अपने जीवन में किसी के प्रति मोह को पैदा करना कोई नई बात नहीं है | नई बात तो तब होगी, जब आप इस मोह के चक्रव्यूह को भेद डालें और मुक्त हो जाएँ | मोह ही सब दुःखों की जननी है | गोस्वामीजी मानस में कहते हैं-'मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला ' अर्थात मोह सभी रोगों की जड़ है | पुत्र-मोह के कारण ही द्रोणाचार्य ने महाभारत जैसे निर्णायक युद्ध में हथियार डालकर निहत्थे हो गए थे जिसे अवसर मानकर उनके ही मित्र द्रुपद के पुत्र ने उनका वध कर दिया | द्रोणाचार्य भली-भांति जानते थे कि उनके पुत्र अश्वत्थामा को चिरंजीवी होने का वरदान प्राप्त है, अतः कोई भी व्यक्ति उसका वध कर ही नहीं सकता | युधिष्ठिर का कथन 'अश्वत्थामा हतो नरो ना कुंजरो' को उन्होंने पूर्ण रूप से सुना ही नहीं | पुत्र-मोह के कारण उनकी स्मृति भी जवाब दे गयी थी अन्यथा वे अश्वत्थामा के चिरंजीवी होने की बात को विस्मृत कैसे होने देते ? इस उदाहरण से स्पष्ट है कि मोह स्मृति को भी ढक लेता है |
स्मृति के लोप होजाने के कारण व्यक्ति के मन में संशय पैदा हो जाता है, वह द्वंद्व में उलझ जाता है, जैसा कि द्रोणाचार्य के मामले में हुआ था | जब युद्धभूमि में शोर हुआ कि अश्वत्थामा मारा गया तो स्मृति लोप के कारण आचार्य द्रोण भी संशयग्रस्त हो गए | फिर भी समाचार की सत्यता परखने के लिए उन्होंने धर्मराज के कथन का सहारा लिया | जब धर्मराज युधिष्ठिर अश्वत्थामा हाथी के मरने कि आड़ में जोर से कह दिया कि 'अश्वत्थामा मारा गया....' इतना सुनते ही वे शोक ग्रस्त हो गए और युद्धभूमि में उन्होंने अपने हाथ से हथियार डाल दिए | इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि मोह, स्मृति को भी नष्ट कर डालता है और व्यक्ति द्वंद्व में पड जाता है |
मोह, ममता और आसक्ति के कारण ही सकाम-कर्म होते हैं क्योंकि ममत्व के कारण व्यक्ति अपने प्रिय को बचाने के लिए, उस मोह को और अधिक ऊंचाई तक पहुँचाने के लिए स्वयं को कर्ता समझ कर्म करता है | इस मोह को नष्ट करने के लिए कर्मों के स्वरुप में परिवर्तन करना आवश्यक है | कर्म का स्वरुप कैसे परिवर्तित किया जा सकता है, यही बात गीता में स्पष्ट की गयी है |संसार का मोह, भौतिक शरीर का मोह,इन्द्रिय विषयों से प्राप्त सुख का मोह, संतान के प्रति मोह, वस्तुओं और स्थान के प्रति मोह आदि सभी मोह एक प्रकार का बंधन पैदा करते हैं जिससे बंध कर व्यक्ति विभिन्न प्रकार के कर्म करने को बाध्य होता है | मोहरहित व्यक्ति अर्थात अनासक्त मनुष्य को कोई बांध नहीं सकता जिस कारण से उसके लिए कर्तव्य-कर्म करते रहना भी कर्म न करने के समान है | गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं -
किं कर्म किमकर्मेति कवयोSप्यत्र मोहिताः |
तत्ते कर्म पर्वक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेSशुभात् || गीता-4/16 ||
अर्थात कर्म क्या है ? अकर्म क्या है ? इसका निर्णय करने में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित हो जाता है | इसलिए वह कर्म तत्व मैं तुझे भलीभांति समझाकर कहूँगा, जिसे जानकर तू कर्मबंधन से भी मुक्त हो जायेगा |
