Thursday, November 30, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-26(समापन)-

 भज गोविन्दम् – श्लोक सं.26(समापन)-
           हमें आत्म-ज्ञान क्यों नहीं हो पाता ? यह हमारे सामने मुख्य प्रश्न है | हम स्वयं के द्वारा निर्मित इस संसार के प्रति इतने अधिक मोहग्रस्त है कि हमें केवल यह संसार ही सत्य नज़र आता है, इसके अतिरिक्त कुछ भी सत्य प्रतीत नहीं होता | हम बार-बार जन्म लेते हैं, बार-बार मरते हैं, परन्तु स्व-संसार से मोह फिर भी नहीं छुटता | ऐसा नहीं है कि हम इस मोह का त्याग नहीं कर सकते | इस देश में हमारे जैसे ही दिखने वाले अनगिनत संत महात्माओं ने मोह-मुक्त होकर आत्म-ज्ञान प्राप्त किया है | सत्य बात तो यह है कि हम अपनी भौतिक दृष्टि पर ही सर्वाधिक विश्वास करते हैं | इसी कारण से जो हमें दिखाई पड़ता है, उसी को सत्य मान बैठते हैं | जरा विचार कीजिये, इस दृश्यमान संसार के पीछे स्थित उस अदृश्य शक्ति का | आप स्वयं ही समझ जायेंगे कि सत्य क्या है ? दिखाई पड़ने वाला ही सदैव सत्य नहीं होता, दिखाई देने का जो कारण है, वही वास्तव में सत्य होता है | उस अदृश्य को स्वयं के भीतर प्रवेश करके ही देखा जा सकता है, बाहर संसार में विचरण करते हुए नहीं | बाहर विचरण करने से तो आपको यह संसार ही आकर्षित करेगा क्योंकि शरीर का सुख संसार के कारण ही है | आत्मिक सुख सर्वोच्च सुख है, जिसे आनंद कहा जाता है, वह तो शरीर के विकारों को त्यागकर स्वयं के भीतर प्रवेश करने पर ही उपलब्ध हो सकता है अन्यथा नहीं |
            आत्म-ज्ञान के लिए केवल ज्ञान प्राप्त कर लेना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उस ज्ञान को जीवन में आत्मसात कर उसे विज्ञान बनाना होगा, तभी हम वास्तव में ज्ञानी हो सकेंगे | विज्ञान की पुस्तकों में लिखा है कि विद्युत का निर्माण कैसे किया जा सकता है | परन्तु विद्युत को बनाने के लिए आपको वे सभी प्रयास करने पड़ते हैं, जिससे विद्युत बन सके | विद्युत बना लेने पर ही आपको उस ज्ञान का अनुभव होगा | एक किताबी पंडित नाव से नदी पार कर रहा था | उसने मल्लाह को एक-एक कर कई पांडित्य से सम्बंधित प्रश्न पूछे | मल्लाह को किसी भी प्रश्न का उत्तर ज्ञात नहीं था | अंत में उसने मल्लाह से कहा कि तुम्हें कुछ भी ज्ञान नहीं है, ऐसे में इस संसार सागर से तैर कर पार कैसे हो सकोगे ? मल्लाह इस बार भी चुप रहा | पंडित ने कहा कि तुम्हारा आधा जीवन व्यर्थ चला गया है | तभी नदी के भँवर में नाव फंस गयी | मल्लाह ने पंडितजी को पूछा कि क्या आपको तैरना आता है ? पंडित ने कहा-नहीं | मल्लाह ने नाव छोड़कर नदी में छलांग लगाते हुए कहा कि तब तो आपका सम्पूर्ण जीवन ही व्यर्थ चला गया | कहने का अर्थ यह है कि केवल किताबी ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है उसको अनुभव कर आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो जाना ही वास्तविक ज्ञान है |
      हमारे जीवन का लक्ष्य कदापि सांसारिक एवं भौतिक सुखों की प्राप्ति नहीं होना चाहिए | हमें उन्हें पाने के विचारों को त्याग कर, परम ज्ञान की प्राप्ति को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए | तभी हम संसार के कष्ट एवं पीडाओं से मुक्ति पा सकेंगे | इसीलिए आदि गुरु शंकराचार्यजी के इस शिष्य ने कहा है कि -
कामं क्रोधं लोभं मोहं, त्यक्त्वाSत्मानं भावय कोSहम् |
आत्मज्ञान विहीनामूढा:, ते पच्यन्ते नरकनिगुढा: ||26||
अर्थात काम, क्रोध, लोभ, मोह को छोड़कर स्वयं में स्थित होकर विचार करो कि मैं कौन हूँ ? जो आत्म-ज्ञान से रहित मोह में पड़े व्यक्ति हैं, वो बार-बार इस मोह-रुपी संसार के नरक में पड़ते रहते हैं |
कल श्लोक सं.-27
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
आज गीता जयंती है | आप सभी को इस पावन अवसर की शुभकामनायें |

