Monday, January 2, 2017

गुण-कर्म विज्ञान-2

गुण-कर्म विज्ञान-2                 
               प्रकृति के गुण और उससे होने वाले सभी कर्म, जिनका वर्णन हमारे शास्त्रों में, मुख्य रूप से गीता में किया गया है, सारा का सारा एक विज्ञान है | मैं तो यहाँ तक दावा करता हूँ कि वह इस विज्ञान से भी बहुत आगे है | जब मनोयोग (Concentrated mind) से एक-एक बात का विश्लेषण (Analysis) किया जाता है, तब ऐसा अनुभव होता है | जब हम शास्त्रों में वर्णित सांकेतिक भाषा (Code language) को समझ नहीं पाते हैं तो इसमें दोष शास्त्रों का नहीं बल्कि हमारी बुद्धि का है | इस श्रृंखला में मेरा प्रयास यही रहेगा कि शरीर में स्थित प्रकृति के गुण कैसे भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्म करते हैं, किस प्रकार वे आगे का जन्म और योनि निर्धारित करते हैं ? कैसे एक ही माता-पिता की दो संतानों के स्वभावों में भिन्नता होती है ? आदि प्रश्नों का समाधान कर सकूँ | सभी का उत्तर शास्त्रों और आधुनिक विज्ञान दोनों का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए देने का प्रयास करूँगा |
           इस भौतिक संसार (Universe) का आधार प्रकृति (Nature) है और प्रकृति का सृजक (Creator) परमात्मा है | प्रकृति को परमात्मा ने गुण (Properties) और नियम (Rules or Laws) से बद्ध (Bound) करते हुए सृष्टि-चक्र चलाने का आदेश दे दिया और स्वयं निर्गुण और अकर्ता की भूमिका में मात्र दृष्टा (Viewer) बन कर बैठा हुआ है | प्रकृति के गुण निश्चित किये गए नियम के अनुसार क्रियाएं करते हुए सृष्टि-चक्र को गतिमान बनाये रखने में सहयोग करते हैं | सजीव में ऐसी क्रियाएं ही कर्म कहलाती है | जब कर्म प्रकृति के नियमानुसार होते हैं, तब इन्हें पुण्य-कर्म (Good or holy acts) कहा जाता है और जब कर्म प्रकृति के नियम विरुद्ध होते हैं तब इन्हें पाप-कर्म (Sinful acts) कहा जाता है | प्रकृति के नियम से चलने पर आपका जीवन सुखी बनता हैं | जहाँ आपने प्रकृति के नियमों की अवहेलना की, दुःख आपकी जिंदगी में आ धमकते हैं | प्रकृति का प्रत्येक गुण नियमों से आबद्ध (Bound) है जिसके कारण यह संसार भी प्रकृति के उन नियमों से बंधा हुआ है | प्रकृति के गुण पदार्थों (Matter) में निहित (Reside) है और पदार्थ अपने में निहित गुणों का नियमानुसार उपयोग करते हुए क्रियाएं और कर्म संपन्न करते हैं | कर्मों के होने के बारे में गीता कहती है-‘गुणा गुणेषु वर्तन्त’ (गीता-3/28) अर्थात कर्म और कुछ नहीं है बल्कि केवल गुणों का गुणों के प्रति आपसी व्यवहार मात्र है, जिसका परिणाम प्रकृति के नियमानुसार हमें प्राप्त होता है |
क्रमशः
प्रस्तुति –डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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