Monday, June 30, 2014

धन |-९

                                       धन की प्रथम गति दान है,जिसके बारे में हम संक्षेप में चर्चा कर चुके है । दूसरी गति अर्थात विसर्जन के दूसरे प्रकार के अनुसार धन भोग में व्यय होता है । जितने भी व्यक्ति आज तक इतिहास में हुए हैं , उनमे से बहुत कम ने ही अपने सृजित धन को उचित तरीके से भोगा है ।धन का भोग ,वास्तव में है क्या? किसी भी पदार्थ का भोग उसका वह उपयोग है जिससे शरीर और मन को सुख और शांति का अनुभव होता है । यह सुख किसी भौतिक पदार्थ के उपयोग का परिणाम होता है इसलिए ऐसा सुख भी उस भौतिक पदार्थ की तरह ही अस्थाई होता है । धन से भौतिक पदार्थ और सुख के संसाधन खरीदे जा सकते हैं ,इसलिए अपरोक्ष रूप से इसे धन का भोग ही कहा जाता है ।सुख प्रदान करने वाले भौतिक पदार्थ और संसाधन दिन-प्रतिदिन नए नए विकसित किये जा रहे हैं । इन सुख के संसाधनों की जकड धीरे धीरे धीरे मज़बूत होती जा रही है । प्रारम्भ में व्यक्ति इन संसाधनों को प्राप्त करने के लिए छटपटाता है । एक बार उपलब्ध होने के बाद व्यक्ति इन्हें बार बार प्राप्त करने का प्रयास करता है । इसी कारण से व्यक्ति इन भोगों में ही उलझ कर रह जाता है । एक बार जब भोगों से सुख प्राप्त होने लगता है तो फिर व्यक्ति चाह कर भी उनसे विमुख नहीं हो सकता । भोगों के प्रति यह आकर्षण भोगों के प्रति आसक्ति कहलाती है ।
                                  भोग से सुख प्राप्त करना कदापि भी अनुचित नहीं है परन्तु भोगों में ही उलझ कर रह जाना अनुचित है । भोगों में आसक्ति हो जाने से व्यक्ति का धन तेजी के साथ विसर्जित होने लगता है और संरक्षित नहीं रह पाता । सृजित धन तो व्यय होता जाता है और भोगों में उलझा व्यक्ति धन का उपार्जन भी नहीं कर पाता । ऐसे में धन समाप्ति की ओर जाने का रुख कर लेता है । इस प्रकार की आसक्ति कहीं से भी उचित नहीं है ।                                    
                                भोग ,धन की वह गति है जिसमे व्यक्ति धन को अपने शरीर,अपने परिवार के सुख के लिए उपयोग में लेता है ।  बस उसे यही ध्यान रखना है कि धन को केवल शारीरिक सुख के भोगों पर ही व्यय नहीं करना है । उत्तम भोग तभी माना जाता है जब व्यक्ति अपने धन को बच्चों की शिक्षा,स्वास्थ्य और परिवार की उन्नति के लिए व्यय करे । इसके लिए वह किसी भी प्रकार की कंजूसी नहीं बरते । ऐसे भोग में धन व्यय करना उस धन का सही व उचित उपयोग करना है ।
क्रमशः
                                         ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Sunday, June 29, 2014

धन |-८

                                 धन के विसर्जन के कितने तरीके हो सकते है ,आइये वही जानने का प्रयास करते है । एक बहुत ही प्रसिद्द दोहा है ,जो इस बारे में हमारा मार्ग दर्शन कर सकता है ।
                                  या धन की गति तीन है,दान भोग और नाश ।
                                  दान कर दो या भोग लो, या फिर होगा  नाश ॥
                 धन चंचल है,इसलिए यह गतिमान भी है । इस धन की तीन प्रकार की गति होती है-दान,भोग और नाश । दान का अर्थ है आप इस धन को किसी जरूरतमंद की सेवा के लिए समर्पित कर सकते हैं । इस भौतिक संसार में चाहे हम धन की कितनी ही निंदा करलें परन्तु हम सब साथ ही यह भी जानते हैं कि इस संसार में बिना धन के जीना कितना मुश्किल है । दान,धन का एक त्याग है । इस त्याग के पीछे परमार्थ की भावना होती है । स्वार्थ से दान का किसी भी प्रकार का कोई रिश्ता नहीं होता है । जिस धन के त्याग के पीछे स्वार्थ छिपा होता है फिर वह धन का त्याग दान की श्रेणी में नहीं आता है । स्वार्थ प्रायः अपना नाम कमाने और प्रसिद्धि तथा समाज में प्रतिष्ठा पाने का होता है । अतः जो त्याग या कथित दान अगर व्यक्ति प्रसिद्धि और नाम पाने के उद्देश्य से करता है वह दान निम्न या राजस श्रेणी का कहा जाता है ।
                               गीता में भगवान् श्री कृष्ण इस प्रकार के दान के बारे में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि-
                                                        यत्तु प्रत्युप्कारार्थ फलमुद्दिश्य वा पुनः ।
                                                       दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥ गीता १७/२१ ॥
                              अर्थात,जो दान क्लेश पूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को दृष्टिगत रखते हुए दिया जाता है,वह दान राजस प्रकृति का कहा जाता है । क्लेश पूर्वक दान वह दान है जो आजकल हम लोग चंदा करने वालों को मजबूरीवश देते हैं । फ़ल की दृष्टि से दान करने का अर्थ है कि दान मान,बड़ाई,प्रतिष्ठा और स्वर्गादिकी प्राप्ति के लिए या फिर रोग अथवा कष्ट निवारण हेतु दिया जाता है । इस प्रकार से दिया हुआ
दान व्यक्ति को बांधता ही है,मुक्त नहीं करता ।
                               अब प्रश्न यह उठता है कि इस प्रकार का दान बांधता कैसे है ,जबकि धन का त्याग तो इस प्रकार से किये हुए  दान में भी होता है । इस विधि से दिए गए दान से आपका निजी स्वार्थ जुड़ा होता है और स्वार्थ सदैव ही मोह पैदा करता है । मोह ही बंधन पैदा करता है । अतः इस प्रकार से किये गए दान में धन का त्याग होते हुए भी धन के प्रति आसक्ति बनी रहती है और आसक्ति बंधन पैदा करती है । इस दान मैं व्यक्ति धन का त्याग करके भी धन से मुक्त नहीं हो पाता ।
                               फिर कौन सा दान अच्छी श्रेणी का माना जाता है ? वह दान जो बिना किसी कामना के पात्र और योग्य व्यक्ति को उसकी आवश्यकता को देखते हुए दिया जाता है वह दान सात्विक दान कहलाता है । ऐसे दान में न तो उपकार की भावना मन में होनी चाहिए और न ही बदले में कुछ प्राप्त हो जाने की कामना ही होनी चाहिए । आत्म प्रसंशा की कामना तो करना अनुचित है ही ।दान ,पात्र व्यक्ति की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर और उसी अनुरूप आवश्यकता को पूरा करने वाला होना चाहिए ।  इस दान के बारे में कहा जाता है कि ऐसा दान अगर आप दायें हाथ से कर रहे हो तो इसकी खबर बाएं हाथ को भी नहीं होनी चाहिए । इस प्रकार के दान में धन का त्याग पूर्णतया हो जाता है और दान किये हुए धन में आसक्ति पूर्णतया समाप्त हो जाती है । ऐसा दान ही व्यक्ति को मुक्त कर सकता है ।
क्रमशः
                                         ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Saturday, June 28, 2014

धन |-७

                                  धन के उपार्जन और सृजन के बारे में हमने विचार किया और पाया कि अगर इसका उपार्जन उचित तरीके से किया जाये और संग्रहण भी व्यवस्थित हो तो व्यक्ति का जीवन सुखमय व्यतीत हो सकता है । धन के बारे में एकदम स्पष्ट है कि यह अस्थाई होता है और स्थान परिवर्तन करना इसकी विशेषता है । एक जगह यह कभी भी टिकता नहीं है । इसका विसर्जन होना निश्चित है । धन संग्रह करने वाले व्यक्ति को यह एक दम स्पष्ट होना चाहिए । एक उक्ति भी है कि आप चाहे जितना भी धन इक्कट्ठा कर ले,साथ में एक पैसा भी नहीं ले जाओगे । इस संसार को छोड़कर खाली हाथ ही जाना होगा । अन्तिम वस्त्र ,कफ़न के किसी भी प्रकार की कोई जेब नहीं होती है । अतः आपके इस अर्जित और सृजित किये हुए धन का विसर्जन होना निश्चित है ।
                                   धन का विसर्जन इतना आसन नहीं है । व्यक्ति का धन के प्रति लगाव अर्थात धन में आसक्ति इसके विसर्जन को प्रतिबंधित करती है । आसक्ति,धन का विसर्जन होने ही नहीं देती । धन की आसक्ति केवल उसके अर्जन और सृजन में ही विश्वास रखती है । इसी कारण परिवार में धन अथाह रूप से बढ़ता रहता है और आसक्ति के कारण खर्च कम होता है । खर्च कम इसलिए होता है क्योंकि संग्रहित धन में कमी आ जाने का सदैव ही भय बना रहता है । धन को तो सदैव एक व्यक्ति के पास तो रहना नहीं है ,वह तो समयबद्ध तरीके से व्यक्ति बदलता रहता है । इसी तरह एक दिन आपके द्वारा अर्जित और सृजित धन-संपदा को भी किसी अन्य व्यक्ति के हाथों में जाना निश्चित है । जब धन का विसर्जन होना निश्चित ही है,तो फिर यह विसर्जन क्यों न आपके अनुसार और आपके अनुकूल हो ?
                                  धन के विसर्जन को अगर समय रहते पूरा कर लिया जाये तो इस भौतिक शरीर की मृत्यु के समय व्यक्ति को किसी प्रकार का धन के प्रति मोह नहीं रहेगा । धन का मोह अन्य सभी के प्रति मोह पैदा करता है । धन के विसर्जन के साथ ही अन्य वस्तुओं और प्राणियों से मोह भी धीरे धीरे कम होने लगता है । इसीलिए अगर सभी प्रकार की ममता और मोह समाप्त करना है तो धन से वैराग्य पैदा होना आवश्यक है ।धन-सम्पति हमें परिवार के साथ बांधती है और इससे वैराग्य पैदा  होना हमें परिवार के बंधन से मुक्त करता है । अतः मुक्ति की प्रथम सीढ़ी धन से वैराग्य पैदा होना ही है । 
                                धन से वैराग्य होना,इसके विसर्जन का ही दूसरा नाम है । विसर्जन किस प्रकार और क्यों होता है ? विसर्जन इसलिए होता है कि यह धन यानि लक्ष्मी का चंचल स्वभाव माना जाता है । इसकी प्रकृति भी जड़ अर्थात अपरा कही गयी है । अपरा प्रकृति सदैव ही परिवर्तनशील होती है । इसी परिवर्तनशीलता के गुण के कारण धन का विसर्जन होना सदैव ही निश्चित होता है ।  विसर्जन या तो व्यक्ति स्वयं की मन मर्जी से कर सकता है नहीं तो यह अपने आप ही होजाता है । यह व्यक्ति की मानसिकता पर निर्भर है कि वह धन का विसर्जन स्वयं करना चाहता है या नहीं । धन का स्वयं के द्वारा किया जाने वाला विसर्जन उसे मुक्ति की राह पर ले जा सकता है ,नहीं तो वह धन के इस बंधन से जीवन में मुक्त नहीं हो पायेगा ।
क्रमशः
                                ॥ हरिः शरणम् ॥   

Friday, June 27, 2014

धन |-६

                                   धन उपार्जित करना भी अनुचित नहीं है तथा  सृजित और संग्रहित करना भी अनुचित नहीं है । फिर अनुचित क्या है ? धन के बारे में कहा जाता है कि इसका होना ,नहीं होने से अधिक दुखदाई है । चौंक गये न आप ! जी हाँ,मैं बिलकुल सत्य कह रहा हूँ । धन के न होने से व्यक्ति के जीवन में मात्र एक ही दुःख होता है -धन के अभाव का दुःख ,उसके न होने का दुःख ।  और जब एक बार धन का आगमन प्रारम्भ हो जाता है तब व्यक्ति की विलासिता भी आवश्यकता बनने लग जाती है ।  मैं इस बात से सहमत हूँ कि धन का दैनिक आवश्यकता पूर्ति के लिए होना आवश्यक है । आपकी दैनिक आवश्यकताएं धन के अभाव में पूरी होना असंभव है । परन्तु जब धन का आगमन तीव्र गति से बढ़ता है तब व्यक्ति उस अतिरिक्त धन को विलासिता पर खर्च करने लग जाता है । विलासिता उस को कहते हैं जो इस शरीर के लिए तो कतई आवश्यक नहीं है बल्कि क्षण भर के लिए,थोड़े समय के लिए इस शरीर और मन को सुख देने वाली होती है ।
                              व्यक्ति को एक छोटा सा घर भी पर्याप्त होता है ,रहने के लिए । परन्तु अतिरिक्त धन से वह बंगला खरीदता है । मनोरंजन के लिए वह अत्यल्प खर्च करके भी उसे प्राप्त कर सकता है परन्तु धन की अधिकता को वह होम थियेटर बनाने में खर्च करता है । उसका एक छोटे से स्कूटर या छोटी कार से समस्त कार्य हो सकते है परन्तु वह लग्जरी कार खरीदना पसंद करता है । समाज में झूठी शान शौकत के प्रदर्शन के लिए वह अपने बेटे बेटी की शादी में फिजूलखर्ची करता है । यह सब विलासिता के अंतर्गत आता है । एक स्थिति ऐसी आती है जब यह विलासिता ही उसकी आवश्यकता बन जाती है । जब किसी कारणवश धन का आगमन नियंत्रित हो जाता है तब उसे यह विलासिताएं अपनाना भारी पड़ता है और वह उन्हें त्यागना भी चाहता है परन्तु त्याग नहीं सकता । विलासिताओं का त्याग करना संभव नहीं हो पाता क्योंकि विलासितापूर्ण जीवन जीने के लिए जो साधन काम में लिए जाते है वे समस्त चीजें अब व्यक्ति की आवश्यकताऐं बन चुकी होती हैं । जब विलासिताएं,आवश्यकताएं बन जाती है तो जीवनयापन बड़ा ही कठिन और दुखदाई हो जाता है। यही कारण है कि धन का अभाव ज्यादा अच्छा है बजाय धन का बाहुल्य होने से ।
                               अब प्रश्न यह उठता है कि धन के तीव्र आगमन के दौरान इसके इस प्रभाव से कैसे बचा जाये ? धन का उपभोग करना कहीं से भी अनुचित नहीं है, परन्तु उस उपभोग का आदी हो जाना अनुचित है । सुविधाओं का गुलाम बन जाना ही विलासिता को आवश्यकता बना देता है । आप प्रत्येक पैसे से सुख प्राप्त करना चाहते हैं , परन्तु उस क्षणिक सुख को ,उस तात्कालिक सुख को स्थाई न समझे । ऐसा होते ही आप प्रत्येक परिस्थिति में सुखी रहेंगे-धन होने पर भी और न होने पर भी । धन की प्राप्ति प्रारब्ध और पुरुषार्थ से ही संभव है,मैं तो यहाँ तक कहूँगा की धन केवल पुरुषार्थ से ही अर्जित किया जा सकता हैक्योंकि प्रारब्ध भी तो पूर्व जन्म में किये गए पुरुषार्थ से ही बनता है । अतः अपने द्वारा किये गए पुरुषार्थ के परिणाम द्वारा आप स्वयं संचालित न हो,यही ध्यान रखें । फिर यही पुरुषार्थ ,यही धन दुखदाई न होकर आनंद देने वाला साबित होगा ।
क्रमशः
                                ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Thursday, June 26, 2014