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, November 29, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-26(कल से आगे-7)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं-26(कल से आगे-7)-
            इस प्रकार शंकराचार्यजी महाराज के इस शिष्य द्वारा कहे गए इस श्लोक के पूर्वार्ध से हम समझ सकते हैं कि शरीर के ये चारों विकार ही मनुष्य को बंधन में डालते हैं | वे कहते हैं कि इन सभी विकारों का त्याग कर हमें स्वयं में स्थित होकर विचार करना चाहिए कि कौन हूँ ‘मैं” ? जिस शरीर को हम अपना मान बैठे हैं, वह तो ‘मैं’ हो नहीं सकता | उस शरीर को ‘मैं’ समझना तो केवल मोह-माया है | वास्तव में ‘मैं’ है इस शरीर के भीतर बैठा आत्मा, जिसे चैतन्य भी कहा जाता है | इस चैतन्य के बारे में विचार करना तभी संभव हो पाता है, जब हम इन चारों विकारों से मुक्त हो जाएँ और बाहर संसार में विचरण करना छोड़ स्वयं के भीतर प्रवेश कर लें | चारों विकारों से मुक्त होना और ‘स्व’ को पहचान लेना ही आत्म-ज्ञान है |
                अब आते हैं, इस श्लोक के उतरार्ध पर | इस श्लोक का उतरार्ध कहता है कि जो आत्म-ज्ञान से रहित है वे व्यक्ति मोह में पड़े हैं और इस मोह-रुपी संसार के नरक में पड़े रहते हैं | मनुष्य की सबसे बड़ी विडंबना ही है कि वह स्वयं के द्वारा निर्मित संसार से बाहर निकल ही नहीं पाता | ‘स्व’ को नहीं जान पाने का अर्थ ही है, अज्ञान में पड़े रहना | जो अज्ञानी है, वह सदैव नरक में ही पड़ा रहता है और नरक है, हमारा यही मोह-रुपी संसार | ‘काम’ ही इस संसार को नरक बना देता है | काम के कारण ही शेष तीन विकार, क्रोध, लोभ और मोह उत्पन्न होते हैं | हम सारे संसार पर चारों और दृष्टि डालते हैं, परन्तु स्वयं पर दृष्टि नहीं रख पाते | स्वयं पर दृष्टि स्वर्ग के दर्शन करा देती है | विभिन्न प्रकार की वासनाओं से बना कीचड़ ही इस संसार को नरक बना देता है | जहाँ दूसरे से सुख पाने की कामना है; वहां कीचड़ ही कीचड़ है, नरक ही नरक है | स्वर्ग और नरक किसी दूसरी दुनियां में नहीं है, ये दोनों इसी संसार में और हमारे आस-पास ही है | हमें दिखाई इसलिए नहीं पड़ते क्योंकि हम स्वर्ग और नरक को अपने इस संसार से अलग मानकर बैठे हैं |
             एक मृत पिता ने स्वप्न में अपने पुत्र को दर्शन दिए और कहा कि बेटे तुम भी मेरी तरह अपने संसार में कर्म करते रहो, पाप-पुण्य का विचार न करो, सही-गलत कर्म का मत सोचो | यहाँ नरक में जगह है ही नहीं, हम भी उसकी दीवार पर बैठे हैं | तुम आओगे तो दीवार पर भी स्थान नहीं मिलेगा | कहने को यह एक हास्य हो सकता है परन्तु साथ ही साथ आज के युग की यह वास्तविकता भी है कि हम यही सोचकर उचित अनुचित कर्म किये जा रहे हैं कि संसार में सभी लोग ऐसा ही तो कर रहे हैं | जैसा उनका हाल होगा वैसा ही हमारा हो जायेगा | यही अज्ञान है | हमें अज्ञान से दूर, आत्म-ज्ञान की और जाना होगा |’असतो मा सद्गमय’, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’, ‘मृत्योर्मा अमृतं गमय’ |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, November 28, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-26(कल से आगे-6)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.26(कल से आगे-6)-
             संसार में अब तक जितने भी महापुरुष हुए हैं, वे प्रायः गृहस्थ जीवन में रहते हुए ही हुए हैं | गृहस्थ जीवन में रहते हुए ‘काम’ से दूर रहना ही वास्तविक आध्यात्मिकता है | गृहस्थ जीवन में भोगों से अनासक्त हो जाने से अधिक सरल है, संसार को त्यागकर जंगल में जाकर तपस्या में लीन हो जाना | गुलाब का फूल सुन्दर और सुगन्धित अवश्य होता है फिर भी कमल के फूल को अधिक महत्त्व दिया जाता है | क्यों ? कमल का फूल ही एक मात्र ऐसा फूल है जो कीचड में भी खिल कर मुसकुराना जानता है | संसार भी ऐसा ही एक प्रकार का वासना युक्त कीचड़ है जहाँ चारों और किसी अन्य से सुख पाने की कामना का भाव (काम) फैला हुआ है | ऐसे में एक गृहस्थ अगर ‘काम-भाव’ का त्याग करता है, तो वह जंगल में बैठे एक तपस्वी से अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति हो जाता है |
               गीता में भगवान श्री कृष्ण कर्म के त्याग की बात नहीं कहते हैं बल्कि ‘काम’ के त्याग की बात करते हैं | ’काम’ का त्याग ही कर्म-योग है | ईशावास्योपनिषद का प्रथम मन्त्र भी यही कहता है ‘त्येन त्यक्तेन भुंजीथा’ अर्थात प्रारब्ध वश मिले हुए भोग को त्याग पूर्वक भोगो | एक गृहस्थ के लिए यह आदर्श मन्त्र है | त्याग पूर्वक भोगने का अर्थ है, न तो उस भोग से भागो और न ही भोग को आसक्त भाव से भोगो बल्कि भोग के प्रति जागरूक बनो | भोग को समझना ही भोग के प्रति जागरूक होना है | जो व्यक्ति भोग को भोगता है वही उस भोग को त्याग सकता है | भला बिना भोग को भोगे कोई उसका कैसा त्याग कैसे कर सकता है ? मुझमें अगर धूम्रपान का व्यसन है तभी तो मैं उस व्यसन का त्याग कर सकता हूँ | जिस व्यक्ति ने अपने जीवन में एक बार भी धूम्रपान नहीं किया, वह उसका त्याग कैसे कर सकता है ? जिसने कुछ भी नहीं भोगा, उसके द्वारा किसी प्रकार का त्याग करना संभव ही नहीं है | जो भोग के प्रति आसक्ति-भाव को त्याग देगा, केवल वही आनंद को उपलब्ध हो सकेगा | इस प्रकार अनासक्त रहकर भोग करने को ही उपनिषद् में त्याग पूर्वक भोगना कहा गया है | त्याग पूर्वक भोगना ही ‘काम’ को मारना है | एक बार भोग को भोगने के बाद मन में कभी उस भोग का विचार भी नहीं रहे, तब उसे भोग का त्याग करना कहा जाता है | इस बात को भली-भांति समझ लें कि एक गृहस्थ के रूप में रहने के लिए ‘काम’ आवश्यक नहीं है | गृहस्थ जीवन में रहते हुए अपने उत्तरदायित्व को निभाने के लिए कर्म अवश्य ही करें परन्तु अनासक्त भाव से करें | फिर आप भी अनुभव करेंगे कि अब क्रोध कहाँ चला गया, मन में लोभ क्यों पैदा नहीं हुआ ? मोह के उत्पन्न होने का तो फिर प्रश्न ही नहीं रह जाता | इतना सब कुछ करना ही अनुभव करने का विज्ञान है | केवल पढ़ कर ज्ञान प्राप्त कर लेना पर्याप्त नहीं है बल्कि उस ज्ञान का जीवन में उपयोग करना ही विज्ञान है | जीवन में ज्ञान को अनुभव कर लेना विज्ञान कहलाता है | इस अनुभव से ही ‘काम’ को मारा जा सकता है | जिस दिन आप ‘काम’ को मार डालेंगे, फिर गृहस्थ जीवन भी सरल और सहज प्रतीत होगा और साथ ही शांत भी | इसीलिए गीता में कहा गया है “त्यागा छान्तिरनन्तरम्’ अर्थात त्याग से ही शांति मिलती है और अनंत शांति को प्राप्त हुआ जा सकता है | शास्त्रों ने भी गृहस्थ के लिए ‘त्याग’ और संन्यासियों के लिए ‘तप’ को महत्वपूर्ण बताया है | गृहस्थ जीवन में ‘काम’ का ‘त्याग’ ही एक दिन ‘तप’ बन जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 

