आलोक-अनुभूति-1
मेरे अवकाश पर जाने से पूर्व कुछ मित्रों ने मेरी post पढ़कर कुछ प्रश्न किये थे | समयाभाव के कारण उनके उत्तर मैं तत्काल नहीं दे सका, क्षमाप्रार्थी हूँ | उन्हीं मित्रों में से मेरे एक मित्र हैं डॉ. आलोक गुप्ता | हम दोनों ने एक साथ ही बीकानेर मेडिकल कालेज से चिकित्सकीय शिक्षा प्राप्त की थी | फिर राजकीय सेवा में रहते हुए उनकी नियुक्ति जब तक रतनगढ़ में रही, तब तक बराबर मिलना होता रहता था | आजकल वे जोधपुर हैं और फेसबुक के माध्यम से हमारा संपर्क बना हुआ है | ‘न करोति न लिप्यते’ पर मेरी अंतिम post पढकर उन्होंने कुछ जिज्ञासा प्रकट की है | उन्होंने तीन प्रश्न किये हैं | जो इस प्रकार हैं-
1. मैं असमंजस में हूँ कि अगर कोई व्यक्ति नई खोज के लिए कामना नहीं रखता है, कुछ नया करने का विचार उसके मन में पैदा नहीं होता है तो ऐसे में सम्पूर्ण मानव जाति का विकास कैसे होगा ? परमात्मा ने हमें बुद्धि दी, हमें इसका उपयोग क्यों नहीं करना चाहिये अन्यथा वह हमें बुद्धि ही क्यों देता ?
2. क्या परमात्मा को प्राप्त करना एक कामना नहीं है ?
3. हम केवल आत्म-केन्द्रित होकर अपने स्वार्थ के लिए उच्च अवस्था को उपलब्ध होना चाहते हैं, क्या ऐसा करना हमारा स्वार्थ पूर्ण उद्देश्य नहीं है ? जबकि परमात्मा ने श्री कृष्ण के रूप में सदैव संसार की भलाई के लिए कार्य किया था |
बहुत ही गूढ़ विषय पर जिज्ञासा प्रदर्शित की है, मेरे मित्र ने | वैसे तीनों ही प्रश्न आपस में एक दूसरे से सम्बन्धित (Inter related ) हैं | अतः इनकी शंका का मैं व्यापक रूप से समाधान करना चाहूंगा | उनकी भी इस प्रकार की भावना है कि मैं post के माध्यम से इस विषय को स्पष्ट करूँ, जिससे उनकी तरह ही अन्य व्यक्ति लाभान्वित हो सके | वैसे मैं इतना ज्ञानी नहीं हूँ कि उच्च स्तर पर जाकर इस विषय पर अपने विचार रख सकूँ | फिर भी आचार्य जी के सान्निध्य और सनातन शास्त्रों के माध्यम से जो कुछ भी इस बारे में ज्ञान रखता हूँ, एक लघु श्रृंखला के माध्यम से प्रकट कर रहा हूँ |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
मेरे अवकाश पर जाने से पूर्व कुछ मित्रों ने मेरी post पढ़कर कुछ प्रश्न किये थे | समयाभाव के कारण उनके उत्तर मैं तत्काल नहीं दे सका, क्षमाप्रार्थी हूँ | उन्हीं मित्रों में से मेरे एक मित्र हैं डॉ. आलोक गुप्ता | हम दोनों ने एक साथ ही बीकानेर मेडिकल कालेज से चिकित्सकीय शिक्षा प्राप्त की थी | फिर राजकीय सेवा में रहते हुए उनकी नियुक्ति जब तक रतनगढ़ में रही, तब तक बराबर मिलना होता रहता था | आजकल वे जोधपुर हैं और फेसबुक के माध्यम से हमारा संपर्क बना हुआ है | ‘न करोति न लिप्यते’ पर मेरी अंतिम post पढकर उन्होंने कुछ जिज्ञासा प्रकट की है | उन्होंने तीन प्रश्न किये हैं | जो इस प्रकार हैं-
1. मैं असमंजस में हूँ कि अगर कोई व्यक्ति नई खोज के लिए कामना नहीं रखता है, कुछ नया करने का विचार उसके मन में पैदा नहीं होता है तो ऐसे में सम्पूर्ण मानव जाति का विकास कैसे होगा ? परमात्मा ने हमें बुद्धि दी, हमें इसका उपयोग क्यों नहीं करना चाहिये अन्यथा वह हमें बुद्धि ही क्यों देता ?
2. क्या परमात्मा को प्राप्त करना एक कामना नहीं है ?
3. हम केवल आत्म-केन्द्रित होकर अपने स्वार्थ के लिए उच्च अवस्था को उपलब्ध होना चाहते हैं, क्या ऐसा करना हमारा स्वार्थ पूर्ण उद्देश्य नहीं है ? जबकि परमात्मा ने श्री कृष्ण के रूप में सदैव संसार की भलाई के लिए कार्य किया था |
बहुत ही गूढ़ विषय पर जिज्ञासा प्रदर्शित की है, मेरे मित्र ने | वैसे तीनों ही प्रश्न आपस में एक दूसरे से सम्बन्धित (Inter related ) हैं | अतः इनकी शंका का मैं व्यापक रूप से समाधान करना चाहूंगा | उनकी भी इस प्रकार की भावना है कि मैं post के माध्यम से इस विषय को स्पष्ट करूँ, जिससे उनकी तरह ही अन्य व्यक्ति लाभान्वित हो सके | वैसे मैं इतना ज्ञानी नहीं हूँ कि उच्च स्तर पर जाकर इस विषय पर अपने विचार रख सकूँ | फिर भी आचार्य जी के सान्निध्य और सनातन शास्त्रों के माध्यम से जो कुछ भी इस बारे में ज्ञान रखता हूँ, एक लघु श्रृंखला के माध्यम से प्रकट कर रहा हूँ |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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