धन |-५

                                           धन का उपार्जन और संग्रह दोनों ही अनुचित नहीं है । धन का उपार्जन उचित तरीके से ही होना चाहिए ,किसी को धोखा देकर नहीं,किसी की चोरी करके नहीं, न ही किसी की अमानत में खयानत करके और न ही किसी का दिल दुखाकर । धन को कमाने के बाद उसका संग्रह आवश्यक समझा जाता है जिसको हम बचत करना कहते हैं । यह बचत  भविष्य में पड़ने वाली धन की आवश्यकता को ध्यान में रखकर की जाती है । बचत करना किसी भी रूप में हो सकता है । प्रायः लोग बचत करने के साथ साथ धन में सतत वृद्धि भी होती रहे,ऐसा सोचते हैं । यह भी किसी रूप में अनुचित नहीं है । धन का निवेश बचत के लिए और धन में वृद्धि के लिए किया जाये तो उत्तम है । इस धन के निवेश को सृजन कहते हैं । सृजन से धन में वृद्धि भी होती रहती है और भविष्य की सुरक्षा भी । सृजन करने के कई तरीके होते हैं । प्रायः व्यक्ति अपनी बचत का धन भूमि आदि खरीदने में लगाता है या कोई कीमती धातु आदि खरीद कर रख लेता है जिसे आवश्यकता के समय बेचकर उस धन को उपयोग में लाया जा सकता है । यह तरीका सुरक्षित भी है और सही भी । कुछ व्यक्ति लोभवश किसी जरूरतमंद व्यक्ति को अपन धन उच्च ब्याजदर पर उपलब्ध करवाते है । यह रास्ता अनुचित भी है और सुरक्षित भी नहीं है । अतः ऐसे रास्ते में किये जाने वाले धन के निवेश के परिणाम प्रायः दुखद ही होते हैं ।
                                         धन एक प्रकार से व्यक्ति की सेवा के लिए होता है न कि व्यक्ति उस धन की सेवा करने लग जाये । धन से व्यक्ति को सुख के साधन प्राप्त होते हैं परन्तु जब धन को केवल संग्रहित ही ककरने लग जाएँ और उससे सुख प्राप्त करने के लिए व्यय न करे तो ऐसी स्थिति में यही धन आपके लिए दुःख का कारण बन जाता है । व्यक्ति को दिनरात उसकी सुरक्षा की चिंता रहती है और इस चिंता में उसके भौतिक शरीर का क्षय होने लगता है । इसलिए आवश्यक है कि धन को केवल उपार्जित और संग्रहित करने में ही न लगे रहे बल्कि उसका सदुपयोग भी साथ साथ करते रहें । धन के सदुपयोग से आपको शारीरिक सुख के साथ साथ मानसिक शांति भी प्राप्त होगी । ऐसे में जो मानसिक शांति प्राप्त होती है वह अमूल्य होती है ।
                         संस्कृत का एक बहुत ही लोक प्रिय श्लोक है -
                                अलसस्य कुतो विद्या,अविद्यस्य कुतो धनम् ।
                                अधनस्य कुतो मित्रम्,अमित्रस्य कुतो सुखम् ॥
अर्थात,जो कार्य करने में आलसी है वह विद्या प्राप्त नहीं कर सकता ,बिना विद्या के धन की प्राप्ति होना असंभव है ,बिना धन पास में हुए कोई भी मित्रता नहीं रखेगा और बिना किसी मित्र के सुख कैसे मिल सकता है ? आपके पास अगर धन संग्रहित किया हुआ है तो आपके पास मित्रों की कोई कमी नहीं होगी । मित्र आपके सुख-दुःख के साथी होते है ,इसीलिए यह कहा जाता है कि मित्र ही सुख प्रदान कर सकता है । चूँकि धन के कारण ही आपको मित्र मिलते है इसी लिए धन को ही मनुष्य का सबसे अच्छा मित्र कहा गया है ।
क्रमशः
                                       ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Wednesday, June 25, 2014

धन |-४

                             धन को उपार्जित करने के कई तरीके हैं । बिना मन की उपस्थिति के केवल तन के द्वारा पुरुषार्थ कर धन का उपार्जन असंभव है । अतः धन कमाने के लिए व्यक्ति की मानसिक अवस्था का सही होना आवश्यक है । जब तक मन का तन के साथ सही सामंजस्य नहीं होगा तब तक व्यक्ति चाहे कितना ही प्रयास करले,अर्थार्जन की सही राह पकड़ ही नहीं सकता । बिना मन और पुरुषार्थ के पास में आई धन संपदा भी हाथ से निकल सकती है । केवल अर्थाभाव को हम भाग्य का खेल कहकर चुप नहीं बैठ सकते । हाँ,कुछ हद तक यह भाग्य का खेल है भी,परन्तु भाग्य भी तो पूर्वजन्म में किए गए प्रयास और पुरुषार्थ से ही तो निर्मित होता है । अतः धन उपार्जन का सीधा सम्बन्ध इस तन और मन दोनों से ही है । इसी लिए इन तीनों,तन,मन और धन की संगति कही जाती है । इन तीनों का आपस में इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि एक की अनुपस्थिती दूसरे के अस्तित्व के लिए प्रश्नचिन्ह बन जाती है,एक के बिना दूसरे का अस्तित्व भी संकट में पड़ सकता है  और व्यक्ति का इस संसार में जीना तक कठिन हो जाता है ।
                           हमारी सबसे बड़ी कमी यह है कि हमारे इस जीवन के लिए जिन तीन तत्वों की महत्वता है ,उन्ही को हम निन्दित करते आये हैं । तन,मन और धन की निंदा क्यों करते हैं,मैं आज तक समझ नहीं पाया हूँ । संसार में सभी व्यक्ति इन तीनों का उपयोग करते आये हैं और साथ ही साथ निंदा भी । उपयोग में आने वाले तत्वों की निंदा करना-मेरी तो समझ से बाहर है । बिना तन रुपी मशीन के जीवन संभव नहीं है ,बिना मन के कर्म संभव नहीं है और बिना धन के इस तन और मन को किसी कर्म के लिए सुरक्षित रखना मुश्किल है । ये तीनो तत्व एक दूसरे के पूरक भी हैं और आपस में सम्बंधित भी । अतः इनके महत्त्व को देखते हुए इनकी निंदा करनी अनावश्यक है ।
                   गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं-
                               कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
                               लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ॥ गीता ३/२० ॥
अर्थात,जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे । इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने को ही योग्य है अर्थात तेरे लिए कर्म करना ही उचित है ।
                                      यहाँ भगवान स्पष्ट रूप से कहते हैं कि परम सिद्धि के लिए भी कर्म करना आवश्यक है और लोक संग्रह की दृष्टि से भी कर्म करना उचित है । लोक संग्रह अर्थात अर्थोपार्जन और उसका सृजन व संग्रह । भगवान ने कहीं भी अर्थार्जन यानि धन कमाने और उसको संगृहित करने को अनुचित नहीं बताया है बल्कि इसे उचित ही कहा है ।अतः किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह इस धन के उपार्जन और संग्रह को निन्दित करे ।
                        फिर भी धन निन्दित है ,इसका कारण उसके अर्जित करने के तरीके,सृजित करने के उद्देश्य और विसर्जन करने के तौर तरीके में छुपा हुआ है । जब तक हम धन शास्त्रोक्त तरीके से उपार्जित नहीं करेंगे तब तक इसकी निंदा होगी । आज संसार में प्रत्येक व्यक्ति इसको येन केन प्रकारेण कमाने में लगा है । इसके लिए वह चोरी करना,झूठ बोलना और अतिरिक्त लाभ के लिए अनुचित रूप से आवश्यक वस्तुओं की कमी कर देना  और जरुरतमंदों को ऊँची कीमत लेकर बेचना,किसी की मजबूरी का फायदा उठाकर धन कमाना , दूसरे की सम्पति को छीन लेना आदि गलत तरीके है और ऐसे धन के उपार्जन की निंदा आवश्यक है ।
क्रमशः
                                     ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Tuesday, June 24, 2014

धन |-३

                                   इस कहानी के आधार पर हम धन में आसक्ति को समझ सकते हैं । "९९ का फेर " धन में आसक्ति होने का सबसे बड़ा प्रमाण है । जब तक मनुष्य की गांठ में धन नहीं होगा तब तक उसमे आसक्ति होने का प्रश्न ही नहीं होता । आसक्ति किसी भी वस्तु में हो,सबसे अनुचित है । क्योंकि आसक्ति व्यक्ति की मनोदशा ही बदल डालती है । इस आसक्ति के कारण व्यक्ति दिनभर उलझन में फंसा रहता है जिस कारण वह न तो दिन में चैन से बैठ पाता है और न ही रात को चैन से सो पाता है ।
                            जिंदगी में धन उपार्जन करना कोई मुश्किल काम नहीं है । ईश्वर ने सुगठित तन व्यक्ति को पुरुषार्थ करने के लिए ही दिया है और पुरुषार्थ कर व्यक्ति धन अर्जित कर सकता है । प्रत्येक व्यक्ति जिंदगी में इतना धन कमाना चाहता है जिससे उसका जीवन सुखद बन सके । परन्तु क्या और कहाँ तक सीमा है उस धन की,जो उसके जीवन को सुखी रख सके ? धन को व्यक्ति अर्जित कर सृजित और संरक्षित करता है,भविष्य में विसर्जन के लिए ,अपने उपयोग के लिए। परन्तु जब वह एक सीमा तक धन को इक्कट्ठा कर लेता है तब उसे इसी धन के कम हो जाने का भय सताता है । धन एक ऐसी सम्पति है जिसमे स्थायित्व का अभाव है । यह आवागमन के गुण से युक्त है । आज आपके पास जो धन-सम्पति है,कल वह किसी अन्य के पास थी और भविष्य किसी और व्यक्ति के हाथों में होगी ।इसी कारण से मन की तरह धन को भी चंचल कहा गया है । स्थाई रूप से यह एक जगह नहीं रूकता ।
                              धन के इसी लक्षण को जानते और समझते हुए भी व्यक्ति यह भ्रम पाल लेता है कि वह इसको स्थाई रूप से अपने पास रख सकता है । इसलिए वह आपने पास सृजित धन को स्थायित्व प्रदान करने के लिए इस तन से कठोर पुरुषार्थ करता रहता है । जिस कारण से उसका तन धीरे धीरे क्षय होता रहता है । इस बात का अनुमान उस व्यक्ति को नहीं होता । तन ,एक दिन बीमार हो जाता है और जिस धन को सुख के लिए सृजित किया गया था वह दवाओं की भेंट चढ़ जाता है । तन को परेशानी तो उठानी ही पड़ती है साथ ही साथ व्यक्ति की मनोदशा भी ख़राब हो जाती है । यही सृजित धन अब सुख के स्थान पर दुःख का कारण बन जाता है ।
                             अतः आज आवश्यकता इस बात कि है कि प्रत्येक व्यक्ति यह समझे कि धन उपार्जन और सृजन करना कतई अनुचित नहीं है । परन्तु साथ ही हमें यह भी समझना होगा कि कहीं इस धन के उपार्जन,सृजन और संरक्षण के पीछे हम अपने बहुमूल्य तन को तो नहीं गवां रहे है ? बुजुर्गों ने कितना सत्य कहा है कि-"पहला सुख निरोगी काया,दूसरा सुख घर में माया ।"अर्थात यह तन निरोग रहेगा तो यह सबसे बड़ा सुख होगा । शरीर रोगमुक्त है तभी अर्जित और सृजित धन सुख प्रदान कर सकता है अन्यथा तो धन दुखदायी ही साबित होगा ।
क्रमशः
                                 ॥ हरिः शरणम् ॥  