Monday, November 27, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-26(कल से आगे-5)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.26(कल से आगे-5)-
             हमारे शास्त्र इतने अधिक स्पष्ट हैं कि उनकी विश्वसनीयता पर कोई भी व्यक्ति प्रश्न चिन्ह नहीं लगा सकता | इन शास्त्रों पर अंगुली वही उठाता है जिसने इनका मर्म समझा ही नहीं है | ‘काम’ के बारे में बहुत ही गलत धारणाएं समाज और सभ्य लोगों तक में व्याप्त हो रखी है, जिसका एक मात्र कारण इन शास्त्रों में वर्णित ‘काम’ को सही रूप से समझा ही नहीं गया है | सबसे बड़ी भ्रान्ति तो यह है कि ‘काम’ को केवल स्त्री भोग से जोड़ दिया गया है | दूसरी भ्रान्ति ‘काम’ को मारने के सम्बन्ध में है कि ‘काम’ को मरने का अर्थ कर्म न करना है | मैं चाहता हूँ कि आप सर्वप्रथम ‘काम’ को समझे | ‘काम’ का अर्थ केवल स्त्री-भोग ही नहीं है बल्कि प्रत्येक वह कर्म है जिसके करने के पीछे किसी अन्य से सुख पाने की कामना मन में रहती है | वह कामना स्त्री-भोग भी हो सकती है, स्वादिष्ट भोजन पाने की भी हो सकती है, स्वयं की प्रशंसा सुनने की भी हो सकती है, धन को पाने और उससे मिलने वाले सुख और मान-सम्मान पाने की चाह भी हो सकती है आदि अनेकानेक कामनाएं हो सकती है. जिनसे हमें किसी अन्य के द्वारा उपलब्ध होने की आशा रहती है | अतः ‘काम’ का अर्थ केवल कर्म से ही नहीं है बल्कि प्रत्येक ऐसे कर्म से है जिसमें किसी दूसरे से हमें सुख मिलने की आशा रहती है |
              ‘काम’ को मारने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि सभी प्रकार के कर्म करने छोड़ दिए जाएँ | गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि इस संसार में कोई भी व्यक्ति किसी भी क्षण कर्म किये बिना रह ही नहीं सकता | यहाँ तक कि परमात्मा भी इस जगत में जन्म लेकर जब-जब आते हैं, तब-तब उन्हें भी कर्म करने पड़ते हैं | ‘काम’ को मारने का अर्थ है आसक्ति-भाव रखते हुए कर्म न करना | स्त्री से मोह न रखने का अर्थ उसको छोड़ कर कहीं दूर चले जाना नहीं है | हो सकता है कि आप उसे छोड़ दूर कहीं जंगल में चले भी जाएँ परन्तु आप उसे अपने मन से दूर नहीं कर सकते | मन से दूर न करने का अर्थ है, अभी भी आप में स्त्री के प्रति ‘काम-भाव’ है | स्त्री, धन, परिवार आदि सभी सांसारिक भोगों को भोगो परन्तु यह भोग त्याग पूर्वक होने चाहिए अर्थात उन भोगों के प्रति अनासक्त भाव होना चाहिए | अनासक्त होना अर्थात न तो भोगों में आसक्ति और न ही विरक्ति | एक आदर्श गृहस्थ के लिए अनासक्त होना बहुत आवश्यक है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Sunday, November 26, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.26(कल से आगे-4)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.26(कल से आगे-4)-
             क्या कारण रहा होगा, जो सिकंदर ने अपने गुरु की बात को सुनकर भी अनसुना कर दिया ? अगर सिकंदर स्वयं के भीतर प्रवेश कर विश्राम खोजता, स्वयं के अन्दर जाकर सुख को खोजता तो विश्राम और सुख दोनों; वहीँ उसी समय, उसी स्थान पर उसे उपलब्ध हो जाते | परन्तु नहीं, सिकंदर तो दूसरों से सुख पाना चाहता था | दूसरों को अपने अधीन कर सुखी होना चाहता था | इसीलिए उसने अपने गुरु की बात को अनसुना कर दिया और विश्व विजय के लिए चल पड़ा | यह ‘काम’ ही उसे प्रेरित कर रहा था, विश्व विजय के लिए | एक देश को जीतते ही दूसरे देश को जीतने की कामना मन में उठ जाती, यह लोभ उसको फिर नई कामना को पूरी करने के लिए प्रेरित करता | जब किसी देश को वह जीतने में असफल हो जाता तो उसे क्रोध आता और इस क्रोध के वशीभूत होकर वह और अधिक हिंसक हो उठता | इस एक ‘काम’ नामक विकार के उपस्थित होने के कारण से महान कहे जाने वाले सिकंदर जैसे व्यक्ति में भी एक-एक कर सभी विकार उत्पन्न हो गए |
         हम भी सिकंदर से किसी प्रकार भिन्न नहीं है | सिकंदर के मन में विश्व विजय के प्रति जो आसक्त-भाव था, उसी का नाम ‘काम’ है | हमारे भीतर किसी अन्य को अपने अधीन कर सुख प्राप्त करने की चाहना है, वह भी ‘काम’ है | सम्पूर्ण विश्व पर विजय और किसी एक व्यक्ति पर विजय, दोनों के प्रति आसक्त होने में कोई अंतर नहीं है | हाँ, मात्रात्मक अंतर अवश्य है परन्तु गुणात्मक अंतर बिलकुल भी नहीं है | दोनों में ही ‘काम’ प्रधान है | हम क्यों स्वयं में सुख को नहीं खोजते हैं ? दूसरों से मिलने वाला सुख अस्थाई है जबकि स्वयं से मिलने वाला सुख स्थाई होता है | किसी दूसरे से मिलने वाला सुख, कभी न कभी दुःख का कारण बनेगा ही; यह निश्चित है | स्वयं से मिलने वाला सुख कभी भी दुःख में नहीं बदलेगा, इसीलिए ऐसे सुख को आनंद कहा गया है | दूसरों से मिलने वाले सुख में विश्राम और शांति का नितांत अभाव है क्योंकि उस सुख के एक दिन तिरोहित हो जाने का भय सदैव बना रहता है | भयग्रस्त व्यक्ति कभी भी शांत रहकर विश्राम को उपलब्ध नहीं हो सकता | स्वयं के भीतर जाने से मिलने वाला सुख कभी समाप्त नहीं हो सकता अतः उसके खोने का भय भी नहीं रहता | भय न रहने से सदैव के लिए शांति और विश्राम भी उपलब्ध हो जाता है | इस प्रकार भगवान ने अर्जुन को ‘काम’ से सदैव सजग रहने को कहा है और उसे बलपूर्वक मारने का कहा है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Saturday, November 25, 2017

