न जहाति गंधम् ,
वृद्धोsपि वारणपतिर्न जहाति लीलाम् |
यंत्रार्पितो मधुरतां न जहाति चेक्षुः,
क्षीणोsपि न त्यजति शीलगुणान् कुलीनः ||चाणक्यनीति-15/18 ||

चन्दन का वृक्ष कटने पर भी सुगंध का त्याग नहीं करता, बुढा हाथी भी विनोद करना नहीं छोड़ता, कोल्हू में डाला हुआ ईख भी मिठास का त्याग नहीं करता; ऐसे में अच्छे कुल का व्यक्ति क्षीण होने पर भी अथवा बुरी परिस्थितियों में भी उत्तम स्वभाव नहीं छोड़ता |
|| हरिः शरणम् ||

Saturday, September 24, 2016

चाणक्य-नीति-1

चला लक्ष्मीश्चलाः प्राणाश्चले जीवनमन्दिरे |
चला चले च संसारे धर्म एकोहि निश्चलः || चाणक्यनीति-5/20 ||

                    धन सम्पति अस्थायी है, प्राण भी अस्थायी है और जीवन तथा घर भी अस्थायी है | इस प्रकार यह सारा संसार ही अस्थायी है | केवल मात्र धर्म ही आत्मा के साथ रहने वाली स्थाई वस्तु है |
                || हरिः शरणम् |||

Friday, September 23, 2016

अथ आचार्य उवाच-7

दिनांक-21/9/2016-सायंकालीन सत्र-
                 आज सायंकालीन सत्र में बोलते हुए आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने परमात्मा की शीघ्र प्राप्ति का अंतिम महत्त्वपूर्ण सूत्र अनन्य भक्ति को बताया | अनन्य का अर्थ है उसके  समान अन्य किसी का न होना | परमात्मा के  अतिरिक्त इस दृश्यमान और अदृश्य जगत में कोई  नहीं है, यह मानते हुए उसकी भक्ति करना ही अनन्य भक्ति है | आचार्य जी ने इस अनन्य भक्ति को समझने हेतु गीता के दो श्लोक उद्घृत किये |
                  भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोSर्जुन |
                  ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप || गीता-11/54 ||
अर्थात हे परन्तप अर्जुन ! अनन्य भक्ति के द्वारा इस प्रकार चतुर्भुज रूप वाला मैं प्रत्यक्ष देखने के लिये, तत्व से जानने के लिये तथा प्रवेश करने के लिए अर्थात एकीभाव से प्राप्त होने के लिए भी शक्य हूँ  |
             इस श्लोक को स्पष्ट करते हुए आचार्य जी कहते हैं कि ज्ञान-मार्ग से परमात्मा को जाना जा सकता है, परमात्मा में प्रवेश भी किया जा सकता है अर्थात परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है परन्तु उसे देखा नहीं जा सकता | परमात्मा को जानना, देखना और पाना तीनों तो केवल अनन्य भक्ति से ही संभव है | अनन्य भक्ति को स्पष्ट करते हुए भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं-
                  मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः संगवार्जितः |
                  निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव || गीता-11/55 ||
अर्थात हे अर्जुन ! जो पुरुष केवल मेरे लिए ही सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करने वाला है, मेरे परायण है, मेरा भक्त है, आसक्ति रहित है और सम्पूर्ण भूत प्राणियों में वैर भाव से रहित है, वह अनन्य भक्ति युक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है |
              इस श्लोक को स्पष्ट करते हुए आचार्य जी कहते हैं कि अनन्य भक्त कर्तव्य कर्मों को करता है , मुझमें श्रद्धा रखते हुए किसी भी प्रकार की आसक्ति रहित होकर मेरे को ही भजता है | किसी भी प्रकार की आसक्ति से सदैव अपने आप को दूर रहता है | सभी प्राणियों के प्रति सम भाव रखते हुए वैर भाव से रहित होने वाला भक्त ऐसी अनन्य भक्ति द्वारा मुझे सहज ही प्राप्त कर लेता है |
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश  काछवाल  
||  हरिः शरणम् ||
         दिनांक 21/9/2016 के सायं कालीन सत्र के साथ ही आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने  ‘शरणागति’ और ‘परमात्मा की शीघ्र प्राप्ति कैसे हो?’ दोनों ही विषय पर प्रवचन का समापन कर दिया | दिनांक 22/9/2016 को दोनों सत्र में शंका-समाधान किया गया | प्रबुद्ध श्रोतागणों अपने-अपने विचार इन सत्रों में रखे | तत्पश्चात संध्या आरती हुई और सप्त-दिवसीय इस दुर्लभ भक्ति-ज्ञान यज्ञ का समापन हुआ |आज दिनांक-23/9/2016 को प्रातः 5 बजे से 6 बजे तक नित्य-स्तुति होगी और फिर आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा सालासर के लिए प्रस्थान करेंगे | इस कार्यक्रम का लाभ आपको किस प्रकार मिला अथवा इस कार्यक्रम से सम्बंधित आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है | इस कार्यक्रम में कुछ कमियां भी रही होंगी, इसका  आकलन आपने किया हो तो अवश्य ही अवगत कराने का परिश्रम करें, जिससे अगले आयोजित होने वाले कार्यक्रम में उन्हें दूर किया जा सके |
                आप सभी के अनुकरणीय सहयोग के प्रति हरि: शरणम् जन कल्याण परिषद आभार व्यक्त करती है | 
प्रस्तुति- डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, September 22, 2016

