गुण-कर्म विज्ञान -16
इस भौतिक शरीर में दो विभाग हैं - गुण विभाग और
कर्म विभाग | गुण-विभाग के अंतर्गत पाँच भौतिक तत्व तथा मन, बुद्धि और अहंकार आते
हैं | इस प्रकार कुल आठ तत्वों की ही कर्म सम्पादित करने में भूमिका रहती है | इन
आठों तत्वों को हमारे ऋषियों ने अष्टधा-प्रकृति Octangular nature) कहा है | हमारा भौतिक शरीर इस अष्टधा प्रकृति के
कारण ही अस्तित्व ग्रहण करता है | इन आठों तत्वों में से पाँच भौतिक तत्व तो
पूर्णतया स्थूल प्रकृति के हैं, जिनके अपने-अपने गुण (Properties) निश्चित हैं और शेष तीन उन पाँच तत्वों से
सूक्ष्म है हालाँकि उनकी प्रकृति भी स्थूल ही है | ये तीन तत्व मन, बुद्धि और
अहंकार हैं; जो पाँच भौतिक तत्वों के साथ तालमेल कर क्रिया करते हैं, उस क्रिया को
ही हम कर्म करना कहते हैं | प्रथम पंचतत्व भी क्रियाएं करते हैं परन्तु वे
क्रियाएं कर्म नहीं कहलाती | क्रियाएं तभी कर्म बनती है जब उन क्रियाओं को कराने
में हमारा मन, बुद्धि और अहंकार उत्प्रेरक (Activator) की भूमिका में निभाते हैं | प्रारम्भिक पाँच तत्वों
के साथ शेष तीन तत्व जब मिल जाते हैं तब पदार्थ के ये गुण (Properties) व्यक्ति
के गुण (Qualities) कहलाने लगते हैं, जबकि वास्तव में सभी गुण
पदार्थ और प्रकृति में ही होते हैं | इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि गुण-विभाग
में प्रकृति के गुण तथा कर्म-विभाग के अंतर्गत इन आठों स्थूल प्रकृति के तत्वों की
क्रियाएं आती है जो कि कर्म कहलाती हैं |
गुण-विभाग और कर्म-विभाग के कार्य को जो
व्यक्ति भली भांति समझ जाता है वह ज्ञान-योगी कहलाता है | वह इस बात को आत्मसात कर
लेता है कि अष्टधा-प्रकृति के गुण ही आपस में मिलकर क्रियाएं कर रहे हैं और उन
क्रियाओं के कारण विभिन्न प्रकार के कर्म होते जा रहे हैं | जितने भी कर्म इस
भौतिक शरीर द्वारा किये जा रहे हैं, वे सभी कर्म इन गुणों के आपस में एक दूसरे के
साथ व्यवहार करने से ही हुए जा रहे हैं अर्थात एक गुण दूसरे गुण का उपयोग करते हुए कर्म
को करवा रहा है | जब गुण ही गुण का उपयोग करते हुए कर्म सम्पादित करवा रहा है तो इसमें
आत्मा की भूमिका कहीं पर भी दिखाई नहीं पड़ रही है | कहने का तात्पर्य यह है कि अष्टधा-प्रकृति
से भिन्न अलग जो चेतन है, उसकी कर्म करने में किसी प्रकार की भूमिका और लिप्तता
नहीं है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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