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.26(कल से आगे-3)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.26(कल से आगे-3)-
              श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय के इस 41 वें श्लोक में भगवान श्री कृष्ण को तो कह दिया कि सर्वप्रथम तू इस पापी काम को मार डाल परन्तु इस काम को मार डालना क्या इतना आसान है ? आसान नहीं है, भला दूसरों से सुख प्राप्त करने की कामना का कोई क्यों कर त्याग करना चाहेगा ? यह काम ही सभी झंझटों के मूल कारण है, यह हम सभी जानते हैं; फिर भी हमारे में से कोई एक व्यक्ति भी इस पापी काम को मार डालना नहीं चाहता | भगवान कहते हैं कि काम ज्ञान-विज्ञान को नष्ट कर देता है | ज्ञान अपने होने का और विज्ञान इस अपने होने को अनुभव करने का | काम इस बुद्धि पर इतना अधिक प्रभावी हो जाता है कि हमसे अपने भले-बुरे का विचार तक करना भी नहीं हो पाता | काम वे कर्म हैं जो हम दूसरे से सुख पाने की कामना मन में पाले हुए करते हैं जबकि ध्यान है स्वयं के भीतर जाकर सुख को खोजना | काम में आसक्ति भाव लिए हुए कर्म करना हैं जबकि ध्यान में आसक्ति का पूर्णतया अभाव है | यही बात सुख-दुःख और आनंद में अंतर को स्पष्ट करती है |
            सिकंदर जब विश्व-विजय की ओर अग्रसर था तब वह एशिया को जीतने के लिए अपने देश से निकल रहा था तब वह मिलने के लिए अपने गुरु के पास गया | उसके गुरु उस समय समुद्र के किनारे मिट्टी पर लेटे हुए विश्राम कर रहे थे | जब वह गुरु से आशीर्वाद ले रहा था तब गुरु ने उससे उसका उद्देश्य पूछा | सिकंदर ने बताया कि वह पहले एशिया के छोटे-छोटे देशों को जीतेगा फिर भारत को जीतेगा | इस प्रकार वह कुछ ही वर्षों में विश्व विजेता बन जायेगा | विश्व विजेता बनकर जब वह वापिस स्वदेश लौटेगा तब वह सभी कार्यों से विश्राम ले लेगा और अपने गुरु के पास रहकर आनंद सहित शेष जीवन बिताएगा | उसके गुरु ने बड़े ही शांत भाव से उसे समझाया कि जब इतना सब कुछ करके ही विश्राम पाना है तो फिर क्यों न अभी इसी समय विश्राम को पा लिया जाये | विश्राम तो इस समय और यहाँ इस समुद्र के किनारे तत्काल ही उपलब्ध है | परन्तु सिकंदर ने अपने गुरु की बात को अनसुना कर दिया | क्या कारण था कि सिकंदर ने अपने गुरु की बात भी नहीं मानी ?
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Friday, November 24, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-26(कल से आगे-2)-

भज गोविन्दम् –श्लोक सं.26(कल से आगे-2)-
             गीता में भगवान श्री कृष्ण ने स्पष्ट कर दिया है कि क्रोध का मूल काम ही है | क्रोध के बाद विकार आता है, लोभ | काम जब पूरा नहीं होता अर्थात व्यक्ति की जब कामनाएं पूरी नहीं होती तब क्रोध उत्पन्न होता है और जब उसकी कामना पूरी हो जाती है, तब लोभ पैदा होता है | लोभ का अर्थ है, जितना प्राप्त कर लिया गया है, उसमें संतुष्ट न रहकर और अधिक को प्राप्त करने की कामना करना | इसी लोभ प्रवृति के कारण ही ऐसा कहा जाता है कि कामनाओं का कभी अंत नहीं होता | जब मनुष्य की एक कामना पूरी होती है, लोभ के कारण उसमें तुरंत ही एक नई कामना का जन्म हो जाता है |
           लोभ के बाद का विकार है, मोह | काम से होते हुए व्यक्ति जब लोभ तक आ पहुंचता है, तब वह मोह नामक विकार की पकड़ में आ जाता है | मोह की यह पकड़ ही सांसारिक बंधन कहलाती है, जिससे मुक्त होने का सभी आग्रह करते हैं | मोह क्या है ? मोह नाम है अज्ञान का | काम से पैदा हुए क्रोध और लोभ मनुष्य के लिए उसके लिए एक संसार का निर्माण कर देते हैं | इस संसार के प्रति जो आसक्ति व्यक्ति के भीतर पैदा हो जाती है उसी को मोह कहते हैं | यह सब प्रथम और मुख्य विकार काम का ही परिणाम है | शरीर को ही ‘मैं’ समझ लेना ही मोह है | व्यक्ति के काम विकार से उत्पन्न हुआ उसका यह संसार झूठा है | इस झूठे संसार को ही माया कहकर संबोधित किया जाता है | इस झूठे संसार अर्थात माया के प्रति व्यक्ति की आसक्ति को ही मोह-माया कहा जाता है | मोह-माया की नींव काम है | इसीलिए भगवान श्री कृष्ण गीता में अर्जुन को कहते हैं कि तू, सबसे पहले बलपूर्वक इस पापी काम को मार डाल |
 तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ |
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ||गीता- 3/41||
अर्थात हे अर्जुन, तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, November 23, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-26(कल से आगे)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.26(कल से आगे)-
         आइये ! अब इस श्लोक के आधार पर हम अपने भीतर उपस्थित उन विकारों की थोड़ी चर्चा कर लेते हैं | इस श्लोक में कहा गया है कि हमें काम, क्रोध, लोभ और मोह का त्यागकर स्वयं में स्थित होकर विचार करना चाहिए कि कौन हूँ मैं ? ऐसा इस श्लोक के पूर्वार्ध में कहा गया है | इस श्लोक के पूर्वार्ध में मनुष्य के भीतर उपस्थित चार महत्वपूर्ण विकारों को त्यागने का आग्रह किया गया है | काम, क्रोध, लोभ और मोह; ये चार वे विकार हैं जिन्हें छोड़ पाना बड़ा ही दुष्कर है | प्रथम विकार है, काम, काम का अर्थ है, हमारी विभिन्न इच्छाएं | क्या इच्छा है हमारी ? हमारी इच्छा एक ही है कि किस प्रकार हमें दूसरों से सुख मिले | व्यक्ति सुख को सदैव अपने से बाहर खोजता है, अपने भीतर नहीं | स्वयं के कारण मिलने वाले सुख की उसमें कभी इच्छा पैदा ही नहीं होती और न ही कभी हो सकती है | इसका कारण है कि स्वयं से सुख तो कभी भी प्राप्त किया जा सकता है | इसलिए व्यक्ति सदैव स्वयं के बाहर ही सुख खोजता है जबकि वास्तविक सुख (आनंद) उसे अपने से ही मिलना है |
              हम प्रायः काम को स्त्री-भोग से सम्बंधित मान लेते हैं परन्तु काम हमारी कामनाओं से सम्बन्ध रखता है जिसमें स्त्री-भोग भी सम्मिलित है | हाँ, यह एक कटु सत्य भी है कि हमारे भीतर उठने वाली समस्त कामनाओं का कारण भी मुख्य रूप से स्त्री-भोग ही है | न तो हम स्त्री का सानिध्य लेते और न ही आसक्ति में पड़कर कामनाओं को पैदा होने देते | काम ही अन्य सभी विकारों का जनक भी है | काम के बाद प्रमुख विकार है, क्रोध | क्रोध भी काम के कारण ही पैदा होता है | जब कामनाओं को हम पूरा नहीं कर पाते तब हमें क्रोध आता है | गीता में भगवान श्री कृष्ण काम को ही सब विकारों का जनक कहते हुए व्यक्ति के पतन का जिम्मेदार मानते है | इसीलिए वे अर्जुन को कहते हैं कि तू सबसे पहले इस काम को मार डाल |
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः |
महासनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् || गीता-3/37 ||
अर्थात रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है | यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी भी तृप्त न होने वाला और बड़ा पापी है | इसको ही तू इस विषय में वैरी जान |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, November 22, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-26