अथ आचार्य उवाच-6

दिनांक-20/9/2016-सायं कालीन सत्र - 
              परमात्मा की शीघ्र प्राप्ति कैसे हो’? इस विषय पर आगे बोलते हुए आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने नाम-जप, प्रार्थना, सबसे प्रेम करना ही परमात्मा से प्रेम करना है और सन्त-सानिध्य तथा स्वाध्याय को अल्प रूप में पुनः समझाते हुए कहा कि पांचवां सूत्र है – दृढ़ता के साथ नियम-पालन करना | जीवन में परमात्मा को प्राप्त करने के लिए जो भी नियम आप व्यवहार रूप में अपनाते हो, उसका दृढ़ता पूर्वक पालन करना चाहिए | प्रायः यह देखने में आता है कि सत्संग से प्रेरित होकर किसी एक  नियम पर चलना आप प्रारम्भ तो कर देते हैं परन्तु कुछ समय बाद इसको निभाने में कमजोर पड़ते जाते हैं और एक दिन यह नियम टूट जाता है | इसके पीछे प्रमाद और आलस्य प्रमुख कारण होते हैं | समयाभाव का मात्र एक बहाना भर होता है | हम अपने जीवन में भजन को अन्य सांसारिक कामों से कम महत्त्व देते हैं उस कारण से हम संसार में ही भटकते रह जाते हैं, परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकते | अगर परमात्मा को प्राप्त करना है तो नियमों को अपनाकर उनपर दृढ़ता पूर्वक चलना होगा | उन्होंने उत्तराखंड में गाये जाने वाले एक भजन ‘तीन बार भोजन, भजन एक बार, उसमें भी पड़ गए झंझट हजार’ गाकर सुनाते हुए भजन करने को टालने की आदत में गढे जाने वाले कुछ बहानों की चर्चा की |
                 ‘नित्य-स्तुति’ का पाँच बजे करने के नियम का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि आलस्य वश व्यक्ति इस नियम को तोड़ देता है अथवा किसी अन्य समय इसे करने की बात कहता है | वास्तविकता यह है कि आलस्य वश ऐसा नहीं करता | किसी भी नियम को कभी भी भंग नहीं करना चाहिए | सही काम सही समय पर करना ही उचित होता है | जब हम अपने सांसारिक कामों को समय पर निपटाते और करते हैं तो फिर नित्य-स्तुति पाँच बजे नियमित रूप से क्यों नहीं की जा सकती ? नियम पर चलना आपकी इच्छा शक्ति को दर्शाता है, आपकी परमात्मा के प्रति श्रद्धा को व्यक्त करता है | श्रद्धा पूर्वक नियम का पालन करना आपको परमात्मा को शीघ्र प्राप्त करने में  महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है |
दिनांक-21/9/2016-प्रातःकालीन सत्र-
                  ‘शरणागति’ विषय पर आज प्रवचन के छठे दिन बोलते हुए हरिः शरणम् आश्रम, बेलडा,  हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने कहा कि शरणागति से अर्थ है-सब कुछ परमात्मा ही होना | व्यक्ति जब अपने आपको परमात्मा को समर्पित कर देता है तब वह स्वयं कुछ नहीं करता | फिर उसकी समस्त जिम्मेवारी उस परमपिता की हो जाती है और उसके प्रत्येक कार्य परमात्मा ही करते हैं | संसार में सदैव ही ‘मैं और तुम’ का अस्तित्व रहता है | जब मनुष्य परमात्मा के शरणागत हो जाता है तब उसका ‘मैं’ समाप्त हो जाता है केवल ‘तू’ ही रहता है | शरणागति की पराकाष्ठा में शरणागत समाप्त होकर केवल शरण्य ही रह जाते हैं |
               मनुष्य का शरणागत होना मुश्किल ही इसीलिए है क्योंकि वह सब कुछ अपने बलबूते पर ही करना मानता भी है और चाहता भी है | शरणागत को  अपने शरण्य पर ही आश्रित रहना चाहिए | स्वयं के द्वारा कुछ भी करना संसार का आश्रय है जबकि सब कुछ परमात्मा पर छोड़ देना परमात्मा का आश्रय लेना है | आचार्य जी ने बताया कि गजराज जल का आश्रय न लेकर स्वयं ही के बल से नदी पार करने का प्रयास करता है इसलिए नदी के तेज बहाव में बह जाता है जबकि मछली जल में रहकर सदैव उसके आश्रित ही रहती है इसलिए वह नदी के तेज बहाव के बाद भी जल में उलटी दिशा में भी तैरती रहती है | उन्होंने एक जन्मांध सन्त का दृष्टान्त देते हुए बाते कि वे एक बार यमुना में बह गए थे और सहारे की लाठी भी हाथ से छूट गयी थी | थोड़ी देर तो वे किनारे लगने के लिए संघर्ष करते रहे परन्तु सफलता न मिलने पर अपने आपको परमात्मा के आश्रय छोड़ दिया | उन्होंने किनारे लगने के लिए सब प्रकार के संघर्ष करने को छोड़ दिया |  थोड़ी ही देर में वे यमुना के किनारे पर स्वतः ही पहुँच गए और हाथ में लाठी भी आ गयी | ऐसा इसलिए संभव हो सका क्योंकि उन सन्त ने संसार का आश्रय छोड़कर परमात्मा का आश्रय लिया था |
                 तत्पश्चात सत्र समापन से पूर्व आचार्य जी ने शरणागति के विभिन्न प्रभावों का स्व-रचित भजन के माध्यम से बहुत ही सुन्दर तरीके से विश्लेषण किया |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 

