पिताजी का देवलोक गमन होने का
सांसारिक दुःख अवश्य है क्योंकि वे चाहे इस 90 वर्ष की आयु में हमारा कोई कार्य न
करते थे परन्तु हमारा निजी सुरक्षा कवच अवश्य थे | उनके जाने का दुःख हमारा
स्वार्थ ही हो सकता है अन्यथा इस संसार में प्रत्येक समय किसी न किसी स्थान पर एक
पिता, एक पुत्र अथवा एक माँ अपनी सांसारिक भौतिक देह छोड़ते ही है | कल उनके अंतिम
संस्कार में शामिल हुए समस्त गण सांत्वना के दो शब्द कह ही रहे थे | मुक्ति अथवा
पुनर्जन्म का निर्णय तो मेरे पिता श्री की भौतिक देह से किये गए कर्म करेंगे, उसके
बारे में हमारा सोचना ही अनुचित है | हमने हमारा कर्तव्य-कर्म निभाया अथवा नहीं,
हमारे लिए यही विचारणीय है | वो तो चले गए, वापिस लौट कर आने वाले नहीं है और अगर
हमारी इस भौतिक देह के रहते आते भी हैं तो हमें उनका अनुभव भी नहीं होगा |
भागवत में लिखा है कि यह संसार
किसी एक चौराहे पर स्थित उस प्याऊ की तरह है, जहाँ सभी अपनी प्यास बुझाने आते हैं,
कुछ समय एक साथ बैठते हैं और फिर अपने मार्ग पर आगे की यात्रा पर निकल जाते हैं | वे
हमारे साथ रहते हुए ऐसा ही कुछ कर गए हैं और अपनी आगे की यात्रा पर निकल चुके हैं |
हमें उनके जाने से यही सीख लेनी है कि यहाँ, इस संसार में सदैव के लिए कोई नहीं
रहता है | परमात्मा उनकी आगे की यात्रा को सुगम बनाए |
पत्ता टूटा डारि से, ले गयी
पवन उड़ाय |
अबके बिछुड़े कबहूँ मिले, दूर
पड़ेंगे जाय ||
|| हरिः
शरणम् ||
कल से पुनः
‘गुण-कर्म विज्ञान’ के साथ आगे की यात्रा पर चलेंगे |
No comments:
Post a Comment