इसी गीता से भगवान् श्री कृष्ण की वाणी को विज्ञान के परिपेक्ष्य में प्रस्तुत करने का एक प्रयास हाथ में लेने जा रहा हूँ | आचार्य श्री का मार्गदर्शन और पूर्वजों का आशीर्वाद मेरे साथ सदैव है | कृपया समय-समय पर अपनी प्रतिक्रिया प्रस्तुत कर मेरा मार्गदर्शन करते रहें |
सर्वदेशीय सर्वमान्य आंग्ल नव वर्ष 2017 की शुभ कामनाएं |
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
कल से एक नई श्रृंखला-'गुण-कर्म विज्ञान' (Science of properties and act)
स्मृति के लोप होजाने के कारण व्यक्ति के मन में संशय पैदा हो जाता है, वह द्वंद्व में उलझ जाता है, जैसा कि द्रोणाचार्य के मामले में हुआ था | जब युद्धभूमि में शोर हुआ कि अश्वत्थामा मारा गया तो स्मृति लोप के कारण आचार्य द्रोण भी संशयग्रस्त हो गए | फिर भी समाचार की सत्यता परखने के लिए उन्होंने धर्मराज के कथन का सहारा लिया | जब धर्मराज युधिष्ठिर अश्वत्थामा हाथी के मरने कि आड़ में जोर से कह दिया कि 'अश्वत्थामा मारा गया....' इतना सुनते ही वे शोक ग्रस्त हो गए और युद्धभूमि में उन्होंने अपने हाथ से हथियार डाल दिए | इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि मोह, स्मृति को भी नष्ट कर डालता है और व्यक्ति द्वंद्व में पड जाता है |
मोह, ममता और आसक्ति के कारण ही सकाम-कर्म होते हैं क्योंकि ममत्व के कारण व्यक्ति अपने प्रिय को बचाने के लिए, उस मोह को और अधिक ऊंचाई तक पहुँचाने के लिए स्वयं को कर्ता समझ कर्म करता है | इस मोह को नष्ट करने के लिए कर्मों के स्वरुप में परिवर्तन करना आवश्यक है | कर्म का स्वरुप कैसे परिवर्तित किया जा सकता है, यही बात गीता में स्पष्ट की गयी है |संसार का मोह, भौतिक शरीर का मोह,इन्द्रिय विषयों से प्राप्त सुख का मोह, संतान के प्रति मोह, वस्तुओं और स्थान के प्रति मोह आदि सभी मोह एक प्रकार का बंधन पैदा करते हैं जिससे बंध कर व्यक्ति विभिन्न प्रकार के कर्म करने को बाध्य होता है | मोहरहित व्यक्ति अर्थात अनासक्त मनुष्य को कोई बांध नहीं सकता जिस कारण से उसके लिए कर्तव्य-कर्म करते रहना भी कर्म न करने के समान है | गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं -
किं कर्म किमकर्मेति कवयोSप्यत्र मोहिताः |
तत्ते कर्म पर्वक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेSशुभात् || गीता-4/16 ||
अर्थात कर्म क्या है ? अकर्म क्या है ? इसका निर्णय करने में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित हो जाता है | इसलिए वह कर्म तत्व मैं तुझे भलीभांति समझाकर कहूँगा, जिसे जानकर तू कर्मबंधन से भी मुक्त हो जायेगा |
इसी गीता से भगवान् श्री कृष्ण की वाणी को विज्ञान के परिपेक्ष्य में प्रस्तुत करने का एक प्रयास हाथ में लेने जा रहा हूँ | आचार्य श्री का मार्गदर्शन और पूर्वजों का आशीर्वाद मेरे साथ सदैव है | कृपया समय-समय पर अपनी प्रतिक्रिया प्रस्तुत कर मेरा मार्गदर्शन करते रहें |
सर्वदेशीय सर्वमान्य आंग्ल नव वर्ष 2017 की शुभ कामनाएं |
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
कल से एक नई श्रृंखला-'गुण-कर्म विज्ञान' (Science of properties and act)
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