Wednesday, September 21, 2016

अथ आचार्य उवाच-5

दिनांक-19/9/2016 –सायं कालीन सत्र –
              आज सायं कालीन प्रवचन का प्रारम्भ करते हुए आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने पूर्व के तीन दिनों में बताये गए उपाय नाम-स्मरण, प्रार्थना और भागवत-प्रेम को संक्षेप में दोहराया और फिर चौथा सूत्र बताते हुए कहा कि परमात्मा को शीघ्र पाने का सत्संग और स्वाध्याय भी एक साधन है | सत्संग की महिमा को समझाते हुए उन्होंने रामचरितमानस से कई चौपाइयों को उद्घृत किया | सत्संग समान इस संसार में रहते हुए जीवन-मुक्त होने का अन्य कोई सरल उपाय नहीं है | सत्संग में वक्ता और श्रोताओं का किस  प्रकार का होना चाहिए, उसको समझाते हुए आचार्य जी ने कहा कि वक्ता ज्ञानी होने के साथ-साथ उसका अनुभाव सिद्ध भी होना आवश्यक है | अनुभव सिद्ध होने से आशय है कि वक्ता ने उस ज्ञान को जीवन में उतारते हुए उसको अनुभव किया हो अन्यथा केवल ज्ञान को मुख से बोल देने मात्र से उसका असर नहीं दिखाई देगा | श्रोता को दत्त-चित्त होकर वक्ता को श्रद्धा के सत्रह सुनना चाहिए | सत्संग में प्रवचन सुनकर उसपर मनन-चिंतन करते हुए आत्मसात करना चाहिए तभी सत्संग की सार्थकता है |   
                      सत्संग सभी प्रकार के मोह को तत्काल नष्ट कर देता है | इस बात को आचार्य जी  ने  रामचरितमानस के एक प्रसंग से स्पष्ट किया | त्रेता युग में जब भगवान श्री राम नागपाश में बंध गए थे तब उस बंधन से मुक्त करने के लिए गरुड़ को बुलाया गया था | गरुड़ ने भगवान के बंधन काट दिए थे | इस कारण उसके मन में मोह पैदा हो गया था, एक प्रकार  के अहंकार ने उसके भीतर जन्म ले लिया था कि सांसारिक प्राणियों के भाव बंधन काटने वाले को नागपाश के बंधन से मैंने ही मुक्त किया था | शंकर ने उसे इस मोह और अहंकार से मुक्त होने के लिए काकभुसुंडि जी  के पास सत्संग करने के लिये भेजा | काकभुसुंडि जी के आश्रम क्षेत्र में पहुंचते ही आधा मोह नष्ट हो गया क्योंकि उस आश्रम में सतत सत्संग चलता रहता था |शेष आधा मोह काक  से सत्संग करने से नष्ट हो गया | ऐसा प्रभाव है सत्संग का |
             सत्संग के साथ-साथ शास्त्रों का पढ़ना भी व्यक्ति को समस्त प्रकार के दोषों से मुक्त कर देता है | इसलिए शास्त्रों  से ज्ञान प्राप्त कर एक अनुभव सिद्ध  महात्मा अथवा सन्त से सत्संग करना परमात्मा की प्राप्ति शीघ्र ही करवा देता है | सत्संग और स्वाध्याय की भूमिका परमात्मा प्राप्ति में महत्वपूर्ण है |
|| हरिः शरणम् ||  
दिनांक-20/9/2016-प्रातःकालीन सत्र –
          आज प्रातः 9.30 बजे अग्रसेन भवन, सुजानगढ़ में प्रवचन प्रारम्भ करते हुए कहा कि परमात्मा तो आपसे मिलने को तैयार होकर खड़े हैं, देरी तो आपकी तरफ से है | शरणागति को और अधिक स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने कहा कि आदि शंकराचार्य कहते थे कि शरणागत होने के लिए प्रत्येक प्राणी में तीन विशेषताएं होनी आवश्यक हैं | प्रथम तो उसका मनुष्य होना आवश्यक है | मनुष्य के अतिरिक्त अन्य किसी भी योनि में परमात्मा को प्राप्त करने की क्षमता नहीं है | यहाँ तक कि देवता भी परमात्मा को प्राप्त करने के लिए मनुष्य योनि को तरसते हैं | दूसरी विशेषता जो कि प्राणी में होनी चाहिए वह है, मुमुक्षा | मुमुक्षा का अर्थ है लगन | अगर मनुष्य योनि को प्राप्त करने के उपरांत भी परमात्मा को प्राप्त करने की इच्छा मन में पैदा नहीं होती, तो फिर यह मनुष्य जन्म भी बेकार है | तीसरी मुख्य विशेषता होनी चाहिए, सन्त सानिध्य प्राप्त करने की, सत्संग में जाकर अनुभव सिद्ध महात्मा से ज्ञान प्राप्त करने की | सन्त सानिध्य से  शरणागत होने का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है |
            मनुष्य योनि को प्राप्त करने के बाद जीव अपनी कामनाएं पूरी करने में व्यस्त हो जाता है और परमात्मा को भूल जाता है | जबकि उसको सदैव याद रखना चाहिए कि इस संसार में आकर जो कुछ भी मिलेगा, वह प्रारब्ध के अनुसार ही उपलब्ध होगा | प्रारब्ध से अर्थ और काम प्राप्त होते हैं जबकि पुरुषार्थ से व्यक्ति धर्म और मोक्ष को प्राप्त कर सकता है | प्रारब्ध पूर्व  जन्म का पुरुषार्थ है जो इस जन्म में प्रत्येक स्थिति में मिलना निश्चित है, उसको कोई रोक नहीं सकता | अतः मनुष्य को अपने इस मनुष्य जीवन में धर्म और मोक्ष के लिए ही पुरुषार्थ करना चाहिए | व्यक्ति विभिन्न इच्छाएं और कामनाएं मन में रखकर पुरुषार्थ करता है परन्तु  उसको सांसारिक वस्तुएं तो प्रारब्ध अनुसार ही उपलब्ध होंगी | ब्रह्मलीन स्वामी राम सुख दासजी कहा करते थे कि सांसारिक वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ, प्रारब्ध और इच्छा,  इन  तीनों का होना आवश्यक है परन्तु परमात्मा को प्राप्त करने के लिए एक मात्र उसे प्राप्त करने की इच्छा होना ही पर्याप्त है | स्वामी जी इस सूत्र को अति महत्वपूर्ण सूत्र होना बताते थे और कहते थे कि परमात्मा की इच्छा में अपनी इच्छा मिला दो आपको परमात्मा अवश्य ही मिल जायेंगे |
               सत्र का समापन आचार्य जी ने एक भजन ‘कृपा बरस रही है जी बरस रही’ को गाकर इसका मर्म स्पष्ट किया | यह भजन शरणागति को एक दम स्पष्ट कर देता है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 