Monday, June 23, 2014

धन |२

                                 धन का उपार्जन ,सबसे पहली सीढ़ी है जिस पर व्यक्ति इस भौतिक संसार की ऊंचाइयां छूने के लिए प्रथम कदम रखता है । यहीं से वह अपने आपको मन के हवाले कर देता है । मन,जो स्वयं कुछ भी करने को असमर्थ है,उसे इस संसार की भौतिक वस्तुएं और उनसे प्राप्त होने वाला भौतिक सुख अपनी और आकर्षित करता है । प्रारम्भ में व्यक्ति इस मन के चक्कर में यह सोचकर आ जाता है कि" मुझे अपने जीवनयापन के लिए धन जुटाना आवश्यक है । एक बार मुझे इतना धन अर्जित कर लेना चाहिए जिससे मेरा जीवनयापन सुगमता से सके । ऐसी स्थिति आ जाने पर मैं इसे और अधिक उपार्जित करने के लोभ में नहीं आऊंगा । "लेकिन क्या ऐसा आज तक किसी के साथ हो पाया है ? क्या क निश्चित की गयी सीमा के पास आ जाने के बाद उसने अर्थार्जन ,धन का और अधिक उपार्जन करना बंद कर दिया है ? नहीं,ऐसा कभी न तो किसी ने किया है और न ही कोई ऐसा करने की सोचता तक है । यह एक वास्तविकता है ।
                                किसी अच्छे खासे धनपति के मकान के पड़ौस में ही,एक दम दीवार के लगते ही एक अत्यधिक गरीब व्यक्ति की झोंपड़ी थी । रात को इस भयंकर गर्मी में धनपति और उसकी पत्नी दो मंजिले मकान की छत पर गर्मी के मारे तड़पते रहते,नींद नहीं आती थी । उसकी पत्नी देखती कि पास की झोंपड़ी वाला गरीब व्यक्ति अपनी पत्नी और बच्चों के साथ,बिना किसी बिस्तर के ,मामूली सी चटाई पर रात को गहरी नींद में सोते । गरीब व्यक्ति दिनभर मेहनत मजदूरी करता और रात को लौटते समय खाने का सामान खरीद कर लाता तभी घर में भोजन बनता। रात को पास में एक पैसा भी नहीं बचता । सुबह उठते ही फिर से वही चक्कर।  एक दिन धनपति की पत्नी से रहा नहीं गया । उसने अपने पति से आखिर पूछ ही लिया कि   " यह गरीब व्यक्ति इतनी मस्त नींद कैसे ले लेता है जबकि आप आप रात भर सो नहीं पाते हो ,चाहे कैसा ही मौसम हो । जबकि हमारे पास सभी सुख सुविधा और साधन उपलब्ध है । आपके न सोने के कारण मुझे भी जागना पड़ता है ।"
                           धनपति ने उत्तर दिया-"सब ९९ का फेर है । मैंने इतना सारा धन कमा लिया है,इतनी धन सम्पदा सृजित कर ली है परन्तु मेरे मन में एक ही डर लगा रहता है कि कही इसमे कमी न हो जाय । इस कारण से रात भर मैं इसे बनाये रखने की ही सोचता रहता हूँ और इस कारण से मुझे रात भर नींद नहीं आती । इस बेचारे गरीब के पास रात को एक फूटी कौड़ी ही पास में नहीं रहती तो फिर कम होने का भय कहाँ होगा ? इस कारण  से वह भलीभांति अच्छी नींद ले पाता है । "उसकी पत्नी इस बात से असहमत थी । धनपति ने उसे एक दिन साबित करके दिखाने का भरोसा दिया । एक बार जब उसकी पत्नी अपने पीहर गयी हुई थी । उसने एक रात को चुपके से गरीब की झोंपड़ी के बाहर  में ९९ रुपये डाल दिए । हमेशा की तरह भोर में गरीब उठा । उठते ही उसकी नज़र एक रुपये के नोट पर पड़ी । उसने उसे इधर उधर देखा और फिर उसे उठा लिया । तभी उसकी दृष्टि कई और बिखरे नोटों पर पड़ी । उसने सभी नोट उठा लिए और गिनने लगा । ओह! ये तो ९९ ही है ,१०० से एक कम। अब इनको पूरे १०० कैसे करूँ ? इसी उहाँपोँह में वह दिन की मज़दूरी पर निकल गया । रात को लौटा तो खाने का सामान थोड़ा कम था । पत्नी ने पूछा तो उसने टाल दिया । उसकी एक दिन की बचत बी उन ९९ रु. को १०० पूरे नहीं कर सकी । दूसरे दिन पत्नी ने किसी और चीज को लेकर आने का कह दिया ।इस प्रकार  प्रतिदिन उसके पास अंत में ९९ रुपये ही रह जाते,१०० रुपये कभी भी पूरे नहीं हो पाते । अब उसको भी इन्हे १०० करने की धुन में रात भर सोचते रहने से नींद नहीं आती ।
                        एक दिन धनपति की पत्नी लौट आयी । धनपति उसे रात को छत पर ले गया । अब आश्चर्यचकित होने की बारी  उसकी पत्नी की थी । उसने देखा कि गरीब व्यक्ति भी रात को सो नहीं पा रहा है  । उसने पति से इसका कारण पूछा । धनपति ने कहा-"मैंने कहा था न ,सब ९९ का फेर है ।"इस प्रकार उसने अपनी पत्नी को पूरा घटनाक्रम बता दिया । अब उसकी पत्नी भी पूरी बात समझ गयी ।पत्नी सोच रही थी कि कैसे एक भला चंगा व्यक्ति इस धन के चक्कर में पड़कर अपने जीवन की शांति को खो बैठता है ?
क्रमशः
                                                                  ॥ हरिः शरणम् ॥ 

                                                    

Sunday, June 22, 2014

धन |-१

                            "तन मन धन सब है तेरा,स्वामी सब कुछ है तेरा ।
                              तेरा तुझ को अर्पण ,तेरा तुझ को अर्पण,क्या लागे मेरा ?
                                                 ॐ जय जगदीश हरे  ॥"
                 यह उस आरती का कुछ अंश है ,जो प्रायः प्रत्येक व्यक्ति सुबह शाम अपने घर,मंदिर और कार्यस्थल पर करता है,बिलकुल एक टेप रिकॉर्डर की मानिंद । उसे स्वयं को पता नहीं होता कि वह उच्च स्वर में क्या गाये जा रहा है ? हम कई बार और कई चीजें बेहोशी में करते जा रहे हैं और हमें इसका पता भी नहीं चलता । आरती शुरू करते हैं तो पता होता है कि आरती का प्रारम्भ हो रहा है और समाप्ति का भी पता चल जाता है कि आरती समाप्त हो गयी है । परन्तु यह पता नहीं रहता कि आरती में हमने अपने प्रभु से क्या कहा ? अगर पता होता तो प्रतिदिन एक ही बात को दोहराने की क्या आवश्यकता ? दोहराने के स्थान पर हमें कही गयी बातों पर अमल करना चाहिए । तभी उस आरती की ,उस प्रार्थना की सार्थकता है । हमने तन और मन का अर्पण तो देख ही लिया अब धन के अर्पण के बारे में भी थोड़ी सी चर्चा कर लेते हैं ।
                   धन,वास्तव में है क्या ? इसको जाने बगैर हम इसकी उपयोगिता,उपार्जन ,सृजन  और विसर्जन के बारे में कुछ भी नहीं जान पाएंगे । धन उस परिणाम को कहते है,जो व्यक्ति को अपने पुरुषार्थ करने के उपरांत प्राप्त होता है । आम व्यक्ति धन को अर्थ की दृष्टि से देखता है । आम बोलचाल में धन उस मुद्रा को कहते हैं जो व्यापार में क्रय-विक्रय और लेन-देन के लिए उपयोग में ली जाती है । धन मुद्रा के रूप में भी हो सकता है,वस्तु के रूप में भी हो सकता है और जीवित प्राणियों तथा धातु और अधातु के रूप में भी । कई दार्शनिक व्यक्ति ज्ञान को भी एक प्रकार का धन मानते हैं और कुछेक आत्म-संतोष को भी धन की उपमा देते हैं । सब धन,सम्पति के रूप में परिभाषित किये जा सकते हैं परन्तु वास्तविकता में धन उस वस्तु का नाम है जो प्रायः लेन-देन के काम आती है । यह धन केवल इस भौतिक संसार में ही प्रचलन में रहता है और भौतिक शरीर के द्वारा उपयोग में लिया जाता है । भौतिक शरीर के समाप्त होते ही उस व्यक्ति के लिए इस धन का कुछ भी महत्व नहीं रहता । सब कुछ यहीं पर पीछे छूट जाता है ।
                         धन कमाने को अर्थार्जन कहते हैं ,उसको सहेजने को,धन से सम्पति का निर्माण करने को  सृजन कहते हैं और इसको उपयोग में लेने को विसर्जन कहते है । धन का उपार्जन (Earn), सृजन (Creation) और विसर्जन (Dispersion) किस प्रकार किया जाये ? यही मूल विषय है । ऐसे तो इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति धन को उपार्जित ,सृजित और विसर्जित करने में लगा हुआ है परन्तु क्या वह ऐसा शास्त्रोक्त तरीके से कर रहा है,क्या उसका करना वास्तविकता में उचित है ? यह सब हमारे लिए जानना आवश्यक है ।धन कभी भी सदा के लिए नहीं होता और न ही इसका उपयोग करना सदैव ही इसको अर्जित करने वाले के हाथ में होता है । सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि धन को उपार्जित किस प्रकार किया गया है ?
क्रमशः
                                       ॥ हरिः शरणम् ॥   

Saturday, June 21, 2014

मन |-११

                                                     जब सब कुछ मन पर ही निर्भर है,तो फिर क्यों न  इसकी आलोचना करने के स्थान पर इसका सदुपयोग किया जाये । एक बुद्धिमान व्यक्ति मेरी इस बात से शतप्रतिशत सहमत होगा । संसार में कोई भी वस्तु अनुपयोगी नहीं है । यहाँ कोई भी वस्तु निंदा करने के योग्य नहीं है । मन को व्यक्ति बड़ी आसानी से अपने नियंत्रण में ले सकता है,सिर्फ आवश्यकता है प्रबल इच्छाशक्ति की।बिना इच्छाशक्ति के इस संसार में कुछ भी संभव नहीं है । मन की चंचलता को आप उसी के विरुद्ध एक हथियार बना सकते हैं । सांसारिक वस्तुओं और सांसारिक भोगों के लिए भटक रहे मन को आप परमात्मा कि तरफ बार बार लाने का प्रयास करते हुए एक दिन सफल हो सकते हैं । मन को वासना और इच्छा पूर्ति से दूर हटाने के दो रास्ते हैं-प्रथम रास्ता सांसारिकता में अति की सीमा तक बढा जाये और दूसरा रास्ता है मन को उसकी इच्छा के विपरीत ही साधन उपलब्ध कराये जाये ।
                      प्रथम मार्ग के अनुसार जो भी इच्छा मन की हो,मन करना चाहता हो,वह मन को करने दें ,जो साधन मन मांगता हो ,उपलब्ध करवाते रहें ।इससे यह फायदा होगा कि मन उस  इच्छा से अतिसंतृप्त  हो जायेगा और उस इच्छा से विमुख होने लगेगा । इसमें एक ही सावधानी रखने की आवश्यकता है कि मन की इन इच्छाओं को और अधिक विस्तार न लेने दें । उदाहरण के लिए,अगर कोई बच्चे का मन हर समय आम खाने को करता है तो उसे लगातार प्रतिदिन अधिक मात्र में आम खिलाते रहें । इस प्रकार प्रतिदिन आम खाने से वह अतिसंतृप्त होकर आम से विमुख हो जायेगा । परन्तु ध्यान रहे ,उसकी इच्छा फिर आगे विस्तार पाकर और कुछ पाने की कामना ना करने पाए । यह तरीका शास्त्रोक्त बिलकुल भी नहीं है । न ही सनातन शास्त्र कहते है-इस बारे में । इस बारे में विज्ञान जरूर कहता है कि अगर किसी वस्तु या व्यक्तिके संपर्क में व्यक्ति लगातार रहता है तो वह व्यक्ति एक निश्चित समय के उपरांत उससे विमुख हो जाता है । इसी आधार पर आधुनिक युग के कई दार्शनिक इस तरीके को आज के युग के लिए उपयुक्त मानते और बताते हैं ।
                      दूसरा मार्ग है-मन पर पूर्णतया नियंत्रण स्थापित कर लेना । यह रास्ता उपयुक्त भी है और शास्त्रोक्त भी । इसके अनुसार मन की अनुचित इच्छा को कभी भी पूरा करने की कोशिश न करे। जब भी  मन की अनुचित इच्छा सामने आये,इसको बलात परमात्मा की ओर लगाने का प्रयास करें । एक दिन आप पाएंगे कि मन भौतिक संसाधनों और भौतिक सुख की कामना से दूर होता जा रहा है ।यही सबसे उपयुक्त मार्ग है क्योंकि इस मार्ग पर चल पड़ने के बाद न तो मन में कोई नई कामना जन्म ले पाती है और न ही किसी इच्छा का विस्तार ही होता है । इसी को मन का परमात्मा को अर्पण करना कहते हैं । संसार में रहते हुए,मन की इच्छा के अनुसार चलते रहने से मन का परमात्मा को अर्पण होना असंभव है । मन परमात्मा का ही बनाया  हुआ है,उसे उसी में लगायें तभी मन का अर्पण सफल होगा ।कबीर ने कहा भी है-
                              मन के मते ना चालिए,मन के मते अनेक ।
                              जो मन पर असवार हो,वो  साधु कोई एक ॥
कल से "धन"पर ध्यान देंगे....
                                                 ॥ हरिः शरणम् ॥  

Friday, June 20, 2014

मन |-१०

                       अब हमें यह देखना है कि यह मन कैसे भौतिकता से आध्यात्मिकता की तरफ अपना रूख कर सकता है ? व्यक्ति चाहे तो मन का सम्पूर्ण नियंत्रण अपने हाथ में ले सकता है,बस आवश्यकता है प्रबल इच्छाशक्ति की । बिना इच्छाशक्ति के कोई भी इन्सान कुछ भी नहीं कर सकता । मन को हम ही भौतिकता की तरफ ले जाते हैं और हम ही आध्यात्मिकता की ओर । किसी दूसरे को दोष देना ,किसी परिस्थितिवश आध्यात्मिकता की ओर न जा पाना तथा कभी किसी को दोष दे देना और कभी किसी को ,यह हमारी आदत बन गई है । जब हम सभी कार्य छोड़ कर अर्थोपार्जन के लिए समय निकाल सकते हैं तो फिर कुछ समय अपने आत्मोत्थान के लिए भी निकाल सकते हैं । आज ,कल फिर कल करते करते एक दिन यह तन छूट जायेगा और वह कल कभी भी नहीं आ पायेगा।  अतः स्थिति को समझे और बुद्धि में यह बात स्पष्ट कर लें कि मन को दोष देना अनुचित है,आप सवयं मन को आदेश देने की क्षमता रखते हैं । इसी बात को गीता में भगवान् श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हुए कहते है कि-
                       मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं  निवेशय ।
                       निवसिष्यसि  मय्येव  अत  ऊर्ध्वं  न संशयः ॥ गीता १२/८ ॥
  अर्थात,मुझ में मन को लगा और मुझ में ही बुद्धि को लगा ;इसके उपरांत तू मुझमे ही निवास करेगा,इसमे कुछ भी संशय नहीं है ।
                      मनुष्य के सामने यही मुश्किल है कि ऐसा करने में वह अपने आपको सक्षम नहीं पाता जबकि वास्तविकता में वह ऐसा कर पाने में सक्षम है । जो व्यक्ति इस बात को ह्रदय से आत्मसात कर लेता है वही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है ।
                            मनुष्य नामक प्राणी के साथ सबसे अनुचित बात यह है कि वह परमात्मा को पाने की राह पर चलना तो चाहता है परन्तु उसको दो बातों पर पक्का विश्वास नहीं होता । प्रथम तो यह कि मेरे जीवन के शेष कार्य कौन करेगा और किस प्रकार पूर्ण होंगे ?यहाँ वह स्वयं कर्ता बन बैठता है ,जो कि गलत है । दूसरी बात,वह परमात्मा पर यकीन ही नहीं करता और मानता है कि क्या पता,इस राह पर मुझे परमात्मा मिलेंगे या नहीं ? मैं कहता हूँ कि परमात्मा आपसे अलग नहीं है । अगर आप सोचते हैं कि परमात्मा कोई आकर दर्शन देगे तो आपकी यह मूर्खता का ही प्रदर्शन है । जब आप अपने आप को पहचान जायेंगे,इस सृष्टि को पहचान जायेंगे ,यह ज्ञान आपको हो जायेगा कि आपसे परमात्मा कोई अलग नहीं है और यही आत्म-दर्शन ,परमात्म-दर्शन है । यह सब ज्ञान होते ही आपका कर्तापन भी तिरोहित हो जायेगा और आप परमात्म-शक्ति पर विश्वास करने लगेंगे ।
क्रमशः
                                      ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Thursday, June 19, 2014

