Thursday, January 19, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 17

गुण-कर्म विज्ञान – 17
इस आठ भेदो वाली प्रकृति के बारे में समझाते हुए अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण कह रहे हैं –
भूमिरापोSनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च |
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा || गीता-7/4||
अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार – इस प्रकार यह आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है |
           यह आठ भेद वाली परमात्मा की प्रकृति अष्टधा प्रकृति, अपरा प्रकृति (Lower nature) कहलाती है | भौतिक शरीर इसी प्रकृति की देन है, अतः इसे क्षेत्र (The field) नाम से (गीता अध्याय-13) भी कहा गया है | अपरा प्रकृति भी परमात्मा के ही कारण अस्तित्व में आई है, इस कारण से गीता में इसे क्षर (destructible) पुरुष (अध्याय-15) भी कहकर भी संबोधित किया गया है | संसार में जितने भी प्राणी हैं, सब इस प्रकृति के वशीभूत होकर ही कर्म करते हैं | मनुष्य के अतिरिक्त सभी प्राणी जो भी कर्म करते हैं, वे सब कर्म स्वतः ही होते हैं, उन कर्मों को करने में प्राणियों की भूमिका (Role) नहीं होती है | इसीलिए इन प्राणियों के सभी कर्म भोग-कर्म (Material  enjoyment Act) होते हैं | मनुष्य से भोग-कर्म तो होते ही है, साथ ही साथ वह योग-कर्म (Additional  act) भी कर सकता है | योग-कर्म करने में मनुष्य में उपस्थित मन की भूमिका महत्वपूर्ण होती है | मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों में अल्प मात्रा में मन की उपस्थिति होती तो है, परन्तु उसका कार्य केवल भय (Fear), भोजन (Feed), मैथुन (Sex) और निद्रा (Sleep) को भोगने के लिए किये जाने वाले कर्म की सीमा तक ही सक्रिय रहता है | यही कारण है कि वे स्वेच्छाचारी नहीं हो सकते | मनुष्य मन की उपस्थिति के कारण ही स्वेच्छाचारी (Willful) होता है | मन के इस शरीर में उपस्थित होने के कारण ही हमें मनुष्य कहा जाता है |
          गुणों और कर्मों के आपसी सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए हमें दोनों के विभाग का अध्ययन करना होगा | आइये ! सबसे पहले हम हमारे इस भौतिक शरीर के गुण-विभाग (Department of material properties)  में प्रवेश करते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 

No comments:

Post a Comment