Saturday, January 28, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 24

गुण-कर्म विज्ञान – 24
मन और कर्म- 
        मन की सक्रिय उपस्थिति (Active presence) और मन की निष्क्रिय उपस्थिति (Passive presence) ये दो ही मनुष्य और अन्य जीवों में भेद (Difference) का मुख्य आधार है | मन की सक्रियता से तात्पर्य है मन में जो आये अथवा मन जो चाहे उसके अनुसार शरीर का कार्य करना | मन की सक्रियता ने ही व्यक्ति को ‘मनुष्य’ नाम प्रदान किया है | जिस व्यक्ति में मन भी क्रियाशील (Active) नहीं होता उसको पशु समान माना जाता है और वह मनुष्य मानसिक रोगी (Psychic) की श्रेणी में आता है | जिस मनुष्य ने अपने मन को नियंत्रित (Control) कर लिया है, वह ‘योगी’ हो जाता है | मन का क्रियाशील न होना तथा मन की क्रियाशीलता को नियंत्रण में रखना, सतही रूप (Superficially) से देखने में एक समान प्रतीत होते हैं | दोनों ही स्थितियों में मन की क्रियाशीलता ही महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित होती है, परन्तु दोनों परिस्थितियों में मनुष्य के व्यक्तित्व (Personality) में बहुत बड़ा अंतर होता है | इन दो स्थितियों में अंतर को न समझने के कारण आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को सांसारिक व्यक्ति प्रायः मनोरोगी समझ बैठते हैं | मन को नियंत्रण में रखने वाला संसार के लिए एक मनोरोगी हो सकता है परन्तु वास्तविकता में वह परमात्मा के चिंतन में सदैव लगा होने के कारण वैसा आभासित हो सकता है | यह ठीक वैसे ही है जैसे अनिद्रा रोग (Insomnia) का होना अथवा नींद को जीत लेना (गुडाकेश) control on sleep,;दोनों को एक समान समझ लेना | जबकि दोनों में बहुत बड़ा अंतर है |
    गीता इसी मन को स्पष्ट करते हुए कहती है कि -
              इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः |
              मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु सः || गीता-3/42 ||
अर्थात इन्द्रियों को स्थूल शरीर से श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं | इन इन्द्रियों से सूक्ष्म मन है; मन से सूक्ष्म बुद्धि है और बुद्धि से अत्यंत सूक्ष्म है, वह आत्मा है |
                   स्थूल भौतिक शरीर से इन्द्रियां श्रेष्ठ (Superior) है अर्थात इन्द्रियों के कारण ही शरीर के द्वारा कार्य सिद्ध हो सकते हैं | इन्द्रियां मन के अधीन हैं | मन से श्रेष्ठ बुद्धि और सबसे श्रेष्ठ आत्मा है | कहने का अर्थ यह है कि आत्मा के कारण ही इस शरीर का मूल्य है अन्यथा इस शरीर के होने का कोई महत्त्व नहीं है | मन तो केवल इस शरीर से कार्य लेने का माध्यम मात्र है | अतः मन से उपयुक्त (Appropriate) कार्य लेने के लिए इसको नियंत्रण में रखना आवश्यक है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल 

|| हरिः शरणम् ||

No comments:

Post a Comment