Tuesday, September 20, 2016

अथ आचार्य उवाच-4

दिनांक-18/9/2016 - सायं कालीन सत्र-
             आज सायंकालीन सत्र में आचार्य श्री गोविन्दराम शर्मा ने परमात्मा की प्राप्ति का सुगम रास्ता बताने का क्रम जारी रखते हुए बताया कि नाम-स्मरण और ह्रदय की पुकार के बाद अगर कोई मार्ग है तो वह है,  प्रेम का मार्ग | आपको प्रेम करने के लिये किसी भी प्रकार का कोई प्रयास नहीं करना पड़ता है | नाम-स्मरण और प्रार्थना में फिर भी कुछ प्रयास करना होता है परन्तु  प्रेम-मार्ग में तो केवल प्रेम करना होता है | प्रेम आपके ह्रदय से होना चाहिए, मात्र दिखावे के लिए नहीं | प्राकृतिक प्रेम से परमात्मा का मिलना बड़ा ही सुगम है | जब पृथ्वी पर पाप का भार एक सीमा से अधिक बढ़ गया, तब सभी देवता आपस में बैठकर विचार कर रहे थे कि इस भार को उतरने के लिए परमात्मा के पास जाकर प्रार्थना करनी चाहिए | उस सभा में शिव भी उपस्थित थे | उन्होंने देवताओं को कहा कि परमात्मा तो प्रत्येक स्थान पर और प्रत्येक समय उपस्थित है | उनको प्रकट हने के लिए बस आपका प्रेम चाहिए | गोस्वामी तुलसी दासजी ने रामचरितमानस में बड़े ही सुन्दर रूप से शंकर भगवान की इस सुझाव को अपनी लेखनी के मध्यम से व्यक्त किया है |
         हरि ब्यापक सर्बत्र समाना |प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना || मानस-1/185/5 ||
                    इस प्रकार प्रेम ही परमात्मा को सबसे प्रिय है, जिसको पाकर वे तुरंत दौड़े चले आते हैं | प्रेम से संसार के सभी कार्य संभव हो जाते हैं | प्रेम ही इस जगत में सर्वोपरि है |आज इस भौतिक संसार में जितनी भी विषमताएं और दुःख नज़र आ रहे हैं उन सबका कारण इस युग में प्रेम का अभाव होना है |आज भाई से भाई लड़ रहा है, बहिन भाई के बीच वैमनस्य दिखाई पड़ती है यहाँ तक कि पति-पत्नी में भी आपस में प्रेम का अभाव पैदा हो रहा है | मनुष्य इस परमात्मा की सर्वोत्तम कृति है | परमात्मा भी कहते हैं कि संसार के सभी प्राणी मुझसे उपजे हैं फिर भी मनुष्य मुझे सबसे अधिक प्रिय है |
       आज के इस सत्र का समापन करते हुए आचार्य जी ने मीरा, कबीर, रहीम, सूर, तुलसी आदि के काव्यों की रचनाएँ बतलाते हुए स्पष्ट किया कि परमात्मा की प्रत्येक रचना से, उसकी प्रत्येक कृति से प्रेम करके ही परमात्मा को पाया जा सकता है, अन्यथा नहीं |
                  आज के इस सत्र की यह विशेषता रही कि समय समाप्त हो जाने के बाद भी श्रोता की प्यास बुझ नहीं रही थी | विद्युत व्यवस्था में व्यवधान और तेज गर्मी का अहसास भी श्रोताओं को विचलित नहीं कर सका | अगर अँधियारा नहीं घिर आता तो शायद यह सत्र कुछ और समय तक श्रोताओं को अभिभूत  करता |
|| हरिः शरणम् ||
दिनांक-19/9/2016- प्रातः कालीन सत्र –
                 आज इस सत्र का प्रारम्भ आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने भाई जी श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार के भजन “नाथ मैं थारो जी थारो .....” से किया और उसके बाद भक्त सूरदास का पद “मो सम कौन कुटिल खल कामी...” गाया |  दोनों की तुलना करते हुए बताया कि पहले भजन में अहंकार – भाव है जब कि सूरदासजी के पद में दीनता का भाव है | दोनों पद एक प्रकार से परमात्मा से की गई प्रार्थना ही है, जिसमें कवि के मन के भाव झलक रहे हैं | भाईजी के पद में अहंकार का भाव अवश्य दिख रहा है, परन्तु यह परा प्रकृति का अहंकार है, जिसमें स्वयं को परमात्मा के आश्रय होना बताया गया है | जैसे ब्रह्मलीन स्वामी रामसुख दासजी महाराज कहा करते थे कि ‘मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं’| सूरदासजी के पद में दीनता का भाव अवश्य है और परमात्मा के समक्ष अपनी कमियां बताई गयी है और इसी प्रकार प्रथम पद अर्थात भाईजी श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार के पद में भी अपनी कमियां ही बताई गयी है | दोनों पदों का भाव भले ही अलग-अलग नज़र आता हो, मूल में बात परमात्मा के शरणागत होने की ही है |
                आप जिस भी स्थिति में हो, वैसे के वैसे ही परमात्मा के हो, यही एक शरणागत की विशेषता है | आपको सुधारना अर्थात आपमें उपस्थित सभी कमजोरियों को दूर करना अब उस परमात्मा के हाथ में है | आपने अपने उपर कुछ भी न रखते हुए प्रत्येक परिस्थिति को सम्हालने की जिम्मेदारी परमात्मा को दे दी है | यही शरणागत होने की मूल भावना है | आचार्य जी ने रामचरितमानस में से कई चौपाइयों व गीता के कई श्लोक उद्घृत किये | विभीषण के शरणागत होने का उदाहरण श्रोताओं के समक्ष रखते हुए उन्होंने कहा कि भगवान कहते हैं कि अगर कोई करोड़ों विप्रों की हत्या किया हुआ व्यक्ति भी मेरी शरण में आता है तो मैं उसे सभी प्रकार के पापों से मुक्त कर देता हूँ |
      ‘कोटि विप्र बध लागहिं जाहू | आएँ सरन तजऊं नहिं ताहू ||’मानस-5/44/1 ||
   इसी प्रकार गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को अपने ज्ञान देने के अंतिम भाग में शरणागत होने का उपदेश देते हुए कहते हैं –
                   सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं  व्रज |
                 अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ||गीता-18/66||
अर्थात सम्पूर्ण धर्मों अर्थात कर्तव्य कर्मों को त्यागकर तू केवल मेरी शरण में आ जा | मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा, तू शोक मत कर |
      सत्र का समापन आचार्य जी ने स्वरचित एक भजन से किया जिसे सुन समस्त श्रोता आनंदविभोर हो उठे |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Monday, September 19, 2016