मन |-९

                                   पुनर्जन्म के लिए मन ही जिम्मेदार है ,इसी कारण से मन की सदैव आलोचना हुई है और आगे भविष्य में न जाने कब तक होती रहेगी । परन्तु मैं कहता हूँ कि मन वास्तव में इस आलोचना मात्र का ही अधिकारी नहीं है । मन से हम कितनी अन्य उपलब्धियां प्राप्त कर सकते हैं,इसका ज्ञान हमें नहीं है । अभी तक हम सब मन का अँधेरा पक्ष ही देखते और प्रचारित करते आये हैं । यह मन के साथ एक प्रकार से अन्याय करना है । मन के बिना व्यक्ति असहाय हो सकता है । मन की अनुपस्थिति या त्रुटिपूर्ण कार्यशैली मनुष्य को मानसिक रोगी बना सकती है । मन के अभाव में व्यक्ति का जीवन पशुतुल्य हो जाता है । अतः मन की आलोचना करने के स्थान पर इसके अस्तित्व को स्वीकार करते हुए इसे इस शरीर के सफल संचालन के लिए आवश्यक तत्व माना जाना चाहिए ।
                            मन स्बयं अपनी और से किसी भी प्रकार के कर्म करने के संकेत तन और इन्द्रियों को नहीं भेज सकता । मन आपका क्या करना चाहता है इसके लिए मन को दोष देना सर्वथा अनुचित है । मन वही कार्य करने के लिए इन्द्रियों और शरीर को कहता है जो आपकी आत्मा और बुद्धि चाहती है । आप आत्मा हो मन नहीं और बुद्धि भी नहीं । बुद्धि का नियंत्रण आत्मा के पास है और आत्मा आप स्वयं हो । जब आप शरीर नहीं हो,मन नहीं हो तो फिर आप किसी भी उचित अनुचित के लिए इनको दोष कैसे दे सकते हैं ? आत्मा जब किसी भौतिक पदार्थ से सुख प्राप्त कर लेती है तब उसकी इच्छा उस सुख को बार बार भोगने की होती है । आत्मा ,परमात्मा का ही अंश है और परमात्मा न तो कोई भौतिक पदार्थों को भोगता है और न ही भोग प्राप्त करने हेतु किये गए किसी भी कर्म में लिप्त होता है । आत्मा का भी यही लक्षण होना चाहिए । परन्तु आत्मा इस नश्वर शरीर में आकर ,इस बुद्धि और मन के संपर्क में आकर अपने स्तर से  नीचे गिर जाती है और भौतिक पदार्थों से मिलने वाले सुख की बार बार कामना करती रहती है । आत्मा स्वयं कुछ नहीं कर सकती अतः वह बुद्धि के माध्यम से मन तक अपनी इच्छा प्रेषित करवाती है और मन इस भौतिक शरीर और  इन्द्रियों को सक्रिय करते हुए उन भोगों से आत्मा को सुख प्रदान करवाता है ।
                                            मन को नियंत्रण में करना तन के बस की तो बात हो ही नहीं सकती । मन को आप स्वयं ही नियंत्रण में रख सकते है क्योंकि आत्मा ही उसका सर्वाधिक उपयोग करती है । तन तो मात्र एक साधन की भूमिका में होता है और मन एक उत्प्रेरक की भूमिका निभाता है । अतः मन को नियंत्रित करते हुए हम संसार के कठिन  से कठिन कार्य भी संपन्न कर सकते हैं और परमात्मा तक को प्राप्त कर सकते हैं ।इसी लिए किसी ने सच ही कहा है-"मन के हारे हार है,मन के जीते जीत "। अगर आत्मा मन को नियंत्रित नहीं कर सकती तो यह मन को हारना हो गया और मन को हार जाने पर आप सब कुछ हार जाते हो । जब मन को आत्मा पूर्ण नियंत्रण में ले लेती है तब मन को जीत लिया जाता है और फिर आपके लिए संसार में कुछ भी असंभव नहीं रहता । अब यह आपके हाथ में है,आपकी आत्मा के हाथ है कि वह मन को किस प्रकार से नियंत्रित करती है ?-स्वार्थ के लिए अथवा परमार्थ के लिए ।
क्रमशः
                                           ॥ हरिः शरणम् ॥  

Wednesday, June 18, 2014

मन |-८

                        कबीर ने कहा है-
                         मन मरा ना ममता मरी,मर मर गए शरीर ।
                         आशा तृष्णा ना मरी, कह गये दास कबीर ॥
                कबीर ने मन को  कितने सुन्दर तरीके से परिभाषित किया है । मन कभी भी मरता नहीं है ,केवल यह भौतिक शरीर मरता है । मन तभी मरता है जब या तो मन सब आशाओं और तृष्णाओं को भोग कर संतुष्ट हो जाता है या फिर आशाओं और तृष्णाओं को मार डालता है,समाप्त कर देता है । जैसे कि मैंने इस श्रंखला की शुरूआत में बताया कि मन का स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं होता है बल्कि यह दो उर्जा श्रोतों से उर्जा प्राप्त कर अस्तित्व में आता है। एक बार जब मन का अस्तित्व बन जाता हैं,फिर इसके अस्तित्व को मिटाना लगभग असंभव है । इसका कारण यह है कि वह अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए ,अपना स्थायित्व बनाये रखने के लिए तन से उर्जा प्राप्त करता है और आत्मा की उर्जा की उपेक्षा करता रहता है । आत्मा की उर्जा का आहरण न करने के कारण इसकी संरचना में कोई परिवर्तन नहीं हो पता और यह सांसारिकता और भौतिकता की चमक दमक से निकल नहीं पाता । संसार की यह भौतिकता ही मन में आशा और तृष्णा को पैदा कर देती है । आशा और तृष्णा कभी भी ,किसी की भी आज तक पूर्ण नहीं हुई है । ऐसी स्थिति के कारण इनका अंत कभी भी नहीं हो पाता जिस कारण से मन का अस्तित्व भी सदैव बना रहता है ।
                        मन में स्थित आशा और तृष्णा के कारण मन इनको पूरी कर संतुष्ट होने का प्रयास करता है, जिसके लिए वह इन्द्रियों से कर्म करवाता है । इन्द्रियां तन से पुरुषार्थ करवाते हुए मन को संतुष्ट करने का प्रयास करती है । जब एक आशा पूर्ण होती है तब या तो उस आशा का और विस्तार हो जाता है या फिर एक नयी आशा का जन्म हो जाता है । इस प्रकार यह चक्र सतत चलता रहता है और मन कभी भी संतुष्ट नहीं हो पाता ।मन बार बार इन आशाओं और इच्छाओं को पूरी करने के लिए तन के माध्यम से इन्द्रियों को आदेश देता रहता है । अंत में एक स्थिति ऐसी आती है जब इन्द्रियों की क्षमता कम होने लगती है,तन अपने आपको मन की इन इच्छाओं को पूर्ण करने में असहाय पाता है ।मन,तन से पाने वाली उर्जा के माध्यम से उसकी इस दुर्बलता का अनुमान लगा लेता है । मन अपने में स्थित समस्त आशाओं और तृष्णाओं को अपने दूसरे भाग यानि चित्त में इन्हें स्थानांतरित कर देता है । तन के मृत्यु को प्राप्त होते समय चित्त इस तन में स्थित आत्मा के साथ ही इस शरीर को त्याग देता है । तन से अलग होकर यही चित्त आत्मा को अपनी आशाएं, कामनाएं पूरी करने के लिए फिर से किसी नए शरीर को प्राप्त करने की प्रार्थना करता है । इस प्रकार इन आशाओं,तृष्णाओं और कामनाओं को समेटे मन कभी भी मर नहीं पाता और बार बार नए तन को पाता रहता है और यह चक्र सतत चलता रहता है । यही पुनर्जन्म है,बंधन है ।
                          मन नहीं मरता बल्कि शरीर ही मरता है । कबीर का यह कहना एकदम सत्य है ।
क्रमशः
                                     ॥ हरिः शरणम् ॥     

Tuesday, June 17, 2014

मन |-७

                               मन जब आत्मा और परमात्मा की तरफ उन्मुख हो जाता है तो व्यक्ति इस भौतिक तन का उपयोग अधिक बेहतर तरीके से करने लग जाता है । इस कारण से इस भौतिक शरीर की उपयोगिता अधिक प्रभावी हो जाती है । इस संसार की आलोचना करना आजकल एक फैशन सा बन गया है जबकि इस संसार में आये बिना,इस तन के द्वारा पुरुषार्थ किये बिना और इस मन की उपस्थिति के बगैर आध्यात्मिकता और परमात्मा को उपलब्ध होना असंभव है । अतः इस शरीर की,इस मन की निंदा करना अनुचित ही नहीं अस्वीकार्य भी है । हम बिना तन और मन के संसार में बने ही कैसे रह सकते हैं ? बिना इस भौतिक संसार के जब व्यक्ति का अस्तित्व ही नहीं होगा तो कैसा बंधन और कहाँ का मोक्ष ? परमात्मा को उपलब्ध होना तो बड़े दूर की कौड़ी है ।
                    जब तक हम इस तन को सुख उपलब्ध कराने ,इस शरीर को सुख देने के प्रयास करते रहेंगे तब तक यह मन भौतिकता में भटकता रहेगा । मन कभी कुछ सोचेगा कभीकुछ ।उस की गति बनी ही रहेगी । इसी को मन की चंचलता कहते हैं । मन थोड़ी थोड़ी देर में अपना मानस बदलता रहता है ,कभी सोचता है यह करना उचित रहेगा ,कभी सोचेगा वह करना सही होगा । इसे हम अस्थिर बुद्धि कह सकते हैं ।  बुद्धि का  अस्थिर  होना भी इस मन के कारण ही है । मन केवल भौतिकता में ही सुख को तलाश करता है । भौतिक वस्तुएं सदैव ही परिवर्तनशील होती है ,इस कारण से मन  वस्तुओं से सुख प्राप्त करने में संशकित रहता है जिसके कारण मन और बुद्धि अस्थिर हो जाते हैं । जिसका मन और बुद्धि स्थिर नहीं रहते वह व्यक्ति जीवन में कभी भी सुख प्राप्त नहीं कर सकता ।
                                   भौतिक वस्तुएं ,आपको एक बार सुख देने का अनुभव जरूर करा सकती है परन्तु मूल रूप से दुःख का कारण ही बनती है । इस बात को जानते सभी है परन्तु मानते हुए,स्वीकार कर जीवन में कोई भी नहीं उतारना चाहता । इसका सबसे बड़ा कारण है-व्यक्ति का मन । यह मन भीड़ तंत्र में विश्वास करता है । हमारा मन यह मानता है कि संसार में जिस कार्य को बहुधा लोग करते है वह उचित और सही होता है । परन्तु प्रत्येक स्थान पर यह बात लागू नहीं होती । आप चाहे कितनी ही जल्दी में हों,बाजार से कोई भी आवश्यक वास्तु खरीदकर घर पर शीघ्रता से पहुंचानी हो ,अगर रास्ते में तमाशा दिखाने वाले को भीड़ घेरे खड़ी होगी तो आप वहां कुछ समय उसे देखने के लिए जरूर रूकेंगे । कारण ? वही आपका मन,क्योंकि मन की ऐसी सोच है कि जब इतने व्यक्ति,इतनी भीड़ इसे देख रही है तो  अवश्य ही यहाँ से कुछ मुझे भी प्राप्त हो सकता है । प्राप्त चाहे कुछ भी नहीं हो परन्तु हम उसे कुछ समय के लिए देखेंगे अवश्य । यही हालात  आज के समय में बड़े बड़े बाबाओं ने कर रखी है । जिसने  जितनी ज्यादा भीड़ इक्कट्ठी कर ली,वही उतना ही बड़ा संत । आपका  मन भी भीड़ की तरफ आकर्षित होगा । आप भी वहां अवश्य जायेंगे और भीड़ का हिस्सा बन जायेंगे । आपका मन संतुष्ट हो जायेगा ,परन्तु सोचिये आपको क्या प्राप्त हुआ,आपको अर्थात आत्मा को संतुष्टि मिली या नहीं ? मैं जानता हूँ कि आत्मसंतुष्टि की परवाह कौन करता है ,यहाँ तो सब मन को ही संतुष्ट करने में लगे हैं ।
क्रमशः
                                                          ॥ हरिः शरणम् ॥
                                                                           

Monday, June 16, 2014

मन |-६

                          मन की चंचलता और गति को रोकने या नियंत्रित करने के लिए यह आवश्यक है कि मन को सांसारिकता से हटाकर आध्यात्मिकता की तरफ लगाया जाये । इसलिए यहाँ इस संसार में प्रत्येक कोई आध्यात्मिक होने के प्रयास में है । विचारणीय है कि आध्यात्मिक कैसे हुआ जाये ? इस आध्यात्मिकता को व्यक्ति पकड़ना चाहता है जब कि आध्यात्मिकता कुछ पकड़ने की वस्तु नहीं है । इसी कारण से व्यक्ति में एक प्रकार का भटकाव पैदा हो जाता है । उसकी सोच ही गलत है । वह इसे पकड़ना चाहता है और आध्यात्मिकता कुछ पकड़ने से पकड़ में नहीं आती बल्कि कुछ छोड़ने से , कुछ त्यागने से पकड़ में आती है । हम त्यागना तो कुछ भी नहीं चाहते और सब कुछ पाना चाहते हैं । इस सब कुछ पाने के प्रयास में हम काफी कुछ खो देते हैं और इस खोने का ज्ञान हमें नहीं हो पाता । हम अपना कीमती समय कुछ पाने के चक्कर में गवां देते है,हम अपना यह शरीर,केवल जिससे ही हम पुरुषार्थ कर कुछ पा सकते हैं ,वह भी जीर्ण शीर्ण होकर समाप्त होने की कगार तक पहुँच जाता है । अंत में भी हमारे हाथ कुछ भी नहीं लगता । सब कुछ पाने के प्रयास में हमें मात्र कूड़ा करकट ही हाथ लगता है,जिसका कुछ भी मोल नहीं होता ।
                         अगर आध्यात्मिक होना है,मन को आत्मा और परमात्मा की ओर ले जाना है तो आपको सांसारिकता का त्याग करना पड़ेगा । "सांसारिकता का त्याग"-कहने में बड़ा आसान लगता है परन्तु करना बड़ा ही मुश्किल है । मैं तो यहाँ तक दावे के साथ कह सकता हूँ कि संसार का त्याग असंभव ही है । संसार का त्याग कोई घर बार छोड़ कर जंगल या पहाड़ों पर चले जाने से नहीं होता । आपके मन में जो संसार बसा है उसे निकाल बाहर फैंकने की आवश्यकता है । अगर आपके मन में सांसारिकता नहीं है तो फिर आप चाहे घर पर हो,बाज़ार में हो या किसी मयखाने में,आप आध्यात्मिक हैं । और इस आध्यात्मिकता के लिए किसी के प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं होगी । आपका मन ही इसका प्रमाण होगा । मैंने ऐसे सैकड़ो व्यक्ति देखे हैं जिनकी भक्ति भाव की सभी लोग प्रसंशा करते है ,परन्तु जब वे मंदिर से घर आते हैं तो उनका व्यवहार एक दम विपरीत हो जाता है ,बाज़ार में वे एक अलग  तरह के व्यक्ति होते हैं और मंदिर में एकदम अलग । यह आध्यात्मिकता कदापि भी नहीं है । आध्यात्मिक व्यक्ति सदैव एक जैसा ही रहता है,मंदिर में भी वही,व्यापर में भी वही ,घर और बाहर एक समान । साधारण व्यक्ति और परमात्मा दोनों के साथ भी एक समान व्यवहार । बिलकुल कबीर की तरह । प्रत्येक व्यक्ति में परमात्मा को देखना । इसीलिए कबीर कह सके-
                               मन ऐसा निर्मल भया, जैसे गंगा नीर ।
                               पाछे पाछे हरि फिरे,कहत कबीर कबीर ॥
               जब मन संसार से विमुख होकर परमात्मा के सम्मुख हो जाता है तो फिर उस व्यक्ति को परमात्मा को ढूँढना नहीं पड़ता बल्कि परमात्मा स्वयं उसे ढूंढ लेगा । यही इस मन की अवस्था में परिवर्तन का सुखद परिणाम है ।
क्रमशः
                            ॥ हरिः शरणम् ॥  

