आलोक-अनुभूति-7 अंतिम कड़ी
तीसरा व अंतिम प्रश्न-
हम केवल आत्म-केन्द्रित होकर अपने स्वार्थ के लिए उच्च अवस्था को उपलब्ध होना चाहते हैं, क्या ऐसा करना हमारा स्वार्थ पूर्ण उद्देश्य नहीं है ? जबकि परमात्मा ने श्री कृष्ण के रूप में सदैव संसार की भलाई के लिए कार्य किया था |
सत्य है यह बात | स्वार्थ चाहे भौतिकता का हो अथवा आध्यात्मिकता का, दोनों ही अनुचित है | स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि किसी भी व्यक्ति की सहायता करना आपका नैतिक कर्तव्य है | शारीरिक सहायता अर्थात भौतिक सहायता को उन्होंने निम्नतम स्तर का कर्म बताया है | वे कहते हैं कि आप भूखे व्यक्ति की सहायता करके उसे एक बार के लिए भोजन उपलब्ध करवा सकते हैं परन्तु थोड़े समय बाद उसे फिर भूख सताएगी | सदैव के लिए आप उसे तृप्त नहीं कर सकते | मध्यम दर्जे की सहायता बौद्धिक सहायता है, जब आप उसे भूख शांत करने का उपाय करने का ज्ञान देते हैं जिससे वह समर्थ हो जाये | उच्चतम स्तर की सहायता आध्यात्मिक सहायता है, जिसको पाकर व्यक्ति सदैव के लिए तृप्त हो जाता है | अतः जब आप उस उच्च अवस्था को प्राप्त कर लें तो फिर बौद्धिक कर्म और आध्यात्मिक कर्म करते हुए परमार्थ में लग जाएँ परन्तु ध्यान रखें उसके पीछे किसी भी प्रकार की कोई कामना न हो |
आत्म-बोध को प्राप्त होकर अगर आप स्वयं तक ही सीमित हो कर रह जाते हैं, तो यह भी अनुचित है | आपने जो प्राप्त किया है, उसे अन्यों को राह दिखाने के लिए उपयोग में लें अन्यथा आप स्वार्थी कहलायेंगे | आपका उदाहरण दूसरों के लिए प्रेरणा स्रोत बने, तभी इसकी सार्थकता है |
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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