अथ आचार्य उवाच-3

दिनांक-17/9/2016 सायं कालीन सत्र-
            आज शाम के सत्र में प्रवचन करते हुए आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने परमात्मा की शीघ्र प्राप्ति कैसे हो ? पर अगला सूत्र प्रस्तुत किया | नाम-जप अर्थात स्मरण को अल्प रूप से स्पष्ट करते हुए वे दूसरे सूत्र की तरफ उन्मुख हुए | परमात्मा की शीघ्र प्राप्ति का दूसरा सूत्र है- प्रार्थना | परमात्मा की ह्रदय से की गई पुकार, उन्हें आपके द्वार तक खींच ले आती है | परमात्मा की प्रार्थना में इतनी शक्ति है कि परमात्मा को आना ही पड़ता है | गीता के  7/16  श्लोक को पुनः उद्घृत करते हुए उन्होंने आर्त, अर्थार्थी और जिज्ञासु भक्त को ज्ञानी भक्त के समान ही उदार बताने को और अधिक स्पष्ट किया | आचार्य जी कहते हैं कि निजी  कामना प्रभु के समक्ष रखना कतई अनुचित नहीं है | बस, आपकी कामना पूर्ति के लिए भगवान से की गई प्रत्येक प्रार्थना में ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का भाव होना चाहिए | किसी दूसरे का अहित होने की सम्भावना आपकी कामना में हो, ऐसी प्रार्थना करना ही अनुचित है |
                  निर्मानमोहा जितसंगदोषा-
                  अध्यात्मनित्या विनिवृतकामाः |
                  द्वंद्वैर्विमुक्ता: सुखदुःखसंज्ञै-
                  र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् || गीता-15/5 ||
अर्थात जिनका मन-मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्ति रूप दोष को जीत लिया है, जिनकी परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएं पूर्ण रूप से नष्ट हो गयी हैं-वे सुख-दुःख नामक द्वंद्व से विमुक्त ज्ञानीजन उस अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं |
          उपरोक्त श्लोक को स्पष्ट करते हुए आचार्य जी ने कहा कि द्वंद्व ही ह्रदय से पुकार में बाधक है | परमात्मा की शरण लेने से ही व्यक्ति द्वंद्वों से मुक्त हो सकता है | द्वंद्व के कारण व्यक्ति परमात्मा के आश्रित होने में संशयग्रस्त रहता है | सभी द्वंद्वों से मुक्त होकर की गयी प्रार्थना ही वास्तविकता में ह्रदय की पुकार होती है | प्रवचन समाप्ति से पूर्व आचार्य जी ने द्रोपदी, कुंती, उत्तरा, ध्रुव और प्रह्लाद आदि भक्तों की प्रार्थनाएं, जो कि श्री मद्भागवत महापुराण में वर्णित हैं, प्रस्तुत की |  
दिनांक 18/9/2016 प्रातः कालीन सत्र –
                  आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले के लिए समस्त शास्त्रों का सार एक शरणागति ही है | शरणागति में व्यक्ति को किसी बात की चिंता नहीं करनी पड़ती क्योंकि उसकी चिंता स्वयं परमात्मा करते हैं | ‘चिंता दीनदयाल को, मो मन परमानन्द’ को स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री गोविंद राम शर्मा ने कहा कि हमारा स्वरूप सच्चिदानंद स्वरूप है और यही स्वरूप परमात्मा का भी है | अतः हमारे द्वारा स्वयं की चिंता करनी व्यर्थ है | अपने आपको परमात्मा का मानते हुए सभी कार्य परमात्मा पर छोड़ दें | परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन स्वामी  रामसुखदासजी  महाराज कहा करते थे कि सदैव यह रटते रहें कि मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं | इस प्रकार कल से आगे ‘शरणागति’ विषय पर बोलते हुए आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने कहा कि परमात्मा के शरणागत हो जाने मात्र से ही संसार के सारे दुखों से छुटकारा मिल जाता है |
        संसार के दुःख किस –किस प्रकार के हैं, इनको  स्पष्ट करने के लिए आचार्य जी ने ऋषि पतंजलि को उद्घृत किया | ऋषि पतंजलि के अनुसार दुःख के पांच कारण होते हैं - अज्ञान, अस्मिता राग, द्वेष और मृत्यु का भय | हमारा सबसे बड़ा अज्ञान यह है कि हम अपने आपको परमात्मा होना न मानकर संसार का होना मानने लगे हैं | अस्मिता अर्थात हमारा अहंकार इतना अधिक बढ़ गया है कि सब कुछ अपने द्वारा ही होना मान रहे हैं | थोड़ी धन-समाप्ति एकत्रित होते ही हमें सब कुछ बौना नज़र आने लगता है | यही हमारा अहंकार ही है, जो हमें परमात्मा से दूर कर देता है | हमारे आपस होने का राग और किसी अन्य के पास होने का द्वेष हमारा जीवन भर पीछा नहीं छोड़ता | राग-द्वेष हमारे दुःख के महत्वपूर्ण कारण है | संसार में मृत्यु का भय सबसे बड़ा भय है | हम सभी जानते हैं कि मृत्यु ही इस संसार का शाश्वत सत्य है, फिर भी इसे स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं | दिन-रात मृत्यु से डरकर उससे बचने की कोशिश में लगे रहते हैं, यह जानते हुए भी  कि प्रत्येक जन्म लेने वाले की एक न एक दिन मृत्यु होनी निश्चित है | मृत्यु इस भौतिक शरीर की होती है जबकि आत्मा अविनाशी है और हमारा स्वरूप भी अविनाशी है | फिर भी हमें जीवन भर मृत्यु का भय सताता रहता है | एक परमात्मा के शरणागत होना ही हमें संसार के इन समस्त दुःखों मुक्त कर देता है |
               शरणागति की विशेषताओं का वर्णन करते हुए आचार्य जी ने एक शरणागत में उपस्थित पाँच विशेषताओं का विस्तृत रूप से विवेचन किया | ये विशेषताएं है, निर्भय होना , निशंक होना , निशोक होना और निश्चिंत होना |  निर्भय हो जाने से तात्पर्य यह है कि उस शरणागत को संसार के बड़े से बड़े भय से मुक्ति मिल जाती है, यहाँ तक की मृत्यु का भय भी मिट जाता है | परमात्मा में किसी भी प्रकार की शंका न रखना ही निशंक हो जाना है | संसार में उसे किसी भी प्रकार का दुःख व्यथित नहीं कर सकता, यह उसके निशोक हो जाने की पहचान है | इसी प्रकार संसार की समस्त प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त हो जाना ही निश्चिन्त हो जाना है | 
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल  