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-26-
कामं क्रोधं लोभं मोहं, त्यक्त्वाSत्मानं भावय कोSहम् |
आत्मज्ञान विहीना मूढा:, ते पच्यन्ते नरकनिगुढा: ||26||
अर्थात काम, क्रोध, लोभ, मोह को छोड़कर स्वयं में स्थित होकर विचार करो कि मैं कौन हूँ ? जो आत्म-ज्ञान से रहित मोह में पड़े व्यक्ति हैं, वो बार-बार इस मोह-रुपी संसार के नरक में पड़ते रहते हैं |
               मेरी दृष्टि में यह श्लोक भज गोविन्दम् का सर्वाधिक महत्वपूर्ण श्लोक है | आदि गुरु शंकराचार्यजी महाराज और उनके शिष्यों की एक बहुत बड़ी विशेषता है, वे व्यक्ति के मर्म-स्थल पर चोट करते हैं | भज गोविन्दम् कृति में उन्होंने कर्म-कांडों की आलोचना करते हुए वास्तविक भक्ति को उनसे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण बताया है | साथ ही साथ वे मनुष्य के सांसारिक बंधनों पर सटीक चोट करते हुए उन्हें भी तोड़ने का आग्रह करते है | उन्होंने इन बंधनों को तोड़ने का न केवल आग्रह ही किया है बल्कि उन बंधनों को काट डालने के उपाय तक बताये हैं | इस श्लोक में सांसारिक बंधन को स्पष्ट करते हैं और कहते हैं कि मनुष्य स्वयं ही इन बंधनों में बंधकर नरक जैसी स्थिति को प्राप्त हुआ है | यह सब उसका अज्ञान है | अज्ञान से ज्ञान की और जाने से ही यह सब बंधन कटेंगे, नहीं तो वह सदैव नरक में ही पड़ा रहेगा |
             सांसारिक बंधन पैदा होते हैं, सांसारिक विकारों से | मनुष्य को सदैव संसार अपनी ओर आकर्षित करता है | संसार का आकर्षण संसार की प्रकृति है | हमारी गलती है कि हम इस संसार के आकर्षण में जानबूझकर फंस जाते हैं | हम क्यों संसार के आकर्षण के शिकार हो जाते हैं ? इसका कारण हमारे स्वयं के भीतर ही है, और वह है हमारे विकार | जिसे हम हमारे विकार कहते हैं, वे ही संसार के आकर्षण का कारण बनते हैं | अगर हम अपने विकारों से ऊपर उठ जाएँ तो संसार हमें आकर्षित कर ही नहीं सकता |
           हम अपने भीतर उन विकारों का त्याग क्यों नहीं कर सकते ? ये विकार हमें शारीरिक सुख देने का आधार है | हम स्वयं को शरीर मान लेते हैं, तब हमें ये शारीरिक सुख अच्छे लगते हैं | शारीरिक सुख और सांसारिक सुख, दोनों एक ही हैं | हम शरीर न होकर आत्मा है, इस बात को स्वीकार न कर पाने से ही हमें सांसारिक सुख अच्छा प्रतीत होता है | यही हमारा अज्ञान है | जब हमें शास्त्रों के पठन और गुरु के सानिध्य से आत्म-ज्ञान हो जाता है, तब हम समझ पाते हैं कि हम शरीर न होकर आत्मा हैं | तभी वास्तविकता से हमारा सामना होता है और हम पाते हैं कि सांसारिक सुख क्षणिक और असत्य है जबकि आत्मिक सुख सत्य और आनंदित करने वाला है | सांसारिक सुख अस्थाई है जबकि आत्मिक सुख स्थाई |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, November 21, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-25(समापन)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.25(समापन)-
        हमें न ही किसी से अत्यधिक प्रेम(मोह) करना चाहिए और न ही घृणा | सभी प्राणियों में ईश्वर का वास है | हमें सबको एक ही दृष्टि से देखना चाहिए और उनका आदर करना चाहिए क्योंकि तभी हम परमात्मा का आदर कर पाएंगे | इस संसार के प्रत्येक प्राणी में ईश्वर का वास है | यह सत्य बात स्वीकार कर सभी हमारी ही तरह है | स्वयं में और किसी अन्य में भेद दृष्टि न रखें | जैसे आप हैं, वैसे ही संसार के सभी प्राणी हैं | यह दृष्टि हमें समता की और ले जाती है | समता न तो मोह में डालती है और न ही किसी के प्रति घृणा पैदा होने देती है |
             जब भेद दृष्टि होती है तभी मोह और घृणा के पैदा होने की सम्भावना रहती है | मोह-घृणा, राग-द्वेष सभी विकार अज्ञान की देन है | हमें अज्ञान त्यागकर ज्ञान को उपलब्ध होना है | संसार में जितने भी विकार हैं सबका कारण अज्ञान है | ज्ञान जब हमें उपलब्ध हो जाता है, तब सांसारिक विकार स्वतः ही दूर हो जाते हैं | हमारी सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि स्वयं को दूसरे से भिन्न मानते हैं | गीता में भगवान कहते हैं कि-
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि |
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः || गीता-5/18 ||
अर्थात ज्ञानीजन विद्या और विनय युक्त ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चांडाल में भी समदर्शी होते हैं |
             जब संसार में ब्राह्मण, हाथी, गाय, कुत्ते और चांडाल में कोई भेद नहीं है तो हमें यह भेद दिखाई क्यों देता है ? यह भेद हमें इसलिए दिखाई पड़ता है क्योंकि हम उन्हें आत्मिक स्तर पर अपने समान नहीं समझते हैं | आत्मिक स्तर पर हम सब एक समान हैं | हाँ, व्यवहार की दृष्टि से कुछ भेद होना स्वाभाविक है परन्तु हम व्यवहार के स्तर पर रखे जाने वाले भेद को आत्मिक स्तर का भेद मान लेते हैं; जो कि अनुचित है | व्यवहार सबके साथ समान नहीं हो सकता परन्तु आत्मिक स्तर पर किसी शत्रु, मित्र आदि में अंतर नहीं समझना चाहिए | जब हम सबको आत्मिक स्तर पर एक समान समझेंगे तो फिर न तो किसी के प्रति हम मोहग्रस्त होंगे और न ही किसी से घृणा कर सकेंगे | इसीलिए शंकराचार्यजी महाराज का यह शिष्य कह रहा है कि-
शत्रौमित्रेपुत्रेबन्धौ, मा कुरु यत्नंविग्रहसन्धौ |
सर्वस्मिन्नपिपश्यात्मानंसर्वत्रोत्सृजभेदाज्ञानम् ||25||
अर्थात शत्रु, मित्र, पुत्र, बंधु-बांधवों से प्रेम और द्वेष मत करो | सब में अपने आप को हो देखो | इस प्रकार सर्वत्र भेद रुपी अज्ञान को त्याग दो |
“|| भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ||”
कल श्लोक सं.-26
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Monday, November 20, 2017