Sunday, June 15, 2014

मन |-५

                    बेचारा  मन ,एक बड़ी दुविधा लिए आत्मा और तन  के बीच फंसा है,कभी इधर जाऊँ  कभी उधर , कब किधर जाऊँ ,इसी दुविधा में मानव तन के समाप्त होने का समय आ जाता है।कबीर कहते हैं-
                        चलती चाकी देखकर,दिया कबीरा रोय ।
                        दो पाटों के बीच में ,साबुत बचा न कोय ॥
यही तो इस मानव मन की दुविधा है ।  संसार में रहते हुए उसे सुख मिलता है उसमे वह कुछ समय के लिए ही सही परन्तु संतुष्ट रहता है क्योंकि वह इसी को  वास्तविक सुख समझता है । जबकि वास्तविकता में  सुख इस संसार से न तो किसी को  मिला है और न ही कभी भविष्य में मिलने की सम्भावना है । जिसे हम सुख समझ रहे हैं वह केवल इस तन को भौतिक रूप से  प्राप्त हो रही सुख की अनुभूति मात्र है ।वास्तविकता में यह सुख नहीं है । सुख की झूठी अनुभूति के कारण ही  मनुष्य को संसार प्रिय लगने लगता है ।  जब एक सुख की अनुभूति से मन उकता जाता है,जो कि एक स्थिति में होना ही है ,तब यह मन उससे कहीं और अधिक उत्तम सुख को पाने के लिए लालायित हो जाता है । बार बार हो रही इस  मन की भटकन को ही मन की चंचलता कहते है ।
                     मन की चंचलता पर काबू पाने के लिए व्यक्ति को अपनी आत्मिक ऊर्जा को पहले तो  सम्भालना होगा फिर उसे संवारते हुए बढ़ाना होगा । सँभालने से  अर्थ है कि हम आधुनिकता की इस भागदौड़ में  अपनी आत्मिक ऊर्जा को लगभग विस्मृत कर चुके हैं । इस ऊर्जा को सँभालने के बाद ही हम इसको संवारते हुए अतिरिक्त ऊंचाई पर ले जा सकते हैं । साथ ही साथ हमें अपने आप को पहचानना होगा कि  वास्तविकता में हम हैं क्या ? हम तन तो हो नहीं  सकते । जब हम तन नहीं है तो मन भी नहीं है क्योंकि दोनों की प्रकृति एक ही है । फिर हम  क्या हैं? जिस दिन हमें इसका उत्तर मिल जायेगा उस दिन हम आध्यात्मिक व्यक्ति कहलाने लगेंगे ।जब हम तन नहीं है ,मन भी नहीं हैं तो शेष जो बचता है ,हम वही हैं -आत्मा ,परमात्मा का  अंश । लेकिन इतना पढ़ लेना ही पर्याप्त नहीं है कि "मैं तन और मन नहीं हूँ बल्कि एक आत्मा हूँ। "इस बात को आत्मसात कर लेना ही आध्यात्मिकता है ।
                      मन की चंचलता को नियंत्रण में करने का दूसरा उपाय है तन की ऊर्जा को नियंत्रित करते हुए उसमे कमी लाना,जिससे मन पर उस ऊर्जा का प्रभाव कम  हो सके । इसके लिए भी हमें यह ज्ञान होना आवश्यक है कि संसार में आज तक किसी को भी स्थाई सुख प्राप्त नहीं हुआ है और न ही होगा । जिसको आप सुख समझ रहे हैं वह भविष्य में आनेवाले दुःख की आहट मात्र है । इस बात को भी केवल पढने और सुनने से भी कुछ परिवर्तित नहीं होने वाला,बल्कि इसे आत्मसात भी करना होगा । संसार की भौतिक वस्तुओं से सुख को चाहना ही सांसारिकता है । ऐसी परिस्थिति में मन सांसारिक हो जाता है और यही मन का संसार है ।
                      मन का संसार से लगाव ही बंधन कहलाता है और आत्मा से लगाव मोक्ष । पहली से दूसरी स्थिति में आने के लिए मन की चंचलता और गति पर लगाम लगाना आवश्यक है ।
क्रमशः
                                  ॥ हरिः शरणम् ॥     

Saturday, June 14, 2014

मन |-४

                               प्राचीन ऋषि मुनियों ने चंद्रमा को मन का देवता कहा है ,क्योंकि यह भी मन की तरह ही दो बलों(पृथ्वी और सूर्य) के बीच और उनके प्रभाव से अपना बल प्राप्त करते हुए अपने मूल स्रोत की परिक्रमा करता रहता है । मन का मूल स्रोत यह भौतिक शरीर है,यह तन है । मन और तन दोनों की प्रकृति स्थूल अर्थात जड़ कही गई है। इसी कारण से इस मन का लगाव आत्मा की तुलना में भौतिक शरीर से ज्यादा होता है । यह पृथ्वी भी मूल रूप से सूर्य का ही एक अंश है अतः अपरोक्ष रूप से चन्द्रमा भी सूर्य का ही अंश हुआ । ऐसा ही हमारे शरीर के साथ भी है । यह तन,यह मन और आत्मा सभी परमात्मा के अंश ही है । सब का अस्तित्व परम पिता के कारण ही संभव हो सका है । हमारा मन भी इस तन के प्रति आसक्त होते हुए भी आत्मा के साथ भी सम्बंधित है । जैसे चन्द्र,सूर्य से सम्बंधित है । जैसे चन्द्रमा , पृथ्वी की परिक्रमा करने के साथ साथ सूर्य की भी परिक्रमा करता है ऐसे ही यह मन ,तन के साथ होकर आत्मा और परमात्मा तक की यात्रा कर सकता है ।
                          मन का अस्तित्व तन और आत्मा की उपस्थिति से ही संभव है । इसकी चंचलता और अबाध गति से हम सब वाकिफ हैं । इसकी इसी चंचलता को नियंत्रित करना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है । मन अपनी ऊर्जा आत्मा और तन दोनों से प्राप्त करता है । अगर इसकी चंचलता और गति को नियंत्रित करना हो तो इन मुख्य ऊर्जा स्रोतों की ऊर्जा को नियंत्रित करते हुए ऐसा सफलता पूर्वककिया जा सकता है । अगर तन की ऊर्जा अति प्रभावशाली हुई तो यह मन व्यक्ति को सांसारिकता की तरफ ले जायेगा और अगर आत्मा की ऊर्जा अधिक प्रभावशाली हुई तो  व्यक्ति का मन आध्यात्मिक हो जायेगा । संसार में जितने भी संत-महापुरुष हुए है उन्होंने आत्मिक ऊर्जा को शक्तिशाली बनाते हुए ही यह मुकाम हासिल किया है ।
                                आज के आधुनिक युग में संसार में आकर्षित करने वाले इतने साधन पैदा हो गए हैं कि  भौतिक शरीर की ऊर्जा इस आकर्षणके वशीभूत होकर अधिक प्रभावशाली होती जा रही है । इसी कारण से आज सब जगह भौतिकता और सांसारिकता का प्रभाव है । व्यक्ति आध्यात्मिकता की तुलना में संसार की तरफ आकर्षित  होता जा रहा है ।सांसारिकता से विमुख होना और परमात्मा की और उन्मुख होना दिन प्रतिदिन मुश्किल होता जा रहा है । संसार का आकर्षण कभी भी समाप्त नहीं हो सकता और न ही कोई संत-महापुरुष अपने ज्ञान और प्रवचनों के माध्यम से व्यक्ति के मन से इस आकर्षण को कम या समाप्त कर सकता है । यही कारण है कि आज आध्यात्मिकता की बातें करने वालों को लोग पलायनवादी कहते हुए हंसी का पात्र बनाने की कोशिश करते हैं । भीड़ तंत्र से विमुख होकर चलना वैसे ही मुश्किल है जैसे नदी की धारा की दिशा के  विपरीत दिशा में किसी नाव  को चलाया जाये ।इसी कारण से प्रायःकर लोग आध्यात्मिकता के  मार्ग पर चलने से डरते हैं । संसार में ,समाज में लोग क्या कहेंगे,क्या सोचेंगे ?,इसी उधेड़बुन में डूबा व्यक्ति कहीं का नहीं रह पाता । 
                     अब प्रश्न यही उठता है कि फिर किस प्रकार व्यक्ति सांसारिकता से विमुख होकर अपने मन को आध्यात्मिकता में लगा सकता है ?
क्रमशः
                                     ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Thursday, June 12, 2014

मन |-३

                               मन,एक ऐसा तत्व जो स्थूल शरीर में रहते हुए भी दिखाई नहीं देता । एक समय में जो मन की चंचलता और गति होती है उसको कोई माप नहीं सकता । अभी आपका मन समुद्र की गहराई में समुद्री जीवों को निहार रहा होता है और पल भर में वह अन्तरिक्ष की सैर पर निकल पड़ता है । सांसारिकता में रहते हुए इस मन की चंचलता और गति पर काबू पाना बड़ा ही मुश्किल है । हमारे शास्त्रों में यह सब लिखा है,महापुरुष अपनी लेखनी से इसकी चंचलता को हजारों तरीकों से स्पष्ट करते हुए कलमबद्ध कर चुके है,आज भी संत महात्मा इस पर सारगर्भित प्रवचन करते रहते हैं परन्तु आज तक कितने व्यक्ति यहाँ ऐसे हैं जो इतना पढ़कर और सुनकर मन की चंचलता और गति को अपने वश में कर चुके हैं । मेरे ख्याल से कोई विरला ही होगा जो मन को वश में करने में सफल हुआ हो । इसका क्या कारण है ?
                       मन की गति को जानना और पहचानना आवश्यक है । यह गति और चंचलता मन में आखिर पैदा कहाँ से और कैसे होती है ? जब तक हम इसे नहीं समझ पाएंगे तब तक इस मन को वश में करने में हम असफल ही होते रहेंगे । सबसे पहले हमें यह जानना होगा कि इस तन में मन कैसे अस्तित्व में आता है ? हम जानते हैं कि जब नया शिशु जन्म लेता है तब उसका मन निर्मल होता है । मन के निर्मल होने से अर्थ है कि मन उदासीन अवस्था में होता है,उसमे किसी भी प्रकार की चंचलता और गति का सर्वथा अभाव होता है ।हम जानते हैं कि तन एक दृश्यमान उर्जा है और आत्मा एक अदृश्य उर्जा । जब इन दोनों उर्जाओं का इस संसार में संयोग होता है तभी इस स्थूल शरीर में जीवन का संचार होता है । जब आत्मा इस भौतिक शरीर में प्रवेश करती है तब आत्मा की और तन की उर्जा क्षेत्रों के प्रभाव से उर्जा का तीसरा केंद्र पैदा होता है,यही तीसरा केंद्र मन कहलाता है ।
                       इसी बात को मैं एक उदाहरण से समझने का प्रयास करता हूँ । हमारी पृथ्वी से टूटकर सहस्राब्दियों पहले एक टुकड़ा अलग हुआ,मिटटी के कणों के रूप में । मिटटी का यह अतिविशाल बादल पृथ्वी से अलग होकर उसके गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से बाहर निकलने लगा  । अन्तरिक्ष में जहाँ पर सूर्य और पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल समान होता है वहां जाकर यह रूक गया और दोनों से बल पाकर यह बादल ठोस रूप में परिवर्तित हो गया । इस प्रकार आज का चंद्रमा अस्तित्व में आया । चूँकि चंद्रमा दोनों से,पृथ्वी और सूर्य से बल प्राप्त कर रहा है इस लिए इसका अस्तित्व भी इन दोनों के बलों पर निर्भर है । इसको अपना अस्तित्व बनाए रखने  के लिए जहाँ यह स्थित है उस स्थान पर ही टिके रहना होगा । एक स्थान पर बने रहना ,अन्तरिक्ष में बड़ा मुश्किल है ,जब तक कि वह किसी पिण्ड के चारों ओर एक कक्षा में गति न करने लगे । अतः इसने भी पृथ्वी के चारों ओर घूमना प्रारम्भ कर दिया और अपनी एक निश्चित कक्षा में आज तक चक्कर लगा रहा है जिससे उसका अस्तित्व सुरक्षित बना रहे । दो शक्ति केन्द्रों के बीच होने के कारण ही हमारे पूर्वजों ने इसे मन का देवता कहा है । मन का निर्माण भी इसी प्रकार दो शक्ति केन्द्रों के कारण होता है ।
मन और चन्द्रमा,दोनों में काफी कुछ समानता है । चन्द्रमा के कारण पृथ्वी प्रभावित होती है जैसे ज्वार-भाटा उसी प्रकार मन से तन प्रभावित होता है। चन्द्रमा के प्रकाश से पृथ्वी पर औषधीय वनस्पति पैदा होती है उसी प्रकार मन के निर्मल होने से तन को शांति प्राप्त होती है ।
                             चन्द्रमा को लूना कहा जाता है और जब पूर्णिमा को चाँद पूर्ण अवस्था में होता है तब वह व्यक्ति की मानसिक स्थिति को प्रभावित करता है । इसी लिए मनोरोगी को लूनेट भी कहा जाता है । सदियों पहले हमारे ऋषियों ने चन्द्रमा और हमारे मन के आपसी सम्बन्ध का पता लगा लिया था ,वह आज सब सच साबित हो रहा है । आज जब कोई व्यक्ति उद्दंडता करने पर उतारू होता है तो लोग कहते हैं कि इसका चन्द्रमा ख़राब चल रहा है । समस्त अंतरिक्षीय पिंडो में चन्द्रमा सबसे अधिक पृथ्वी और उसके वासियों को प्रभावित करता है । 
क्रमशः
                                              ॥ हरिः शरणम् ॥   

