गुण-कर्म विज्ञान –
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पदार्थ के गुणों के आपसी व्यवहार
से कर्म तो स्वतः ही होते हैं परन्तु मन एक उत्प्रेरक (Catalyst) की भूमिका निभाता है | मन ही अपनी कामनानुसार इन्द्रियों
के माध्यम से उन गुणों को स्वयं में परिवर्तन करने को बाध्य करते हुए कर्मों को
संपन्न करवाता है | कर्म तो आखिर प्रकृति के गुणों के कारण ही संभव होने हैं परन्तु
मन (Mind) और इन्द्रियां (Senses) उनको
स्वयं में परिवर्तन करने को बाध्य कर देती है | प्राकृतिक गुणों (Natural characteristics) में यह परिवर्तन (Change) केवल
मनुष्य के शरीर के द्वारा ही होने संभव है, अन्य प्राणियों के शरीर के द्वारा नहीं
| यही कारण है कि जन्म के समय अगर कोई पशु सरल और सीधा स्वभाव का है तो प्रायः वह
अपने उस जीवन काल में सदैव वैसा ही बना रहेगा परन्तु इसके विपरीत मनुष्य का स्वभाव
चाहे जब बदल सकता है | सीधे-सादे और साधारण स्वभाव वाला व्यक्ति थोड़े वर्षों बाद झगडालू
स्वभाव का भी बन सकता है और अत्यंत क्रोधी और अत्याचारी व्यक्ति भी सीधा-सादा हो
सकता है | डाकू अंगुलिमाल और रत्नाकर इसके उदाहरण हैं | अंगुलिमाल डाकू से
परिवर्तित होकर महान बौध-भिक्षु बन गए थे और डाकू रत्नाकर, महर्षि वाल्मीकि के रूप
में जग प्रसिद्ध हैं | इसलिए कहा जा सकता है कि हमारे मन से गुण प्रभावित होते है
जिस के कारण व्यक्ति का स्वभाव तक बदल सकता है |
इस संसार में विभिन्न प्रकार
के पदार्थ हैं और मनुष्य उनका उपयोग कर सुख-दुःख का अनुभव करता है | किसी भी भौतिक
पदार्थ का चैतन्य पदार्थ तभी उपयोग कर सकता है, जब उसके स्वयं के गुणों और उस
भौतिक पदार्थ के गुणों के बीच एक सामंजस्य चिह्नित
(Marked harmony) हो अन्यथा ऐसा होना किसी भी प्रकार की परिस्थितियों
में संभव नहीं है | यह सामंजस्य (Harmony) पूर्व
जन्म के कर्मों से ही चिह्नित होता है, जिसे हम भाग्य अथवा प्रारब्ध (Destiny) कहते हैं | हमें आभास होता है कि वर्तमान में
हमारे द्वारा किये जाने वाले कर्म हमें यह पदार्थ उपलब्ध करवा रहे हैं, परन्तु यह
सत्य नहीं है | इस जीवन के कर्म ही नए जीवन का भविष्य का निर्माण करते हैं | तुलसी
बाबा कहते हैं –
“सकल पदारथ है जग माहीं | कर्महीन नर पावत नाहीं
||”
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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