भज गोविन्दम् -श्लोक सं.-25

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-25-
शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ, मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ |
सर्वस्मिन्न पिपश्यात्मानं सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ||25||
अर्थात शत्रु, मित्र, पुत्र, बंधु-बांधवों से प्रेम और द्वेष मत करो | सब में अपने आप को हो देखो | इस प्रकार सर्वत्र भेद रुपी अज्ञान को त्याग दो |
               आदि गुरु शंकराचार्यजी महाराज के जिस शिष्य ने भज गोविन्दम् का 24 वें श्लोक में जो कुछ कहा है, उसी कथन को आगे बढ़ाते हुए एक और शिष्य कहता है कि जब आप सर्वत्र सामान चित्त वाले हो जाओगे तो फिर आप प्रत्येक शत्रु, मित्र, पुत्र और बंधु से प्रेम करने लगोगे | समता भाव पैदा करने के लिए यह आवश्यक है कि हम संसार के प्रत्येक प्राणी से प्रेम भाव रखें | यहाँ प्रश्न यह पैदा होता है कि पुत्र, बंधु और मित्र से तो प्रेम भाव रखा जा सकता है परन्तु एक शत्रु से प्रेम कैसे किया जाये | शत्रु का कभी भी अहित न सोचें, केवल इतना कर लेने मात्र से ही आपका चित्त समता में रह सकता है | शत्रु से आपका व्यक्तिगत और सांसारिक मतभेद हो सकता है परन्तु आखिर परमात्मा उसमें भी निवास कर रहे हैं | भला, आप जब विष्णु पद को पाने की और अग्रसर हैं तो आपको अपने शत्रु में भी विष्णु नज़र आने चाहिए | जब आप अपने शत्रु में भी परमात्मा को देखने लगोगे तो आप अपने शत्रु का अहित सोच भी नहीं सकते, अहित करना तो बहुत दूर की बात होगी | अंततः शत्रु को भी क्षमा किया जा सकता है |
              इसी प्रकार किसी मित्र, पुत्र और बन्धु के प्रति मोह की सीमा तक प्रेम भी न करो | यहाँ प्रेम न करने का अर्थ यह नहीं है कि किसी से भी प्रेम न करो | प्रेम और मोह में बड़ा अंतर है | मोह जब प्रेम का स्थान ले लेता है, तब वह अनुचित है | प्रेम ज्ञान से उत्पन्न होता है और मोह अज्ञान का ही एक रूप है | हम पुत्र, मित्रादि से मोह रखते हैं और उसे प्रेम का नाम दे देते हैं | प्रेम कभी भी प्रतिदान नहीं चाहता | क्या हम अपने पुत्र और मित्र से उस प्रेम के बदले प्रतिदान नहीं चाहते ?  अगर हम प्रतिदान नहीं चाहते तो वह वास्तव में प्रेम है | अगर हम उस प्रेम के बदले प्रतिदान की आकांक्षा रखते हैं तो हम मोह को ही प्रेम का नाम दे रहे हैं | यह बात सदैव ध्यान में रखें कि न तो किसी में अत्यधिक मोह रखो और न ही किसी से घृणा करो |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Sunday, November 19, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-24(समापन)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.24(समापन)-
         संसार के कण-कण में परमात्मा का वास है | कोई भी प्राणी ईश्वर की कृपा से अछूता नहीं है | यह मान लेना सत्य को स्वीकार कर लेना है | जब इस ब्रह्माण्ड के प्रत्येक कण में परमात्मा का वास है इसका अर्थ है कि हमारे भीतर भी परमात्मा ही निवास कर रहे हैं | गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशय स्थितः |
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च || गीता-10/20 ||
अर्थात हे अर्जुन ! मैं सब प्राणियों में स्थित सबका आत्मा हूँ तथा सभी भूतों का आदि, मध्य और अंत भी मैं ही हूँ |
         सभी प्राणियों के भीतर परमात्मा आत्मा के रूप में निवास करते हैं | परमात्मा का अंश आत्मा है और उसी के कारण ही यह भौतिक शरीर सक्रिय रहता है | जिस दिन इस शरीर को आत्मा छोड़कर चली जाएगी, यह शरीर मृत होकर किसी काम का नहीं रहेगा | स्वयं के भीतर उपस्थित परमात्मा की उपस्थिति को पहचान लेना ही विष्णु पद को प्राप्त कर लेना है | यही आत्म-बोध भी है और यही परम-ज्ञान है | जिस दिन हमें यह ज्ञान उपलब्ध हो जायेगा, हमारा चित्त भी इधर उधर भटकना छोड़ देगा और व्यक्ति स्थितप्रज्ञ हो जायेगा | स्थितप्रज्ञ पुरुष ही समान चित्त वाला होता है और सभी प्राणियों को समान भाव से देखता है | जब चित्त सर्वत्र समान भाव वाला हो जाता है तो व्यक्ति के जीवन में सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि का कोई स्थान नहीं रहता और न ही वह विषम स्थिति में विचलित होता है और न ही किसी प्रकार के मान-सम्मान की चाहना रखता है | इसीलिए शंकराचार्यजी का यह शिष्य कह रहा है कि अगर अपने भीतर बैठे विष्णु को प्राप्त करना चाहते हो तो सर्वत्र समान चित्त वाले हो जाओ |
त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णु:, व्यर्थ कुप्यसि सर्वसहिष्णु: |
भव समचित्तः सर्वत्र त्वं, वाछंसिअचिराद्यदि विष्णुत्वम् ||24||
अर्थात तुममें, मुझमें और अन्यत्र सब जगह एक विष्णु ही है | तुम व्यर्थ ही क्रोध करते हो | यदि तुम शाश्वत विष्णु-पद को प्राप्त करना चाहते हो तो सर्वत्र समान चित्त वाले हो जाओ |
“|| भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ||”
कल श्लोक सं.-25
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Saturday, November 18, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-24

