Sunday, January 1, 2017

गुण-कर्म विज्ञान-1

गुण-कर्म विज्ञान-1          
            ‘न करोति न लिप्यते’ श्रृंखला में गुण और कर्म के आधार पर यह स्पष्ट किया गया था कि प्रकृति के गुणों से ही समस्त कर्म होते हैं | प्रकृति के कारण ही इस भौतिक देह का निर्माण होता है अतः सभी कर्म भी केवल इस शरीर से ही किए जा सकते हैं, आत्मा का कर्म के करने अथवा होने से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है | प्रश्न यह पैदा होता है कि प्रकृति के गुण किस प्रकार से इस शरीर में रह कर विभिन्न प्रकार के कर्म करते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर हमारे शास्त्रों में तो हैं ही, परन्तु इसको जानने की जिज्ञासा जहाँ से आई है, वहां शास्त्रों के आधार पर समझाना थोडा मुश्किल नज़र आ रहा है | आधुनिक युग के विज्ञान का हमारे मन-मस्तिष्क पर इतना गहरा प्रभाव है कि शास्त्रों को स्वीकार करने का अर्थ ही पिछड़ापन से लिया जाने लगा है | मुझे इसका भी कोई रंज नहीं है कि सनातन शास्त्रों को जानने वालों को पिछड़ा बताया जा रहा है, रंज तो इस बात का है कि शास्त्रों को बिना पढ़े ही इनका अवमूल्यन किया जा रहा है | शास्त्रों के इस अवमूल्यन में जितना योगदान हम स्वयं दे रहे हैं, उतना किसी अन्य सम्प्रदाय के धर्मावलम्बी नहीं | इसलिए मेरे मस्तिष्क में एक विचार आया कि प्रकृति के गुणों से होने वाले कर्मों को विज्ञान और शास्त्र दोनों की पृष्ठभूमि में स्पष्ट किया जाये | इस प्रकार स्पष्ट करने से ही इन शास्त्रों की महानता कथित बुद्धिजीवियों के समझ में आ सकती है अन्यथा नहीं | हो सकता है कि सब कुछ स्पष्ट हो जाने पर भी उनका कथन यही हो कि विज्ञान के इतना सब कुछ खोज लिए जाने के बाद में हम दावा कर रहे हैं कि हमारे शास्त्रों में यह सब पहले से ही वर्णित है |

                समस्या दावे और प्रतिदावे की नहीं है, समस्या यह है कि अथाह ज्ञान के भण्डार से हमारी युवा पीढ़ी को विमुख किया जा रहा है | हमारे ऋषियों को आज के वैज्ञानिकों की तरह किसी प्रकार के नाम होने अर्थात स्वयं को प्रसिद्ध करने की भूख नहीं थी | उनका एक ही उद्देश्य होता था “सर्वे भवन्तु सुखिनः” | उनके द्वारा खोज कर संकलित किये सभी शास्त्र आज भी विज्ञान और वैज्ञानिकों के लिए मार्गदर्शक की भूमिका बखूबी निभा रहे हैं | जितनी भी संसार में आधुनिक विज्ञान में आज तक खोज हुई है, सभी का आधार प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से हमारे धर्म-शास्त्र ही रहे हैं | समय-समय पर वैज्ञानिकों ने इस यथार्थ को खुले मंच से अथवा दबी जबान से स्वीकार किया है | हम इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, इसका एक मात्र कारण हमारे ऊपर निरंतर हावी होता जा रहा पाश्चात्य प्रभाव है | जिस दिन हम अपनी सभ्यता और संस्कृति को पहचान लेंगे, हमारा देश पुनः विज्ञान के क्षेत्र में संसार का सिरमौर बन जायेगा |
क्रमशः 
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल 
|| हरिः शरणम् ||

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