|| हरिः शरणम् ||

Sunday, September 18, 2016

अथ आचार्य उवाच-2

दिनांक-16/9/2016 सायंकालीन सत्र
               आज सायं कालीन सत्र में आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने परमात्मा को शीघ्र प्राप्त करने का मार्ग नाम-जप को बतलाते हुए कहा कि नाम, नामी से बड़ा है | सदैव नाम-जप करते रहने से परमात्मा आपके लिये सदैव उपलब्ध रहेंगे | ज्ञान-मार्ग से नाम-जप को अधिक सुगम बताते हुए उन्होंने कहा कि भक्त रैदास, मीरा बाई और करमा बाई अधिक पढ़े-लिखे न होने के बाद भी नाम-जप के सहारे भगवान को प्राप्त कर चुके हैं | उन्होंने जोधपुर की फूली बाई का दृष्टान्त दिया और बताया कि वे अनपढ़ थी और सदैव राम-राम जपती रहती थी | वह गोबर से थेपड़ी बनाती थी | थेपड़ी बनाते समय जब वह गोबर थापती थी, तब भी सदैव राम नाम जपती रहती थी | जब कभी किसी अन्य की थेपड़ियों  के साथ उसकी थेपड़ियां मिल जाती थी, कहा जाता है कि जो-जो थेपड़ी राम का नाम उच्चारित करती थी, वह सब फूली बाई की ही है, पहचान ली जाती थी | इस राम नाम के जप का इतना अधिक प्रभाव था कि उनके द्वारा थापी गई प्रत्येक थेपडी भी पड़ी-पड़ी राम नाम उच्चारित करती रहती थी |
                 नाम-जप की महिमा पर और आगे बोलते हुए आचार्य जी कहते हैं कि नाम का ह्रदय की गहराई से परमात्मा के स्वरूप को ध्यान में रखते हुए गुप्त रूप से करना चाहिए | नाम-जप के स्थान के बारे में स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि इसमें न तो किसी प्रकार के विधि-विधान की आवश्यकता है और न ही किसी स्थान का | नाम जप कहीं भी और किसी भी परिस्थिति में किया जा सकता है | नाम जप में परमात्मा के प्रति श्रद्धा का महत्त्व है, ज्ञान, स्थान और विधि-विधान सब गौण है | प्रवचन प्रारम्भ करते हुए आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने कहा कि परमात्मा हमारे भीतर ही बैठे हैं, उन्हें ढूँढने के लिए कस्तूरी मृग की तरह बाहर भटकना एक भ्रम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है |
|| हरिः शरणम् ||
दिनांक-17/9/2016 प्रातः कालीन सत्र
    आज इस सत्र में ‘शरणागति’ विषय पर आगे प्रवचन करते हुए आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने परमात्मा पर आश्रित रहने का महत्त्व समझाया |  आश्रय और शरणागति  में कोई अंतर नहीं है | एक परमात्मा का आश्रय ही व्यक्ति को भयमुक्त करने के लिए पर्याप्त है | उन्होंने गीता के 7/16 श्लोक को उद्घृत करते हुए बताया कि परमात्मा कहते हैं कि चार प्रकार के भक्त मुझे भजते हैं-आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी | आर्त अर्थात दुःख से परेशान व्यक्ति, अर्थार्थी अर्थात सुख सुविधाओं और धन की कामना करने वाला, जिज्ञासु अर्थात परमात्मा को जानने की भावना रखने वाला और ज्ञानी अर्थात परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को जानने वाला | इन सब में ज्ञानी भक्त मुझे सबसे प्रिय है | उपरोक्त चारों प्रकार के भक्त उदार हैं परन्तु ज्ञानी भक्त तो साक्षात् मेरा ही स्वरूप है | परमात्मा द्वारा ज्ञानी के अतिरिक्त अन्य प्रकार के भक्तों को भी उदार बताने को स्पष्ट करते हुए कहा कि परमात्मा को भजने वाला प्रत्येक भक्त उदार ही है, क्योंकि उसने अपनी कामना को पूरा करने के लिए एक परमात्मा का आश्रय ही लिया है |
                परमात्मा के आश्रय से व्यक्ति भयमुक्त हो जाता है, इसको स्पष्ट करने के लिए उन्होंने ब्रह्मलीन स्वामी रामसुख दास जी महाराज के द्वारा दिया गया बकरी और शेर का दृष्टान्त सुनाया | एक बकरी अपने झुण्ड से बिछड़ कर जंगल में भटक गयी | रात होने को थी और उसे अपने स्वामी के घर का रास्ता नहीं मिल रहा था | उसे अब स्वयं के शिकार बन जाने का भय सता रहा था | सहसा उसे शेर का एक पद चिन्ह दिखाई दिया | वह उसी का आश्रय लेकर वहीँ पर बैठ गई | रात को विभिन्न प्रकार के शिकारी जानवर उसे खाने के ;लिए आये | प्रत्येक बार उसने शेर के पद चिन्ह की और इशारा करते हुए कहती गई कि मैं तो इनके आश्रय यहां पर बैठी हूँ | सभी जंगली जानवर शेर की कल्पना कर के ही डर कर भाग छूटे | आखिर में एक शेर उसे खाने के लिए आ ही पहुंचा | बकरी ने तुरंत ही उसके पद चिन्ह की और इशारा कर दिया और कहा कि मैं तो अब आपके ही आश्रय हूँ, चाहो तो मार डालो और चाहो तो छोड़ दो | भला, शेर अपने पर आश्रित को कैसे मार सकता था ? यही बात परमात्मा का आश्रय लेने पर है | परमात्मा का आश्रय लेने का एक ही अर्थ है, सब कुछ भगवान के भरोसे छोड़ दो | तब परमात्मा कहेंगे-‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ अर्थात अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा करना अब पर मेरा कार्य है |(गीता-9/22)
                  प्रवचन का प्रारम्भ आचार्यजी ने भरत के चित्रकूट प्रस्थान करने से किया जहाँ वे अपने बड़े भाई श्री राम से मिलने जा रहे थे | भरत जी कह रहे हैं कि जब मैं अपनी माता कैकेई के कर्मों को देखता हूँ तो मेरे पैर दो कदम पीछे हट जाते हैं क्योंकि अपनी माता के कारण ही श्री राम को वनवास हुआ था, माताओं को वैधव्य प्राप्त हुआ था और सीता तथा लक्ष्मण को राम के साथ वन में भटकना पड़ रहा है | जब भरत अपने बारे में विचार करते हैं तो उनके कदम ठिठक जाते है | परन्तु जब भगवान श्री राम के उदार ह्रदय का विचार मन में आता है तो यही पैर तेजी से आगे चित्रकूट की तरफ बढ़ने लगते हैं | इस दृष्टान्त से परमात्मा की उदारता का हमें ज्ञान होता है | आज के इस प्रवचन का समापन करते हुए आचार्यजी ने कहा कि अगर परमात्मा को कुछ भी अपना मानकर अर्पण करते हो तो वे उससे कई गुना आपको वापिस लौटा देते हैं परन्तु जिस समय आप परमात्मा को उन्हीं का उन्हीं को अर्पित कर देते हैं, तब परमात्मा अपना सर्वस्व स्वयं के सहित आपको दे देते है | परमात्मा का  आश्रय लेने का अर्थ यही है कि आप उसी परमात्मा के स्वरूप हो, अपने आपको उसी के आश्रित कर दें | वास्तविक शरणागति यही है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 