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-24-
त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णु:, व्यर्थ कुप्यसि सर्वसहिष्णु: |
भव समचित्तः सर्वत्र त्वं, वाछंसिअचिराद्यदि विष्णुत्वम् ||24||
अर्थात तुममें, मुझमें और अन्यत्र सब जगह एक विष्णु ही है | तुम व्यर्थ ही क्रोध करते हो | यदि तुम शाश्वत विष्णु-पद को प्राप्त करना चाहते हो तो सर्वत्र समान चित्त वाले हो जाओ |
       संसार में जितने भी जड़ व चेतन दृष्टिगत है अथवा दिखाई नहीं पड़ रहे हैं, सब में एक परमात्मा ही उपस्थित है | यह कथन केवल कथन नहीं है बल्कि एक सार्वभौमिक सत्य है | कई बार हम किसी भी कथन को शास्त्रों तक और पढ़ने सुनाने तक ही सीमित कर देते हैं, उस कथन पर विश्वास कतई नहीं करते | आज के वैज्ञानिक युग में ऐसा होना आम बात है | सनातन दर्शन कोई मामूली दर्शन नहीं है, जो आधारहीन बात करता हो | सनातन धर्म में प्रत्येक बात तथ्यपरक ढंग से कही गयी है और कोई भी कारण नहीं बनता कि उन बातों पर अविश्वास किया जा सके | परमात्मा की स्फुरणा से ही इस ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ है और इसके निर्माण के पहले केवल एक परमात्मा ही था | जो ब्रह्माण्ड के निर्माण से पूर्व था, वही इस ब्रह्माण्ड में स्थित होगा ही और भविष्य में ब्रह्माण्ड की प्रलय के बाद भी वही एक परमात्मा ही रहेगा |
            भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं-
                 यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति |
                 तस्याहं न प्रणश्यामि स च में न प्रणश्यति || गीता-6/30||
अर्थात जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और प्रत्येक में मुझे देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता |
            कहने का अर्थ यह है कि इस समस्त संसार में एक वासुदेव के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | जब वह प्रत्येक स्थान पर है, तो फिर किसी कारण से हम किसी पार क्रोध करते भी हैं, तो फिर वह क्रोध करना व्यर्थ है | कौन तो क्रोध करने वाला है और किस पर क्रोध किया जा रहा है | सभी में वह विष्णु ही है, क्रोध करने वाले में भी और उसमें भी जिस पर क्रोध किया जा रहा है | ऐसे में कोई भला स्वयं पर क्रोध कैसे और क्यों कर सकता है ?
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Friday, November 17, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-23

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-23-
कस्त्वंकोSहं कुत आयातः, का में जननी को में तातः |
इति परिभावय सर्वमसारम् विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम् ||23||
अर्थात तुम कौन हो, मैं कौन हूँ, हम कहाँ से आये हैं, मेरी मां कौन है, मेरा पिता कौन है ? सब प्रकार से समझकर इस संसार को असार समझकर एक स्वप्न के समान त्याग दो |
        शंकराचार्यजी महाराज के द्वारा जो बात 8 वें श्लोक में कही गयी है, उन्हीं का एक शिष्य उसी बात को पुनः दोहराता है | हम कौन हैं और कहाँ से आये हैं ? इस भौतिक शरीर को उत्पन्न करने वाले माता-पिता ही क्या हमारे वास्तविक माता पिता हैं ? इस बात पर कभी विचार करते भी तो नहीं हैं | जब विचार करेंगे तो पाएंगे कि हमारे शरीर का, हमारे माता-पिता आदि सम्बन्धियों का अस्तित्व भी एक स्वप्न से अधिक नहीं है | हम प्रत्येक रात्रि को सपने देखते हैं | क्या उस सपने में देखे हुए घटनाक्रम पर विचार कर हम सुखी-दुःखी होते हैं ? नहीं, हमारे ऊपर ऐसे देखे गए सपनों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है | फिर इस परिवर्तनशील संसार की विभिन्न घटनाओं का प्रभाव हमारे ऊपर क्यों पड़ता है ?
                इसका एक ही मुख्य कारण है, हम संसार में सदैव आसक्त रहते हैं परन्तु सपनों में नहीं | जिस दिन हम संसार को भी सपने जितना ही महत्त्व देने लगेंगे अर्थात संसार में भी सपने की तरह आसक्ति नहीं होगी, तत्काल ही हम मुक्त हो जायेंगे | हम संसार से प्रभावित उसमें अपनी आसक्ति के कारण होते है अन्यथा हमें संसार की कोई ताकत प्रभावित नहीं कर सकती | हम शरीर नहीं, बल्कि आत्मा है और एक परमात्मा ही हमारे माता-पिता हैं ऐसा मान लेना ही सत्य को स्वीकार कर लेना है | हम कौन हैं ? हम कहाँ से आये हैं ? हमारा इस संसार में क्या है ? ऐसी बातों पर चिंता कर के हमें अपना समय व्यर्थ नहीं करना चाहिए | यह संसार एक स्वप्न की तरह ही झूठा और क्षण भंगुर है | यह शिष्य शंकराचार्यजी महाराज की इसी बात को पुनः याद दिला रहा है कि-
कस्त्वंकोSहं कुत आयातः, का में जननी को में तातः |
इति परिभावय सर्वमसारम् विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम् ||23||
अर्थात तुम कौन हो, मैं कौन हूँ, हम कहाँ से आये हैं, मेरी मां कौन है, मेरा पिता कौन है ? सब प्रकार से समझकर इस संसार को असार समझकर एक स्वप्न के समान त्याग दो |
“|| भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ||”
कल श्लोक सं.-24
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, November 16, 2017

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-22(समापन)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-22(समापन)-
         यह श्लोक स्पष्ट करता है कि हमें पाप-पुण्य का विचार नहीं करना है बल्कि इनसे मुक्त होकर निरंतर परमात्मा के चिंतन में लग जाना चाहिए | कहने का अर्थ है कि अपने स्तर पर कर्म शास्त्र सम्मत करते रहें, प्रत्येक कर्म से मिलने वाले फल अर्थात पाप-पुण्य को कर्म करने का आधार न बनायें | जो भी स्वाभाविक कर्म हो रहे हैं, उनको साक्षी भाव से होते हुए करना है | साक्षी-भाव तभी उत्पन्न होगा जब हम अपनी इन्द्रियों के वशीभूत नहीं रहेंगे | हम सदैव सांसारिक बंधन में बंधे हुए पाप-पुण्य का विचार कर सकाम कर्मों को ही करने में लगे रहते हैं | ऐसे में हमें सुख-दुःख के चक्र से गुजरना पड़ता है | हमें अपनी इन्द्रियों को वश में कर स्थितप्रज्ञ होना पड़ेगा तभी इन सांसारिक बंधनों से मुक्त हो सकेंगे |
                 संसार का आश्रय हमें भय-युक्त रखता है जबकि परमात्मा का आश्रय हमें भय-मुक्त करता है | भय मुक्त रहना ही एक योगी की पहचान है | हमें योगी होना होगा | जब चित्त को केवल एक परमात्मा में लगा देंगे तभी निडर हुआ जा सकता है, तभी योगी हुआ जा सकता है और तभी आनंद को प्राप्त हुआ जा सकता है | परमात्मा में चित्त लगाने का एक ही रास्ता है, सदैव गोविन्द को भजो | एक परमात्मा की भक्ति ही हमें आनंद उपलब्ध करवा सकती है | केवल और केवल एक परमात्मा की भक्ति करना ही अनन्य भक्ति कहलाती है | संसार के भय से मुक्ति केवल ऐसी अनन्य भक्ति ही दिला सकती है | 
       जो योगी सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर अपनी इन्द्रियों को वश में करने में सक्षम हो जाता है, उसे किसी बात का डर नहीं रहता और वह निडर होकर, एक चंचल बालक के समान, अपना जीवन व्यतीत करता है | यही शंकराचार्यजी महाराज के शिष्य का कहना है |
रथ्याचर्पट-विरचित-कन्थः, पुण्यापुण्य-विवर्जित-पन्थः |
योगी योग नियोजित चित्तः, रमते बालोन्मत्त्वदेव ||22||
 अर्थात रथ के नीचे आने से फटे हुए पकडे पहनने वाले, पाप-पुण्य से मुक्त राह पर चलने वाले, योग में चित्त को लगाने वाले योगी बालक के सामान सदैव आनंद में रहते हैं |
“|| भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ||”
कल श्लोक सं.-23
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल ||

