भज गोविन्दम् – श्लोक सं.26(समापन)-
हमें आत्म-ज्ञान क्यों नहीं हो पाता ?
यह हमारे सामने मुख्य प्रश्न है | हम स्वयं के द्वारा निर्मित इस संसार के प्रति
इतने अधिक मोहग्रस्त है कि हमें केवल यह संसार ही सत्य नज़र आता है, इसके अतिरिक्त
कुछ भी सत्य प्रतीत नहीं होता | हम बार-बार जन्म लेते हैं, बार-बार मरते हैं,
परन्तु स्व-संसार से मोह फिर भी नहीं छुटता | ऐसा नहीं है कि हम इस मोह का त्याग
नहीं कर सकते | इस देश में हमारे जैसे ही दिखने वाले अनगिनत संत महात्माओं ने
मोह-मुक्त होकर आत्म-ज्ञान प्राप्त किया है | सत्य बात तो यह है कि हम अपनी भौतिक
दृष्टि पर ही सर्वाधिक विश्वास करते हैं | इसी कारण से जो हमें दिखाई पड़ता है, उसी
को सत्य मान बैठते हैं | जरा विचार कीजिये, इस दृश्यमान संसार के पीछे स्थित उस
अदृश्य शक्ति का | आप स्वयं ही समझ जायेंगे कि सत्य क्या है ? दिखाई पड़ने वाला ही सदैव
सत्य नहीं होता, दिखाई देने का जो कारण है, वही वास्तव में सत्य होता है | उस
अदृश्य को स्वयं के भीतर प्रवेश करके ही देखा जा सकता है, बाहर संसार में विचरण
करते हुए नहीं | बाहर विचरण करने से तो आपको यह संसार ही आकर्षित करेगा क्योंकि
शरीर का सुख संसार के कारण ही है | आत्मिक सुख सर्वोच्च सुख है, जिसे आनंद कहा
जाता है, वह तो शरीर के विकारों को त्यागकर स्वयं के भीतर प्रवेश करने पर ही
उपलब्ध हो सकता है अन्यथा नहीं |
आत्म-ज्ञान के लिए केवल ज्ञान
प्राप्त कर लेना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उस ज्ञान को जीवन में आत्मसात कर उसे
विज्ञान बनाना होगा, तभी हम वास्तव में ज्ञानी हो सकेंगे | विज्ञान की पुस्तकों
में लिखा है कि विद्युत का निर्माण कैसे किया जा सकता है | परन्तु विद्युत को
बनाने के लिए आपको वे सभी प्रयास करने पड़ते हैं, जिससे विद्युत बन सके | विद्युत
बना लेने पर ही आपको उस ज्ञान का अनुभव होगा | एक किताबी पंडित नाव से नदी पार कर
रहा था | उसने मल्लाह को एक-एक कर कई पांडित्य से सम्बंधित प्रश्न पूछे | मल्लाह
को किसी भी प्रश्न का उत्तर ज्ञात नहीं था | अंत में उसने मल्लाह से कहा कि तुम्हें
कुछ भी ज्ञान नहीं है, ऐसे में इस संसार सागर से तैर कर पार कैसे हो सकोगे ?
मल्लाह इस बार भी चुप रहा | पंडित ने कहा कि तुम्हारा आधा जीवन व्यर्थ चला गया है |
तभी नदी के भँवर में नाव फंस गयी | मल्लाह ने पंडितजी को पूछा कि क्या आपको तैरना
आता है ? पंडित ने कहा-नहीं | मल्लाह ने नाव छोड़कर नदी में छलांग लगाते हुए कहा कि
तब तो आपका सम्पूर्ण जीवन ही व्यर्थ चला गया | कहने का अर्थ यह है कि केवल किताबी
ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है उसको अनुभव कर आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो जाना ही
वास्तविक ज्ञान है |
हमारे जीवन का लक्ष्य कदापि सांसारिक एवं
भौतिक सुखों की प्राप्ति नहीं होना चाहिए | हमें उन्हें पाने के विचारों को त्याग
कर, परम ज्ञान की प्राप्ति को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए | तभी हम संसार के कष्ट एवं
पीडाओं से मुक्ति पा सकेंगे | इसीलिए आदि गुरु शंकराचार्यजी के इस शिष्य ने कहा है
कि -
कामं क्रोधं लोभं मोहं,
त्यक्त्वाSत्मानं भावय कोSहम् |
आत्मज्ञान विहीनामूढा:,
ते पच्यन्ते नरकनिगुढा: ||26||
अर्थात काम, क्रोध,
लोभ, मोह को छोड़कर स्वयं में स्थित होकर विचार करो कि मैं कौन हूँ ? जो आत्म-ज्ञान
से रहित मोह में पड़े व्यक्ति हैं, वो बार-बार इस मोह-रुपी संसार के नरक में पड़ते
रहते हैं |
कल श्लोक सं.-27
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
आज गीता जयंती है |
आप सभी को इस पावन अवसर की शुभकामनायें |
|| हरिः शरणम् ||