Saturday, September 17, 2016

अथ आचार्य उवाच-1

दिनांक-16 सितम्बर 2016 प्रातः कालीन सत्र
        आज से अग्रसेन-भवन सुजानगढ़ में सप्त दिवसीय दुर्लभ भक्ति ज्ञान-यज्ञ का शुभारम्भ हुआ जिसमें प्रातःकालीन सत्र में हरि शरणम् बेलडा, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने ‘शरणागति’ विषय पर चर्चा प्रारम्भ करते हुए बताया कि ज्ञान और भक्ति में भक्ति अधिक श्रेष्ठ है | भक्ति प्रेम से परिपूर्ण है जबकि ज्ञान शुष्क है | ज्ञान से व्यक्ति ब्रह्म को तो अवश्य जान जाता है परन्तु फिर भी एक प्रकार की पूर्णता का अभाव सदैव बना रहता है जबकि भक्ति में व्यक्ति पूर्णता को उपलब्ध हो जाता है | ज्ञान एक निरा सूखे ठूंठ के समान है जबकि भक्ति पुष्प व फलों से लदा हुआ हरा-भरा एक पल्लवित पेड़ है | ज्ञान अहंकार पैदा करता है और व्यक्ति चाहे कितना ही ज्ञानी हो जाये, उसमें सूक्ष्म अहंकार सदैव बना ही रहता है जबकि भक्ति में व्यक्ति सदैव नम्र एवं नत रहता है |
                 ‘शरणागति’ विषय पर प्रवचन करने की शुरुआत उन्होंने दो दृष्टान्त देते हुए की | प्रथम दृष्टान्त में एक देश का राजा विदेश यात्रा पर था | उसके कई रानियाँ थी | उन्होंने प्रत्येक रानी को अपनी मनचाही वस्तु एक कागज पर लिख कर देने को कहा जो उन्हें वह विदेश से लाकर वह उसे उपहार स्वरूप देगा | किसी ने हीरे-जवाहरात की मांग की, किसी ने गहनों की और किसी ने मनपसंद कपड़ों की | सबसे छोटी रानी ने कागज पर केवल “एक” लिखकर राजा को दे दिया | राजा ने पूछ-इस एक का क्या अर्थ है ? रानी ने कहा मुझे तो बस, केवल एक आप ही चाहिए, मुझे किसी अन्य की कोई आवश्यकता नहीं है | इसी प्रकार हमें भी केवल परमात्मा ही प्रिय होने चाहिए अन्य सब केवल माया है और कुछ नहीं है | दूसरा दृष्टान्त उन्होंने अर्जुन और दुर्योधन का दिया | महाभारत युद्ध से पहले जब श्री कृष्ण के पास दोनों कुछ लेने को गए तो अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण को माँगा और दुर्योधन ने भगवान की सेना को | उस युद्ध का परिणाम हमारे सामने है | अतुलनीय बल वाली सेना को पराजय का सामना करना पड़ा और विजय श्री अर्जुन को मिली, जिसके साथ भगवान श्री कृष्ण थे | कृष्ण भगवान महाभारत युद्ध में अर्जुन के सारथी बने थे | शास्त्रों में बुद्धि को सारथी कहा गया है जबकि भौतिक शरीर को रथ | जिस व्यक्ति के बस में उसका सारथी हो, रथ उसका विजय-दिशा की और चल पड़ेगा |
              उपरोक्त दो दृष्टान्त स्पष्ट करते हैं कि भगवान में अटूट श्रद्धा ही व्यक्ति को सदैव आनंदित करती है, संसार में अन्य कोई नहीं | भगवान में अटूट श्रद्धा और विश्वास रखने का नाम ही शरणागति है | शरणागत को जीवन में किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीं रहती | रावण के जीते जी और लंकेश होते हुए भी भगवान श्री राम ने समुद्र के पानी से विभीषण का राज तिलक करते हुए उसे लंकेश कहकर संबोधित किया था | इसका एक मात्र कारण विभीषण का परमात्मा के प्रति शरणागत होना था |
कल इस विषय पर आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा आगे चर्चा करेंगे |
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 

Friday, September 16, 2016

ज्ञान-विज्ञान-40-समापन किश्त

                आज हम ज्ञान-विज्ञान के विवेचन के अंतिम पड़ाव पर आ पहुंचे है | सातवें अध्याय के 25 वें श्लोक से 29 वें श्लोक तक ज्ञान-विज्ञान को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि परमात्मा और मनुष्य एक ही है, अंतर केवल इतना है कि मनुष्य अपने इस वास्तविक स्वरूप को पहचान नहीं पा रहा है | इस स्वरूप को पहचानने के लिए उसे परमात्मा में श्रद्धा और विश्वास रखते हुए विज्ञान सहित ज्ञान का आश्रय लेना पड़ेगा | इस अध्याय के अंतिम श्लोक में उन्होंने अधिभूत और अधिदैव सहित अधियज्ञ को जानने वाले को ही आत्मरूप को जान लेना माना है | अधिभूत में परमात्मा की वे सभी कृतियाँ आ जाती है जो बार-बार उत्पन्न और समाप्त होती रहती है | इस प्रकार अधिभूत का ज्ञान शरीर और स्थूलता का ज्ञान है, अतः इसे विज्ञान कहा जाता है | अधिदैव ज्ञान के अंतर्गत हिरण्यमय पुरुष अथवा ब्रह्मा तथा जीवात्मा का ज्ञान आता है, जिसको जानने का प्रयास ही विज्ञान से ज्ञान की यात्रा है | अधियज्ञ ही साक्षात् परमात्मा है जिसके अंतर्गत अधिभूत और अधिदैव दोनों ही आ जाते हैं | अधिभूत और अधिदैव सहित अधियज्ञ को जान लेना ही सम्पूर्ण ज्ञान है |
                  किसी भी प्रकार का विवेचन कभी भी अर्थहीन नहीं होता | अगर कोई वस्तु 100 चोटों के मारने से टूटती है, इसका अर्थ यह नहीं है कि पहले मारी गयी 99 चोटें व्यर्थ ही थी | सभी चोटें उस वस्तु को कमजोर करती गयी और अंत में उस वस्तु के टूटने का श्रेय 100 वीं चोट को मिला | इस विवेचन में एक ही बात को अलग-अलग तरीके से कई बार कहा गया है, जिससे व्यक्ति का स्थूल के ज्ञान अर्थात विज्ञान को ही ज्ञान मान लेने का भ्रम टूटे | इस भ्रम के टूटने से ही उसकी संसार से निवृति और परमात्मा की ओर  प्रवृति होगी | इस विवेचन से जो एक समीकरण बन कर निकला है, वह आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ |
   भोगी (विज्ञान) à योगी (ज्ञान) à महात्मा (परमात्मा के परायण)
             मैंने एक प्रयास किया है, विज्ञान और ज्ञान को अपनी अल्प बुद्धि से स्पष्ट करने का | मेरा उद्देश्य विज्ञान और ज्ञान के मध्य पैदा की गई विषमता को दूर करना है | कितना सफल रहा हूँ, आप ही निर्णय कर सकते हैं | मैं यह नहीं कहता कि यह विवेचन आपको ‘परम’ का ज्ञान करवा ही देगा परन्तु इतना अवश्य हो सकता है कि आपके मन में उस परमपिता को जानने की उत्सुकता पैदा हो जाये | फिर आप उस महापुरुष के पास जाकर उस परम ब्रह्म को जान सकते हैं, जिसे गुरु कहा जाता है | कठोपनिषद कहती है-
उत्तिष्ठत       जाग्रत      प्राप्य      वरान्निबोधत |
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ||कठो.-1/3/14 ||
अर्थात हे मनुष्य उठो; जागो और श्रेष्ठ महापुरुषों को पाकर यानि उनके पास जाकर उस परम ब्रह्म परमेश्वर को जान लो; त्रिकालज्ञ ज्ञानीजन उस तत्वज्ञान के मार्ग को, छुरे की तीक्ष्ण की गई धार पर चलने के सदृश दुर्गम बताते हैं |
           मेरी परमपिता परमेश्वर से यही प्रार्थना है कि हम सबको ऐसे सद्गुरु मिले जो विज्ञान सहित ज्ञान प्रदान करे जिससे हम अपने परमात्म स्वरूप को पहचान सके | आशीर्वाद स्वरूप मिले इस मानव जन्म की तभी सार्थकता है |
             आप सभी का आभार |