Wednesday, June 11, 2014

मन |-२

                                    कल हमने जाना कि वास्तव में मन इस भौतिक शरीर में कहाँ पर निवास करता है |मुख्य रूप से मस्तिष्क के वे हिस्से जो इन्द्रियों से सम्बंधित होते है,उनपर मन का नियंत्रण रहता है |मन का दूसरा हिस्सा व्यक्ति के ह्रदय से सम्बंधित होता है |मन का यह हिस्सा  मुख्य रूप से भावना से सम्बंधित होता है और चित्त कहलाता है |इसे अंतर्मन भी कहा जा सकता है |वैसे यह मन के दोनों हिस्से संयुक्त रूप से कार्य करते हैं परन्तु कार्य करने की दृष्टि से दोनों में मूलभूत अंतर है |मन का वह बड़ा हिस्सा जो अपने स्थूल शरीर के निकट होता है वह मन ही कहलाता है और दूसरा हिस्सा जो आत्मा की तरफ या आत्मा के निकट होता है ,चित्त कहलाता है | मानव तंत्रिका तंत्र में केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र जिसमे मस्तिष्क और सुषुम्ना नाड़ी आते हैं उसमे इन्द्रियों के नियंत्रण करने वाले हिस्से को मुख्य रूप से मन ही नियंत्रित करता है |तंत्रिका तंत्र के दुसरे भाग,परिधीय तंत्रिका तंत्र के जिन भागों से जो नियंत्रण इन्द्रियों पर होता है उनका नियंत्रण मुख्य रूप से चित्त के पास होता है |हमारा परिधीय तंत्रिका तंत्र हमारी भावनाओं को नियंत्रित करता है |अतः यह तंत्र मन के दुसरे भाग चित्त  से सम्बंधित होता है |मन की समस्त कार्य प्रणाली इस मस्तिष्क और परिधीय तंत्रिका तंत्र से ही संचालित होती है |मन के कार्य करने के लिए उसके मूल उर्जा स्रोतों की उपस्थिति आवश्यक है अन्यथा मन किसी भी हालत में अपना कार्य करने में सक्ष्म नहीं रहेगा |
                            मन का आत्मा के निकट वाला हिस्सा या भाग जो चित्त होता है,वही चित्त सूक्ष्म शरीर का मुख्य तत्व होता है |इस स्थूल शरीर के ,इस तन के समाप्त हो जाने पर यह चित्त ही सूक्ष्म तरंगों के रूप में आत्मा के साथ आगे की यात्रा पर उसके साथ साथ चलता है |इसी चित्त में मानव जीवन के अधूरे रहे उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आत्मा किसी नए तन की तलाश करती है |ये दोनों आत्मा और चित्त अर्थात कारण शरीर और सूक्ष्म शरीर फिर से किसी नए स्थूल शरीर (तन) में प्रवेश कर आगे की यात्रा पर निकल पड़ते हैं |यही पुनर्जन्म कहलाता है |पुनर्जन्म इस चित्त यानि सूक्ष्म शरीर का होता है ,आत्मा यानि कारण शरीर तो उसके साथ यात्रा करने को विवश है क्योंकि बिना कारण शरीर,बिना आत्मा के तन में जीवन संभव नहीं है | इस सूक्ष्म शरीर के स्थूल शरीर में आने को ही हम बंधन कहते है  और जब सूक्ष्म शरीर को किसी नए स्थूल शरीर की आवश्यकता नहीं रहेगी तब उसको हम मोक्ष होना या मुक्ति होना कह देते है |बंधन की स्थिति में आत्मा,चित्त के साथ बंधी रहती है और मोक्ष या मुक्ति की स्थिति में आत्मा चित्त के बंधन से मुक्त हो जाती है |अकेली आत्मा अपने मूल स्रोत,जिसका वह एक अंश मात्र है, में जाकर विलीन हो जाती है | यही आत्मा का परमात्मा के साथ मिलन है और मुक्ति भी |
क्रमशः
                                   || हरिः शरणम् ||

Tuesday, June 10, 2014

मन |-१

                         तन एक साधन है और इस साधन का उपयोग हमारा मन करता है |जिस प्रकार तन पुरुषार्थ के लिए आवश्यक है,उसी प्रकार इस पुरुषार्थ को शुरू करना मन के हाथ है |इस सृष्टि में जो कुछ भी हमें दृष्टिगत हो रहा है या अदृश्य है,सब कुछ उर्जा ही है |यह तन भी उर्जा है जो हमें दिखाई दे रही है और जब तन समाप्त हो जाता है यह उर्जा पञ्च भौतिक तत्वों में स्थानांतरित हो जाती है |इसी प्रकार इस तन को संचालित करने हेतु जो कारण शरीर होता है,जिसे आम बोल चाल में हम आत्मा नाम से संबोधित करते हैं वह भी एक प्रकार की उर्जा ही है |तन और आत्मा अर्थात स्थूल शरीर और कारण शरीर की उर्जा में एक मात्र अंतर यही है कि पहली उर्जा दृश्यमान है और दूसरी उर्जा अदृश्य |स्थूल (Physical Body)और कारण शरीर(Causal Body) के मध्य एक और शरीर होता है जिसे हम सूक्ष्म शरीर (Subtle Body) कहते हैं वह भी एक प्रकार की अदृश्य उर्जा ही है ,अंतर केवल इतना ही है कि इस उर्जा का स्रोत पहले वर्णित शरीरों अर्थात स्थूल शरीर यानि तन और कारण शरीर यानि आत्मा होता है |इनमे से किसी एक की भी उर्जा के अभाव में सूक्ष्म शरीर की उर्जा किसी भी कर्म करने के उद्देश्य से निष्प्रभावी होती है ,जबकि कारण और स्थूल शरीर की उर्जायें सदैव ही प्रभावी स्थिति में रहती हैं | इस सूक्ष्म शरीर के अंतर्गत ही हमारा मन आता है |मन के अतिरिक्त इसमे हमारी बुद्धि,अहंकार और पांच इन्द्रियों के पञ्च सूक्ष्म तत्व सम्मिलित है |मन के अधीन इन्द्रियों के पञ्च सूक्ष्म तत्व होते हैं जब कि बुद्धि और अहंकार मन के अधीन हो भी सकते हैं और नहीं भी |
                         सूक्ष्म शरीर के इन आठ तत्वों में मन सदैव ही केन्द्रीय भूमिका में होता है |इसीलिए हम तन के बाद मन और अंत में आत्मा,इसी क्रम में इनको रखते हैं |मन के कार्य करने की विधि जानने से पहले यह जानना आवश्यक है कि मन हमारे शरीर में कहाँ पर स्थित होता है |वैसे मन भी आत्मा की तरह ही एक अदृश्य उर्जा है परन्तु किसी भी उद्देश्य को संपन्न करने के लिए कर्म करने की आवश्यकता होती ही है |अतः मन भी शरीर की जड़ प्रकृति की ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेंदियों से कर्म करवाता है |इन इन्द्रियों पर  नियंत्रण मनुष्य के मस्तिष्क का होता है | मस्तिष्क के जो हिस्से इन इन्द्रियों को नियंत्रित करते हैं ,उनका नियंत्रण इस मन के पास होता है |इसीलिए मन को आम व्यक्ति अंग्रेजी में Mind कहता है | हालाँकि शास्त्रानुसार यह उपयुक्त शब्द नहीं है,फिर भी हमें शब्दजाल में उलझने से क्या हासिल होना है ? अतः हम इस शब्द को स्वीकार कर सकते है |हमारे मस्तिष्क के उस हिस्से को मन अपने नियंत्रण में रखता है ,जो हमारी इन्द्रियों और उनके विषयों से सम्बंधित है | मस्तिष्क में ही बुद्धि का निवास होता है,और बुद्धि से मन को नियंत्रित किया जा सकता है |मन ,बुद्धि और इस मस्तिष्क को जो उर्जा अपने नियंत्रण में रखती है उस उर्जा का नाम ही आत्मा है ,जो कारण शरीर भी कहलाती है |
क्रमशः
                                           || हरिः शरणम् ||

Monday, June 9, 2014

तन |-८

                               एक बार पुनः हम इस तन की विशेषताओं को दोहराते हैं । प्रत्येक तन की निम्न विशेषताएं होती है-
                १.तन-निश्चित आकार.-प्राणी या निर्जीव के अनुसार ।
                २.तन-एक अस्थाई भाव ।
                ३.तन-उद्देश्य पूर्ति का मात्र एक साधन या माध्यम ।
                ४.तन-किसी भी तन पर किसी का एकाधिकार नहीं ।
            उपरोक्त चार विशेषताएं इस भौतिक शरीर की होती है । सबसे उत्तम शरीर इस मनुष्य नाम के प्राणी को ही उपलब्ध है । इस मानव तन के कारण मनुष्य इसके खाक में मिलने से पहले  आसमान की ऊँचाइयों तक की यात्रा कर सकता है ।  यह तभी संभव हो सकता है ,जब व्यक्ति स्वयं के दायरे से  बाहर निकलते हुए यह देखने की कोशिश करे कि परमात्मा ने उसके अतिरिक्त भी कुछ सुन्दर और भी बनाया है । यह कूप मंडूकता का भाव त्यागकर अपनी दृष्टि से परमात्मा की इस विशाल सृष्टि का अवलोकन करे । तभी व्यक्ति को अपनी क्षुद्रता का अनुभव हो सकता है । जिस दिन व्यक्ति को अपनी इस छोटेपन का अनुभव हो जाता है,इस तन से अहंकार तिरोहित हो जाता है ।
              अहंकार हालाँकि सूक्ष्म शरीर का हिस्सा है ,परन्तु अहंकार इस भौतिक शरीर यानि इस तन के कारण और उसमें ही पैदा होता है । इस तन के समाप्त होते ही अहंकार भी अपना विशाल स्वरुप त्यागकर मन में समाहित हो जाता है । यही अहंकार फिर नए तन ,नए स्थूल शरीर की प्राप्ति पर अपने अल्प स्वरुप को त्यागते हुए असली रूप में प्रकट होने लगता है । यह मत सोचना कि अहंकार केवल बड़े और धनी लोगों का  ही होता है । अहंकार प्रत्येक तन में होता है चाहे वह तन किसी व्यक्ति का हो,मनुष्य का हो या अन्य प्राणी का । बस अंतर इतना ही होता है किअहंकार का कारण अलग अलग होता है । धनी का अहंकार धन के कारण,नेता का राजनीति के कारण,अफसर का अपने पद के कारण और किसी भी योगी का अपने योग के कारण । यह अहंकार तभी मात्रात्मक रूप से कम होता है जब यह तन उस व्यक्ति का साथ देने से इंकार कर देता है । जीर्ण शीर्ण तन में अहंकार सुषुप्तावस्था में चला जाता है ,समाप्त नहीं होता । अहंकार तभी समाप्त हो सकता है जब परमात्मा की विशालता और स्वयं की क्षुद्रता का अनुभव हो । कहने को हम सब कह सकते हैं कि परमात्मा की विशालता को हम स्वीकार करते हैं ,परन्तु जरा आप अपने दिल पर हाथ रखकर विचार करें कि क्या आप इसे अंतर्मन से स्वीकार करते हैं? नहीं ,बिलकुल नहीं । जिस दिन अंतर्मन से इस बात पर विश्वास करने लगोगे, यह संसार ही परमात्मामय हो जायेगा । फिर न मंदिर जाने की आवश्यकता है,न मस्जिद की । आप जो यह मंदिर,मस्जिद,गुरूद्वारे जाते हो न,यह सब आपके इस अहंकार को ही पुष्ट और संतुष्ट करते हैं ,परमात्मा से इसका कोई लेना देना नहीं होता ।
                         अतः आवश्यक है कि इस तन की वास्तविकता और उपयोगिता को समझें और इसे साध्य नहीं ,एक साधन मात्र समझें । तभी इस मानव तन को प्राप्त करने की सार्थकता है अन्यथा तन तो पशुओं के पास भी होता है ।
कल से मन पर ....... मन तो कहता है कि तन पर कुछ और लिखा जाये परन्तु मैं इस मन को और अधिक छूट देना नहीं चाहता । अगर इस मन का कहा मानता रहा तो कल से जब मन पर लिखूंगा तो यह फिर किसी अन्य विषय पर लिखने नहीं देगा ।
                                                ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Sunday, June 8, 2014

तन |-७

                                  जो तेरा नहीं, उसे तन कहते हैं |तन,स्थूल शरीर है |इसकी प्रकृति जड़ है,अपरा है |हम यह भौतिक शरीर नहीं है |जिसको आप "मैं हूँ "कहते हो ,वह अपने इस तन को नहीं कहते हो |"मैं" तन से बिलकुल ही विलग है |तन "मैं"का एक अस्थाई निवास स्थान है ,धर्मशाला है,जिसमे कुछ समय के लिए "मैं" रहने के लिए आया है |जिस प्रकार आप अपने घर से किसी अन्य शहर में किसी काम को करने के उद्देश्य से जाते हो तो वहां पर अस्थाई तौर पर रहने के लिए किसी धर्मशाला या रेस्ट हाउस में रूकते हो |ज्योंही वहां आपका काम पूरा हो जाता है,फिर आप वहां पल भर को भी नहीं ठहरते हो | कई बार ऐसा भी होता है कि जिस कार्य से आप वहां गए हो उसके निकट भविष्य में पूरा होने की सम्भावना नहीं होती ,ऐसी स्थिति में भी आप अपना अस्थाई निवास तुरंत ही छोड़ देते हो और कुछ समय बाद अपने उद्देश्य के लिए फिर वहां  जाकर किसी नए स्थान पर ठहरते हो |इसी प्रकार अपना यह तन है |किसी उद्देश्य के लिए हमें यह मिला है |उद्देश्य पूरा होते ही इसे छोड़ना होगा और अगर उद्देश्य पूरा होने की सम्भावना नहीं होती तो भी इस तन को त्यागना होता है और कुछ समय बाद उसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए नए तन में जाना होता है |
                        जब इस भौतिक शरीर की मृत्यु हो जाती है तब इसे केवल देह या बॉडी कहा जाने लगता है । आज कल जब किसी की मृत्यु हो जाती है तब हर कोई पूछता है-Dead  body को घर पर कब लाएंगे । अथवा फलां व्यक्ति की body का अंतिम संस्कार कितने बजे है । यह सब साबित करता है कि हमें भी भीतर यह ज्ञान होता है कि यह "मैं"कोई तन या भौतिक शरीर नहीं है । मृत्यु के साथ ही आपका यह "मैं"भी उस भौतिक शरीर को त्याग देता है । कहने का अर्थ यह है कि इस भौतिक शरीर पर भी "मैं"का अधिकार नहीं है ।
                         इस प्रकार इस तन की चौथी विशेषता यह हुई कि इस तन पर आपका एकाधिकार नहीं है |आज आपके पास मनुष्य का तन है,कल वापिस मनुष्य का भी हो सकता है या फिर किसी अन्य प्राणी का |और अगर मनुष्य का तन ही पुनः प्राप्त होता है तो यह परिवर्तित होते हुए किसी पुरुष या स्त्री का भी हो सकता है |फिर इस तन को अपना मानना कहाँ तक उचित है ? इसी लिए तन के बारे में सिद्ध साधू पुरुष ज्ञान देते हैं कि "त"का अर्थ है तेरा और "न" का अर्थ है नहीं |तन यानि तेरा नहीं |इसलिए इस तन को सजाने संवारने में ज्यादा समय बर्बाद न करे |इस तन की सुन्दरता का कोई महत्त्व नहीं है |मानव तन मिलने का अर्थ यह है कि इसका सदुपयोग करें,दुरूपयोग नहीं |सदुपयोग है-इस तन को परमार्थ में लगाना,स्वयं के लिए तो पशु भी जीते हैं |परमार्थ मार्ग ही परमात्मा का मार्ग है |इस तन के बारे में कबीर कहते हैं-
             "यह तन एक दिन खाक मिलेगा,काहे फिरे मगरूरी में |
              कहत कबीर सुनो भाई साधो,साहिब मिले सबूरी में ||
              मन लाग्यो मेरो यार फकीरी में..................||"
        इस तन को एक दिन समाप्त होकर मिट्टी में मिलजाना है |इस शरीर सौष्ठव को निहारकर इतराएँ नहीं |इस तन पर घमंड न करे |यह तन तेरा नहीं है |प्रत्येक स्थान पर,प्रत्येक उपलब्धि पर संतोष धारण कर लें, संतोष ही आपको परमात्मा के द्वार तक ले जायेगा |  एक बार संतोष धारण करना आ गया,फिर आपका ध्यान इस तन से हटकर परमात्मा की और लगने लगेगा |जब परमात्मा में मन लगना शुरू हो जाता है तो फिर सभी ओर वही नज़र आता है |तन पाने का उद्देश्य सांसारिक न रहकर पारमार्थिक हो जाता है |परमार्थ ही मुक्ति का मार्ग है |
क्रमशः
                             ॥  हरिः शरणम् ॥      