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, November 15, 2017

भज गोविन्दम् - श्लोक सं.-22

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-22-
रथ्याचर्पट-विरचित-कन्थः, पुण्यापुण्य-विवर्जित-पन्थः |
योगी योग नियोजित चित्तः, रमते बालोन्मत्त्वदेव ||22||
अर्थात रथ के नीचे आने से फटे हुए पकडे पहनने वाले, पाप-पुण्य से मुक्त राह पर चलने वाले, योग में चित्त को लगाने वाले योगी बालक के सामान सदैव आनंद में रहते हैं |
              इस श्लोक में शंकराचार्यजी का एक शिष्य यह कहना चाहता है कि संसार की विषमता भरी परिस्थितियों से तनिक भी प्रभावित नहीं होने वाला मनुष्य ही आनंद को उपलब्ध हो सकता है | संसार के रथ का चक्र इस प्रकार चलता है कि अनेकों प्राणी इसके नीचे आकर पिसते रहते हैं, जिसके कारण उसका शरीर जीर्ण-शीर्ण हो जाता है | यह सब आपके पूर्व मानव जन्म में किये गए कर्मों के भोग मात्र हैं | उन्हें भोगना ही आपकी नियति है | उन भोगों से बचकर आप कहीं जा नहीं सकते | इनसे बचने के लिए कितने ही दूर भागो, फिर भी ये आपके वे कर्म आपका पीछा नहीं छोड़ने वाले | कर्म आपके द्वारा ही किये गए हैं और उन कर्मों के फल को भी आपको ही भोगना होगा | जो भी कर्म किये जाते हैं, वे कभी नष्ट नहीं हो सकते | जब कर्मों को आप नष्ट नहीं कर सकते, तो फिर उनको क्यों न बिना विचलित हुए भोगा जाये |
       मनुष्य कर्म करता है, पाप और पुण्य को ध्यान में रखकर | देखा जाये तो पाप-पुण्य का निर्धारण हम स्वयं कर ही नहीं सकते | जो कर्म आप पुण्य को ध्यान में रखकर कर रहे हैं, हो सकता है वे पाप-कर्म बन जाये क्योंकि आपके द्वारा किये जाने वाले कर्म केवल किसी एक आधार से ही पाप-पुण्य निश्चित नहीं हो सकते | राजा प्रतापभानु ने पुण्य-कर्म मानकर द्विजों को भोजन के लिए आमंत्रित किया था ? परन्तु उसका परिणाम पाप-कर्म के रूप में उसे मिला | कहने का अर्थ यह है कि आपका कर्म चाहे पुण्य के लिए हुए हों, परन्तु किसी दूसरे व्यक्ति के कर्म भी आपके इन कर्मों को प्रभावित कर पाप-कर्म में परिवर्तित कर सकते हैं | इसीलिए गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है –‘गहना कर्मणो गतिः’ अर्थात कर्मों की गति बड़ी गहन है | गीता इस बात को स्पष्ट करती है और कहती है कि आपका अधिकार केवल कर्म करने का है, उसके परिणाम पर आपका कोई अधिकार नहीं है | अतः हमें केवल कर्म करते रहना है, उन कर्मों से मिलने वाले पाप-पुण्य का मन में ध्यान नहीं रखना है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ’ प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, November 14, 2017

भज गोविन्दम्य - श्लोक सं.-21(समापन)-

भज गोविन्दम् – श्लोक सं.-21(समापन)-
             शंकराचार्यजी महाराज के शिष्य का इस श्लोक के माध्यम से यही कहना है कि यह बार-बार मरना, बार-बार माता के गर्भ में पड़ना, विभिन्न प्रकार के शरीर धारण करना और उन्हें त्यागना, इनसे कैसे पार हुआ जा सकता है ? यह संसार चक्र है, उसे ही संसार सागर कहा गया है | इस संसार सागर से पार जाने का कौन सा मार्ग है ? बार-बार जन्म लेना और बार-बार का मरना, इस प्रक्रिया से यह जीवात्मा तंग आ चुकी है | हे मुरारी ! मुझे इस संसार सागर से बाहर होने का रास्ता दिखा | संसार सागर को पार करने का सरल रास्ता केवल और केवल एक ही है | गोविन्द की भक्ति |
          गोविन्द को भजने का अर्थ है, इस शरीर से जो भी कर्म करें, उसे परमात्मा के लिए कर्म करना मानें | प्रत्येक प्राणी के ह्रदय में परमात्मा निवास करते हैं, उन्हें किसी भी प्रकार का दुःख नहीं पहुंचाएं | ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदासजी महाराज कहते थे कि ‘यह मनुष्य शरीर संसार की सेवा करने के लिए मिला है | संसार की सेवा करें और संसार से पिंड छुडाएं |’ संसार की सेवा तभी हो सकती है, जब आप संसार का आश्रय न लेकर परमात्मा का आश्रय लें | एक परमात्मा का आश्रय ही आपको संसार के दुखों से मुक्ति दिला सकता है | संसार के दुखों से मुक्ति पा जाना ही संसार सागर के पार चले जाना है | परमात्मा का आश्रय ले गोविन्द को भजो और उससे प्रार्थना करो |
         ‘हे परम पूज्य परमात्मा ! मुझे अपनी शरण में ले लो | मैं इस जन्म और मृत्यु के चक्कर से मुक्ति पाना चाहता हूँ | मुझे इस संसार रुपी विशाल समुद्र को पार करने की शक्ति दो, ईश्वर |’
       इसीलिए भज गोविन्दम्  में शंकराचार्य महाराज का शिष्य कह रहा है कि -
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम् |
इह संसारे बहु दुस्तारे, कृपया पारे पाहि मुरारे ||21||
अर्थात बार-बार जन्मना, बार-बार मरना बार-बार मां के गर्भ में शयन, इस संसार से पार जाना बहुत ही कठिन है | हे कृष्ण ! हे मुरारी !! मुझे इस आवागमन से मुक्त कर दे |
 भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ||”
कल श्लोक सं.-22
प्रस्तुति – डॉ’ प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||