Friday, January 27, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 23

गुण-कर्म विज्ञान – 23
               गीता के उपरोक्त श्लोक (13/5) के अनुसार केवल 23 तत्व की शरीर में उपस्थिति भी उस अचेतन शरीर को चेतन करने के लिए अपर्याप्त हैं जब तक की उस अचेतन में अव्यक्त मूल प्रकृति का प्रवेश नहीं हो जाये | जो कुछ भी हमें व्यक्त रूप से दिखाई पड़ता है, उसी का नाम माया है | सभी पदार्थ इस माया के अंतर्गत आ जाते हैं | इस माया को जो देखता है, वह दृष्टा ही चेतन तत्व है | इस दृष्टा को ही अव्यक्त मूल प्रकृति कहा जाता है | माया को केवल मात्र दृष्टा बन कर ही देखना चाहिए, स्वयं को माया मान लेना ही अनुचित है | आप केवल माया में सतत हो रही क्रियाओं का आनंद लें, उन क्रियाओं के साथ संलग्न होकर उन्हें अपना कर्म न बनायें |
              इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि चित्त के अधिष्ठाता क्षेत्रज्ञ अर्थात अव्यक्त मूल प्रकृति ही अचेतन शरीर में प्रवेश कर उसे चेतन बनाती है | अधिष्ठाता अर्थात परमात्मा ने ही मन का निर्माण किया है | मन के दो भाग हैं-पहला भाग चित्त है जो कि परमात्मा के ही एक अंश आत्मा के साथ सदैव जुडा रहता है और मन का दूसरा भाग मन ही कहलाता है जो कि भौतिक शरीर के साथ जुडा होता है | सक्रिय मन की शरीर में उपस्थिति के कारण ही हम मनुष्य कहलाते हैं | जो आत्मा के साथ जुड़ा होता है वह मन परमात्म स्वरूप ही है और उसके चैतन्य होने के कारण ही वह चित्त कहलाता है | चित्त आत्मा के साथ संलग्न होकर जीवात्मा कहलाता है जो मृत्यु के बाद एक शरीर को त्यागता है और शीघ्र ही दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है | शरीर के साथ रहने वाले इस चित्त के दूसरे भाग मन की मनुष्य के शरीर में कर्म करने में मुख्य भूमिका रहती है | इसी मन के कारण मनुष्य अपनी अव्यक्त मूल प्रकृति में वापस लौट नहीं पाता है क्योंकि मन के कारण कर्म अपना प्रभाव दिखाकर विभिन्न योनियों में उनके फल का भुगतान करवाता रहता है | आइये ! हम जानें कि मन और कर्म का आपस में क्या सम्बन्ध है ?
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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