Saturday, June 7, 2014

तन |-६

                                " अष्ट कमल का चरखा बनाया,पांच तत्व की पूनी ।
                                 नौ दस मास बुनन म लाग्या ,मूरख मैली कीन्ही चदरिया ॥
                                 झीनी रे झीनी.……… ।"
                कबीर का यह भजन और इसकी यह पंक्तियाँ इस तन के बारे में सब कुछ स्पष्ट कर देती है । कबीर एक जुलाहा थे । उनसे बढ़कर कपडे को बुनने के बारे में और कौन जान सकता है ? पूनी,रूई के उस आकार को कहते हैं जिसे कपडा बुनने के लिए तैयार किया जाता है । रूई को अच्छी तरह साफ कर उसे ऐसा आकार दिया जाता है जिससे बुनाई करते समय हाथ में आसानी से पकड़ी जा सके । कबीर ने पूनी इस भौतिक शरीर ,इस तन के निर्माण के लिए आवश्यक पांच तत्वों के इक्कट्ठे होने को बताया है । चरखे के घेरे में, चरखे के चक्र में आठ पंखुडियां होती है ,तभी चरखा घूमता है और पूनी से सूत काता जाता है और उस सूत से कपडे का निर्माण होता है । कबीर ने पांचों इन्द्रियों के सूक्ष्म पांच तत्व,मन,बुद्धि और अहंकार ,इन आठों से चरखा बनाया है । इन आठों के मिलने से ही सूक्ष्म शरीर का निर्माण होता है । इस सूक्षम शरीर के कारण ही,इस सूक्ष्म शरीर के चाहने से ही इस तन का ,इस भौतिक स्थूल शरीर का निर्माण होता है । जिस प्रकार चरखे के घूमने से ,चरखे के कारण ही रूई की पूनी से सूत काता जा सकता है और इन सूत के धागों से चद्दर का बनना होता है । कबीर आगे कहते हैं कि इस चद्दर रुपी शरीर के बनने में ९-१० महीने लगते हैं । इतने  कड़े प्रयास से अस्तित्व में आई इतनी सुन्दर चद्दर को मनुष्य अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु काम में लेकर गन्दी कर रहा है । इस मूर्खता के कारण मनुष्य की यह चद्दर मैली होती जा रही है ।
                      "दास कबीर जतन करि ओढ़ी,ज्यूँ की त्यूं धर दीन्ही चदरिया "
                      इस चद्दर को कबीर कहते हैं,"इस चद्दर को मैंने परमात्मा का दास बनकर ही ओढ़ी है,मैंने उसके बनाये नियमों का पालन किया है । मैं उसकी इच्छा के विरुद्ध बिलकुल भी नहीं  चला । मैंने अपने तन का सदुपयोग किया है । इस कारण से मैंने अपनी यह चद्दर जैसी मिली ,वैसी ही वापिस लौटा रहा हूँ ।" यह तन परमात्मा का मनुष्य को एक आशीर्वाद है । इस तन का जितना सदुपयोग इस जीवन में कर लिया जाय उतना ही अच्छा है । इस तन का उद्देश्य मात्र अपने ही लिए ना किया जाये बल्कि सबको आत्मस्वरूप समझते हुए सबकी सोची जाये,तभी इस मानव तन की सार्थकता है ।
क्रमशः
                                    || हरिः शरणम् ||

Friday, June 6, 2014

तन |-५

                             तन की तीसरी विशेषता है कि यह एक माध्यम,एक साधन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । माध्यम का अर्थ है कि किसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए जिसकी उपस्थिति आवश्यक हो । बिना तन के,बगैर इस स्थूल शरीर के कोई भी व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता ।  मनुष्य अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए ,अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है । इसके लिए वह सभी उचित , अनुचित साधन का उपयोग कर सकता है । सभी साधनों के उपयोग के लिए यह तन ही एक माध्यम होता है ।तन  ,एक मशीन है और इसे अच्छे और बुरे दोनों ही तरह के कार्यों के लिए उपयोग में लिया जा सकता है । इसके लिए जिम्मेदार यह भौतिक शरीर यानि तन नहीं होता बल्कि  इन्द्रियों के पांच सूक्ष्म तत्व, मन, बुद्धि और अहंकार ,कुल आठ तत्व जो सब मिलकर  सूक्ष्म शरीर कहलाते है ,वह सूक्ष्म शरीर ही इसके लिए उत्तरदाई होता है । परन्तु केवल मनुष्य ही इस संसार में एक मात्र प्राणी है जिसकी बुद्धि अतिविकसित होती है ,अगर वह अपनी बुद्धि का सही तरीके से इस्तेमाल करे तो न तो उसका कोई उद्देश्य अनुचित होगा और न ही उसे प्राप्त करने के लिए उपयोग में लिया जाने वाला साधन । यही बुद्धि मनुष्य को पशु से अलग करती है।
                  मनुष्य के तन से हम परमात्मा तक को प्राप्त कर सकते हैं ।इसके लिए इस तन को प्रथमतः तो प्रकृति के बनाये हुए नियमों को स्वीकार करते हुए उन्ही के अनुसार चलना होगा । तभी इस तन रुपी मशीन को एक सुयोग्य साधन की तरह उपयोग में लिया जा सकता है । यह मानव तन हमें इसलिए परमात्मा ने दिया है जिससे हम एक दूसरे के काम आयें,एक दूसरे की सहायता करें । ऐसा करना ही देवतुल्य व्यवहार कहलाता है । मुझे इसे और स्पष्ट करने के लिए एक दृष्टान्त याद आ रहा है । किसी ने परमात्मा से पूछा कि देवताओं और राक्षसों में ऐसा कौन सा अंतर है कि आप देवताओं की सहायता के लिए तो सदैव तत्पर रहते हैं और राक्षसों के साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार करते हैं । परमात्मा ने कहा कि देवता सदैव एक दूसरे की सहायता को तत्पर रहते हैं जबकि राक्षस केवल अपने स्वार्थपूर्ति में ही व्यस्त रहते हैं ।
                       परमात्मा ने इसे सिद्ध करने के लिए  प्रत्येक देवता और हर एक राक्षस के हाथ को एक लम्बी लकड़ी से इस प्रकार बांध दिया कि उस हाथ कोहनी से मुड़ नहीं सके । सभी राक्षसों को एक कमरे में और सभी देवताओं को दूसरे कमरे में बैठा दिया । जब भोजन का समय हुआ तो प्रत्येक राक्षस और देवता के समक्ष भोजन परोस कर थाली रख दी गई । थोड़ी देर बाद जब राक्षसों के कमरे में जाकर देखा गया तो पाया कि सभी राक्षस अपना अपना पेट भरने के लिए खाने का प्रयास कर रहे हैं परन्तु कोहनी से हाथ न मुड़ पाने के कारण खाना मुंह में न जाकर बाहर ही बिखर जाता है । इस प्रकार सभी राक्षस अंत में भूखे ही रह गए । दूसरे कक्ष में देवता थे । उस कक्ष का अवलोकन करने पर पाया कि हाथ कोहनी से न मुड़ पाने के कारण वे स्वयं अपना पेट न भरता देख एक दूसरे को खाना खिलाने में लगे हुए है । इस प्रकार सभी देवताओं ने अपने हाथ बंधे होने के बावजूद आपसी सहयोग से एक दूसरे का पेट भर दिया ।
                           इस दृष्टान्त से हम समझ ही गए हैं कि इस तन रुपी साधन का सदुपयोग करना ही इस जीवन का उद्देश्य होना चाहिए ।सदुपयोग से अर्थ एक दूसरे के काम आना,अपने जैसा ही दूसरे को समझना और सहायता को तत्पर रहना है ।  इस तन की यह सबसे बड़ी और अच्छी विशेषता है कि यह एक अच्छा साधन है ।
क्रमशः
                                 || हरिः शरणम् || 

Thursday, June 5, 2014

तन |-४

                        तन की दूसरी विशेषता है  इसका अस्थायित्व भाव । तन कभी भी स्थाई नहीं होता,यह निरंतर परिवर्तनशील है । हम चाहे लाख कोशिश कर लें ,इस तन को एक दिन समाप्त होना ही है । जब तक हम में यह भावना रहेगी कि संसार में सब कुछ समाप्त हो रहा है और होता जा रहा है परन्तु हमें अपने आप को बचाए रखना है तब तक हमारे मन से मृत्यु का  भय निकल नहीं सकता । भय इस संसार की सबसे बड़ी विकृति है ,जिसके कारण ही इस संसार में इतना वैमनस्य और स्वार्थ एक सीमा से अधिक बढ़ता जा रहा है । आज हम सब अपने अपने स्वार्थों की पूर्ति में लगे हुए हैं और इस प्रकृति को,इस संसार को नष्ट करने पर तुले हैं । हम यह नहीं जानते कि यह संसार है तो हम है,यह प्रकृति है तो हम है । सब पेड़ की छाया में तो बैठना चाहते है परन्तु पेड़ लगाना और उसका पालन पोषण करना कोई नहीं चाहता । पेड़ लगाने की बात तो दूर उलटे उन्हें काटने और समाप्त करने को उद्यत हैं ।
                   यह भौतिक शरीर ,स्थूल शरीर ,यह आपका तन, जिस को सजाने और संवारने में आप दिन रात एक किये जा रहे हैं,वह प्रतिपल बदल रहा है । आप कितना ही जतन करलें,विभिन्न प्रकार के योग कर लें , कितने ही उपचार के तरीके काम में लेते रहे,एक दिन इसे समाप्त होना ही है । इस तन को हम क्यों संभाल कर रखना चाहते हैं? जरा समय निकल कर सोचिये । जिस किसी को भी मैं अपने दैनिक प्रातः कालीन भ्रमण के दौरान पूछता हूँ सबके उत्तर लगभग एक समान और एक ही उद्देश्य लिए हुए होते  हैं । किसी ने  अपने  चिकित्सक के कहने से भ्रमण और योग प्रारम्भ किया है,किसी के खून में कॉलेस्ट्रोल का स्तर अधिक है,किसी का वजन एक सीमा से अधिक है,किसी के उच्च रक्तचाप है ,कोई मधुमेह से पीड़ित है और जिस किसी को कोई बीमारी नहीं है वह भविष्य में होने वाली सम्भवित बीमारी से बचने के लिए ऐसा कर रहा है । सबके उत्तर समान है,अपने शारीरिक सवास्थ्य में सुधार यानि निजी स्वार्थ । मैंने पूछा-अच्छा स्वास्थ्य रख कर आपको क्या फायदा होगा?फिर वही एक समान उत्तर । अपनी आजीविका कमाने के लिए अच्छा स्वास्थ्य आवश्यक है, अभी परिवार में बच्चे छोटे हैं , बुजुर्गों का कहना होता है कि हाथ पांव चलते रहे तो किसी से सेवा कराने की आवश्यकता न पड़े आदि आदि । क्या इन सब की सोच ,इन सबका उत्तर सही है ? हाँ वो स्वार्थवश सच कह रहे हैं । परन्तु क्या इस तन का यही एक उद्देश्य होना चाहिए? क्या इस तन को हम केवल अपने काम में लेने से अलग किसी और काम के किये भी उपयोग में ले सकते हैं ?
                           हाँ,यह तन स्थाई नहीं है,अमरता लिए हुए नहीं है और इसका उपयोग हम अपने  स्वार्थ सिद्धि के अतिरिक्त भी कर सकते है और करना भी चाहिए । अपने स्वार्थ के अतिरिक्त उपयोग करना ही आपके इस तन को पशु तन से अलग करता है,अन्यथा आपमें और एक पशु में अंतर ही क्या रह जायेगा ?
क्रमशः
                                      || हरिः शरणम् ||