|| हरिः शरणम् || 

Thursday, September 15, 2016

ज्ञान-विज्ञान-39

           इस ब्रह्माण्ड में समस्त कृतियाँ परमात्मा ने अपने में और स्वयं से ही उत्पन्न की है | समस्त परमात्मा को देखना ही वास्तविकता में देखना है | जो ऐसा देखता है वह कभी भी भ्रमित नहीं हो सकता |
             यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति |
             तस्याहं न प्रणश्यामि स च में न प्रणश्यति || गीता-6/30 ||
अर्थात जो सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अंतर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता |
        यह श्लोक भी इसी बात को पुष्ट करता है कि परमात्मा और व्यक्ति दोनों का एक ही स्वरूप हैं, दोनों में किसी भी प्रकार की भिन्नता नहीं है | परमात्मा को अपना स्वरूप देखने के लिए व्यक्ति के रूप में व्यक्त होना पड़ा, अतः व्यक्ति का स्वरूप तो स्वयं परमात्मा का ही स्वरूप हुआ | आवश्यकता इसी बात की है कि व्यक्ति इस ब्रह्माण्ड की प्रत्येक कृति में परमात्मा को ही देखे और उसकी प्रसन्नता के लिए कर्म करे न कि स्वयं के स्वार्थ के लिए |
               विज्ञान, ज्ञान की प्रारम्भिक अवस्था का नाम है; ऐसे में हमें यह जानना आवश्यक है कि फिर ज्ञान की पराकाष्ठा क्या है, ज्ञान की पूर्णता किसमें है ? गीता के सातवें अध्याय की समाप्ति करते हुए भगवान श्री कृष्ण इसी बात को स्पष्ट करते हुए अर्जुन को कहते हैं-
               साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः |
               प्रयाणकालेSपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः || गीता-7/30 ||
अर्थात जो पुरुष अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ सहित मुझे अन्त काल में भी जानते हैं, वे युक्त चित्त वाले पुरुष मुझे जानते हैं |
            यह श्लोक ही स्पष्ट करता है कि ज्ञान की पूर्णता परमात्मा को समग्र रूप से जानने में ही है अन्यथा सारा प्राप्त ज्ञान अविद्या के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | अधिभूत को जानना विज्ञान है, अधिदैव को जानना विज्ञान सहित ज्ञान को जानने की स्थिति है और अधिभूत और अधिदैव सहित अधियज्ञ को जानना सम्पूर्ण ज्ञान है | इन तीनों को जान लेने के उपरांत भी यह ज्ञान अन्त काल में विस्मृत हो सकता है | इस सम्पूर्ण ज्ञान को अंत समय तक भी स्मृति में रख पाना ही परमात्मा को जान लेना है अर्थात परमात्मा के स्वरूप को जान लेना है | आत्मरूप ही परमात्मा का स्वरूप है | अंत समय में यह ज्ञान तभी स्मृति में बना रह सकता है जब व्यक्ति का मन प्रारम्भ से ही परमात्मा में लगा रहता है | ऐसे व्यक्ति को ही इस श्लोक में युक्त चित्त वाला पुरुष कहा गया है | कई मनुष्य यह कहते हैं कि परमात्मा में मन लगाना तो वृद्धावस्था का कार्य है परन्तु मैं कहता हूँ कि उनकी यह सोच ही गलत है | जीवन की युवावस्था ही वह उपयुक्त समय है, जब संसार से आसक्ति त्यागकर परमात्मा के साथ मन को आसानी से युक्त  किया जा सकता है |

कल समापन कड़ी 
|| हरिः शरणम् ||        

Wednesday, September 14, 2016

ज्ञान-विज्ञान-38

            परमात्मा ने अपने भीतर दो ‘अपरा’ और ‘परा’ प्रकृतियाँ विकसित की और फिर दोनों का संयोग कराकर स्वयं साक्षी बनकर अपनी ही कृति के भीतर बैठ गया | उस कृति का नाम ही मनुष्य है | उद्देश्य केवल एक ही था, अपना स्वरूप जानने का, आनंद प्राप्त करने का | परन्तु मनुष्य ने क्या किया ? वह उस आनंद देने वाली ‘अपरा’ प्रकृति के ही अधीन हो गया और स्वयं भोक्ता बन बैठा | भीतर बैठे परमात्मा अपने स्वरूप को देखने का इंतजार करते रहे | जब मनुष्य इस ‘अपरा’ के वशीभूत होकर विभिन्न प्रकार के द्वंद्व में उलझ गया तब उसे अपने निर्माता की याद आई | वह उसे ढूँढने बाहर निकल पड़ा, जब कि वह उसके भीतर ही मौजूद है | उसकी बाहर की यात्रा को भीतर की यात्रा में बदलना होगा तभी वह व्यक्ति-भाव को छोड़कर परम-भाव को प्राप्त हो सकता है, अन्यथा नहीं | जिस दिन व्यक्ति परम-भाव को उपलब्ध हो जायेगा, वही उसका वास्तविक स्वरूप होगा जो कि परमात्मा का ही स्वरूप है | अतः परमात्मा और व्यक्ति भिन्न न होकर एक ही है, यही सत्य है |

           व्यक्ति को व्यक्ति-भाव से परम-भाव की ओर ले जाने का मार्ग ही विज्ञान से ज्ञान की ओर जाने का मार्ग है | विज्ञान स्थूल को अधिक महत्त्व देता है, वह  माया में उलझा कर रख देता है जबकि ज्ञान उस माया के अधिष्ठान का ज्ञान कराता है और स्पष्ट करता है कि यह सब एक खेल और स्वप्न से अधिक कुछ भी नहीं है | समझदार वही है जो परमात्मा के इस खेल के समाप्त होने से पहले ही अपने घर लौट जाये | मृग-मरीचिका है यह माया | यहाँ  जल का आभास मात्र है, जल है नहीं | इस संसार में भी सुख मिलने का आभास होता है परन्तु आज तक वह सुख कभी भी किसी को मिला नहीं है | अतः जितना शीघ्र हो सके हमें व्यक्ति-भाव का त्यागकर परम-भाव को उपलब्ध हो जाना चाहिए | वहां पर केवल आनंद ही आनंद है और हमारा वास्तविक स्वरूप भी परमात्मा के स्वरूप की तरह सच्चिदानंद ही है |
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् ||