Wednesday, June 4, 2014

तन |-३

                                 गीता के इस श्लोक के आधार पर हम समझ सकते हैं कि चाहे आत्मा हो या भौतिक शरीर या सूक्ष्म शरीर ,तीनों ही अव्यक्त से व्यक्त होकर पुनः अव्यक्त होते रहते हैं । अतः यह मानना कि देह त्याग के पश्चात् सब कुछ समाप्त हो जाता है,मिथ्या है । आध्यात्मिक दृष्टि से अगर देखें तो यह स्पष्ट है कि भौतिक शरीर परिवर्तन शील है जबकि आत्मा यानि कारण शरीर अपरिवर्तनीय । इसीलिए भौतिक शरीर को जड़ प्रकृति का बताया गया है अर्थात इस तन की प्रकृति असत मानी गई है जबकि आत्मा की सत प्रकृति । परन्तु दोनों ही परमात्मा के द्वारा बनाये हुए हैं  इसलिए परमात्मा ने स्पष्ट किया है कि यह अव्यक्त से व्यक्त होना और पुनः अव्यक्त हो जाना इस खेल के ही हिस्से हैं ।व्यक्त से अव्यक्त होने का शोक इसलिए मत करो क्योंकि अव्यक्त फिर से एक दिन व्यक्त हो सकता है । देह या तन के समाप्त होने का अर्थ यह नहीं है कि पाँचों भौतिक तत्व ही पूर्णतया समाप्त हो गए है । ये पुनः संयुक्त होकर एक नए तन का ,एक नए भौतिक शरीर का निर्माण करके व्यक्त होंगे ।
                                इस तन की कुछ विशेषताएं है जिसके कारण ही इसका महत्त्व सबसे अधिक है । बिना इस तन के,बिना इस भौतिक शरीर के न तो कुछ प्राप्त किया जा सकता है और न ही कुछ भोगा जा सकता है । यह एक साधन मात्र है ।  यहाँ तक कि अगर परमात्मा को ही पाना हो,मोक्ष की कामना हो तो भी इस तन के माध्यम से ही पुरुषार्थ कर इन्हें प्राप्त किया जा सकता है । इस तन को केवल एक मशीन ,जिसका कार्य केवल खाना,पीना,संतति पैदा करना ही अगर मानते रहे तो फिर पशु जीवन और मानव जीवन में अंतर ही क्या रह जायेगा ?यही कारण है कि मनुष्य शरीर को पाकर ,इस तन को पाकर ही मनुष्य बहुत कुछ प्राप्त कर सकता है ।हमारे सनातन शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है कि यह मानव तन दुर्लभ है,,और इसको पाने के लिए देवता तक तरसते हैं । हम इस तन के साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार करते हैं,निंदनीय मानते हैं परन्तु यह नहीं जानते कि इसकी निंदा क्यों करते हैं ? जो तन इस संसार में आया है उसका अगर हम दुरूपयोग करते हैं तो यह निंदनीय हो सकता है परन्तु निंदा तन की नहीं,हमारी स्वयं की होनी चाहिए जो इस तन का सदुपयोग नहीं कर पा रहे हैं ।
                               यह तन केवल प्राणियों को ही नहीं उपलब्ध होता है बल्कि प्रत्येक सजीव और निर्जीव का अपना एक तन होता है । तन का अर्थ भी यही होता है-आकार । तन ,केवल आकार और डीलडौल से ही सम्बंधित है,चाहे हम सजीव के तन की बात करें या निर्जीव के तन की । निर्जीव के तन में सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर तब तक प्रवेश नहीं कर सकते जब तक उसमे पाँचों भौतिक तत्वों का समावेश नहीं हो जाये । निर्जीव के तन की अगर हम बात करें तो यह आवश्यक नहीं है कि उसमे उपरोक्त पाँचों भौतिक तत्व उपस्थित ही हो । इस तन ,इसके विशेष प्रकार के आकार के कारण ही हम नाम लेते ही उस प्राणी या निर्जीव के तन की कल्पना कर सकते हैं । जैसे कि हाथी,पेड़,घोडा,पहाड़ या नदी का नाम लेने पर हम उस सजीव या निर्जीव के तन की कल्पना कर लेते हैं । अतः इस तन की प्रथम विशेषता यह है कि प्रत्येक निर्जीव या सजीव का तन अपना एक निश्चित आकार लिए हुए  होता है ।
क्रमशः
                                 || हरिः शरणम् ||    

Tuesday, June 3, 2014

तन |-२

                           हम जानते हैं कि इस तन को सुचारू रूप से कार्य करने हेतु २४ तत्वों की आवश्यकता होती है । जिनमे पांच तो भौतिक तत्व है जिससे इस तन का निर्माण मात्र होता है अर्थात इस भौतिक संसार में तन रुपी मशीन अपना आकार लेती है । इसके बाद इस तन में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है अगले १५ तत्वों की । जो हैं पांच ज्ञानेन्द्रियाँ,पांच कर्मेन्द्रियाँ और पांच इन इन्द्रियों के विषय ।समस्त ज्ञानेन्द्रियां और कर्मेन्द्रियाँ ,उपकरण है जिन्हे शास्त्रों में करण कहा गया है जबकि इनके विषय कार्य कहलाते हैं । ये सभी भी स्थूल प्रकृति के हैं और इनका निर्माण भी इन्हीं पांचो भौतिक तत्वों से ही होता है ।  पांच ज्ञानेन्द्रियाँ (Senses of knowledge)है-आँख ,नाक,जीभ ,कान और त्वचा । इनके पांच विषय(Subjects of senses) है-रूप, गंध, स्वाद, श्रवण और स्पर्श । पांच कर्मेन्द्रियाँ(Senses of act) है-हाथ (हस्त), पैर(पाद), जीभ(वाक्), उपस्थ (मूत्र द्वार) और गुदा(मलद्वार) । इन १५ तत्वों के कारण जो हमें कार्य की अनुभूति होती है वे ५ सूक्ष्म इन्द्रिय तत्व कहलाते हैं जो इन पाँचों इन्द्रियों से ही सम्बंधित रहते हैं । इन्द्रियों में सभी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ और इनके विषय सम्मिलित है । इस प्रकार इस तन में पांच भौतिक तत्वों के साथ जब ये पांच इन्द्रिय तत्व  , मन, बुद्धि और अहंकार कुल मिलाकर १३ तत्व इक्कट्ठे हो जाते हैं तब यह तन रुपी मशीन अपना कार्य करने को तैयार हो जाती है । जब इनके साथ आत्मा नामक १४ वां तत्व आकर सम्मिलित हो जाता है तब यह मशीन अपना कार्य पूर्ण दक्षता के साथ प्रारम्भ कर देती है ।
                         प्रायः हम सब तन(Physical body) को शरीर (Body) कह देते हैं । हाँ,यह तन का पर्यायवाची शब्द अवश्य है परन्तु तन का स्थान्नापन्न शब्द नहीं है । शरीर को तीन भागों में बांटा जा सकता है-स्थूल या भौतिक शरीर(Physical body),सूक्ष्म शरीर(Subtle body) और कारण शरीर(Causal body) । भौतिक शरीर से आशय इस तन से है जो पांच भौतिक तत्वों के मिलने से बनता है । इसमे पांच ज्ञानेन्द्रियों और  पांच कर्मेन्द्रियों के उपकरण तथा पांच इन्द्रियों के विषय अर्थात कार्य सम्मिलित हैं क्योंकि उनका निर्माण भी इन्ही पांच भौतिक तत्वों से होता है । शेष बचे ९ तवों में से आत्मा को छोड़कर बचे आठ तत्व सूक्ष्म शरीर कहलाते है और अंतिम तत्व आत्मा कारण शरीर कहलाती है । अतः यह तन मात्र एक भौतिक शरीर से अधिक कुछ भी नहीं है और अकेले इसकी कीमत कुछ भी नहीं है । ठीक उसी प्रकार जैसे कोई भी मशीन बिना अपने कलपुर्जों के कबाड़ ही होती है ,मशीन नहीं । ऐसी मशीन का कुछ भी उपयोग नहीं होता और उसमे उपस्थित लोहे और ताम्बे की कीमत से अधिक मोल उसका कोई नहीं होता ।जब इस भौतिक शरीर से सूक्ष्म और कारण शरीर अलग हो जाते है तब मात्र यह भौतिक शरीर  यानि तन ही शेष बचता है जिसे हम मृत देह कह देते हैं ।  इस मृत देह में पांच भौतिक तत्वों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बचता और फिर यह मृत देह या तो प्राक्रतिक रूप से विखंडित होने लगती है या फिर उसको जला दिया जाता है या दफ़न कर दिया जाता है । प्रत्येक स्थिति में इस तन के निर्माण में काम में आये पाँचों भौतिक तत्व विखंडित हो कर अलग अलग हो जाते है और कालांतर में फिर किसी नए भौतिक शरीर का,तन का निर्माण करने में भूमिका निभाते हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि इस तन की मृत्यु के बाद भी इन पाँचों भौतिक तत्वों का अस्तित्व बना ही रहता है ।
                      गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं-
                                           अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
                                            अव्यक्तनिधनान्येव  तत्र  का  परिवेदना ॥ गीता २/२८ ॥
अर्थात,हे अर्जुन !  सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट होते हैं; फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है ?
क्रमशः
                                       || हरिः शरणम् || 

Monday, June 2, 2014

तन |-१

                                   संसार में किसी भी मनुष्य के जीवित रहने के लिए २४ तत्वों की आवश्यकता होती है |जिसमे पांच तो इस तन के निर्माण के लिए आवश्यक तत्व हैं |भूमि,जल,अग्नि ,आकाश और वायु |यह पाँचों  वे तत्व है जिनके बिना यह तन रुपी मशीन अपना भौतिक स्वरूप प्राप्त नहीं कर सकती | बिना इस मशीन के कोई भी कार्य यहाँ संपन्न नहीं हो सकते |संसार में प्रत्येक मशीन की अपनी कार्य करने की एक निश्चित समय सीमा होती है |उस सीमा के बाद उसका सुचारू रूप से कार्य करना संभव नहीं हो सकता |इस समय सीमा को हम उस मशीन की आयु अथवा उम्र कह सकते हैं |संसार में जितनी भी ऐसी मशीने है,उनका जब से निर्माण होता है,उससे उसके योग्य सम्पूर्ण  कार्य उससे संपन्न किये जाते हैं | धीरे धीरे उसकी कार्य क्षमता कम होती जाती है और अंत में वह मशीन एक दिन पूर्ण रूप से कार्य करने योग्य नहीं रह पाती और समाप्त हो जाती है | मशीन के ख़राब होजाने पर,काम योग्य नहीं रह पाने पर उसके समस्त अंगों को अलग अलग कर,उन्ही अंगों को परिवर्तित कर फिर एक नई मशीन तैयार की जाती है |इस प्रकार प्रत्येक मशीन के साथ यह चक्र सतत चलता रहता है | ऐसा ही कुछ कुछ मानव तन रुपी मशीन के साथ भी होता है |
                            इस संसार में यह भौतिक शरीर उपरोक्त वर्णित पाँचों तत्वों से निर्मित होता है |वह बाल्यावस्था से होता हुआ युवावस्था को प्राप्त होता है ,तब उसकी कार्य क्षमता पूर्ण ऊंचाई पर होती है |कुछ समय बाद उसकी कार्य क्षमता धीरे धीरे समाप्ति की ओर चल पड़ती है और एक दिन समस्त कार्य क्षमता समाप्त हो जाती है | इस स्थिति में यह तन कार्य करने योग्य नहीं रह पाता और उसकी मृत्यु हो जाती है |मृत्यु उपरांत उपरोक्त पांचो तत्व अलग अलग हो जाते हैं |समय पाकर फिर से ये एक नए तन की संरचना करते हैं |जिस प्रकार एक मशीन के पूर्णतया ख़राब हो जाने के बाद उसके समस्त अंगों को अलग कर एक से अधिक मशीनों के निर्माण में काम में लिए जा सकते हैं,उसी प्रकार मनुष्य के शरीर के इन पांच तत्वों से भी भिन्न भिन्न प्रकार के तन बनाये जा सकते हैं | यह आवश्यक नहीं है कि इन तत्वों से केवल एक विशेष प्रकार के तन ही बनाये जा सकते हो |संसार में जितने भी जीव-जंतु हैं उनमे प्रत्येक के तन के निर्माण में इन पाँचों तत्वों की भूमिका अवश्य रहती है |
क्रमशः
                                || हरिः शरणम् ||

Sunday, June 1, 2014

तन-मन-धन |

                                        इस संसार में जिस किसी भी व्यक्ति ने,मनुष्य ने जन्म लिया है ,उसके जीवन में तन,मन और धन तीनों का ही बहुत महत्त्व है | तन और कुछ सीमा तक मन भी ,इस संसार में सभी भूतों,सभी जीव-जंतुओं ,प्राणियों के पास होता है परन्तु इन दोनों के साथ साथ धन केवल मनुष्य के पास ही होना संभव है | मनुष्य के अतिरिक्त अन्य सभी जीवों में मात्र तन का महत्त्व होता है,उनमे स्थित मन केवल पूर्व मानव जीवन में किये गए कर्मों का फल भोगने मात्र के लिए उदासीन अवस्था में स्थित होता है |वे जीव अपने मन के अनुसार कोई कर्म नहीं कर सकते,केवल मन से वही कर्म होते हैं जो पूर्व मानव जन्म में किये गए कर्मों के फलों को भोगने के लिए होने आवश्यक है | जबकि मनुष्य में मन सक्रिय अवस्था में होता है और वह अपने मन के अनुसार कर्म करने को स्वतन्त्र होता है |इस मन का वह उपयोग किस तरह करता है,यह उसके संस्कार और उपलब्ध वातावरण और  परिस्थितियों  पर निर्भर करता है |
                 तन को प्राप्त करना मनुष्य के हाथ में नहीं है |तन यानि यह भौतिक शरीर, पांच भौतिक तत्वों से निर्मित है और कैसा आपका तन होगा ,यह केवल उन तत्वों ,स्थान और जिस घर में आपका जन्म होनेवाला है उस घर के पूर्वजों के शरीर-सौष्ठव पर निर्भर करता है | जन्म के बाद जो भी तन में परिवर्तन होते है उसमे इन्ही तीन कारकों का ही महत्व होता है |
                  मन,आपका स्वयं का होता है और यह जैसा आप उसका सदुपयोग-दुरूपयोग करना चाहते हैं ,करने को स्वतन्त्र होते हैं | पूर्व जन्म का मन ,इस नए जीवन के प्रारम्भ में ही अपना स्थान ग्रहण करता है | इस मन के कारण आप केवल वही कर्म कर सकते हैं जो मन का यह भाग करवाना चाहता है |परन्तु मन का दूसरा भाग ,जिसका विकास इस भौतिक शरीर के बनने के दौरान गर्भावस्था में ही प्रारम्भ हो जाता है और जन्म के समय यह पूर्ण रूप ले लेता है ,के अनुसार मनुष्य कर्म करने या न करने के लिए स्वतन्त्र होता है |
                धन,उस सम्पति को कहते हैं ,जो मनुष्य अपने जीवन काल में स्वयं अपने पुरुषार्थ से अर्जित करता है | इस  धन का सदुपयोग अथवा दुरूपयोग मनुष्य अपने मन के अनुसार करता है |अब यह धन या सम्पति किस प्रकार अर्जित की जाती है,किस प्रकार उपयोग में ली जाती है या संचित की जाती है,यह सब उस व्यक्ति की मनोवृति पर निर्भर करता है | इसमे उसके तन का योगदान केवल पुरुषार्थ करने तक ही सीमित होता है | वह भी उसकी मन की इच्छानुसार ही संभव है | इस तन का उपयोग तो केवल एक मशीन की तरह ही किया जाता है,उससे अन्यथा कुछ भी नहीं |
                        आज से हम इन तीनों ही महत्त्वपूर्ण विषयों पर चर्चा करेंगे |प्रस्तावना के अनुसार इन तीनों के बीच में आपस में गहरा सम्बन्ध  है |इन तीनों की ही प्रकृति और कार्यशैली को जाने बिना हम यह नहीं जान सकते कि इस संसार में हमारी आदर्श जीवन शैली क्या और कैसी होनी चाहिए?
                               || हरिः शरणम् ||