Thursday, December 29, 2016

भूमिका -1

           कई मित्रों का सुझाव है कि 'जब इस  संसार में कर्म ही प्रधान है और कर्म के अतिरिक्त जितनी भी बातें कही जा रही है सब का सम्बन्ध कर्म से ही है तो क्यों न आप कर्म को थोडा और अधिक स्पष्ट करें ?' मेरे बुद्धिमान मित्रों का कहना है कि विज्ञान और कर्म का जो आपस में सम्बन्ध है वह अभी भी एक आम व्यक्ति को स्पष्ट नहीं है | जब तक कर्म को आधुनिक विज्ञान के अनुसार स्पष्ट नहीं किया जायेगा तब तक नई पीढ़ी का शास्त्रों के प्रति आकर्षण पैदा करना असंभव है | मैं विगत 20 वर्षों से इस अभियान में रत हूँ कि जैसे भी हो भुला दिये गए इस ज्ञान को अपने भावी वंशजों को पुनः याद दिला सकूँ |द्वापर के अंत में अर्जुन जैसा महान व्यक्तित्व भी इस ज्ञान से कोसों दूर जा चूका था जिसे पुनः इस ज्ञान की मुख्य धारा में लाने के लिए भगवान् श्री कृष्ण को गीता कहनी पड़ी थी | आज साक्षात् भगवान श्री कृष्ण तो हमारे समक्ष नहीं है, परन्तु उनके द्वारा कहे गए शब्द गीता के रूप  में हमारे सामने अवश्य हैं | आवश्यकता है , गीता में कहे गए एक एक शब्द का हम गहराई में जाकर विश्लेषण करें जिससे हमारा वर्तमान और भावी जीवन आनंददायक बन सके |
                           भगवान श्री कृष्ण से ज्ञान पाकर अर्जुन को सब कुछ स्पष्ट हो गया था और उन्होंने अपना स्वाभाविक कर्म करने के लिए गांडीव उठा लिया था |
                                 नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत |
                                 स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव || गीता-18/73 ||
अर्जुन समस्त कर्म सिद्धांत को भगवन श्री कृष्ण से भलीभांति समझने के उपरांत कह रहे हैं कि हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है | अब मैं संशय रहित होकर स्थित हूँ , अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा |
                    इस श्लोक में मोह और स्मृति के साथ साथ संशय की बात कही गई है | मोह,स्मृतिलोप और संशय ही आज की पीढ़ी को दिग्भ्रमित किये हुए हैं | जब तक उनका पाश्चात्य संस्कृति के विकारों से मोह भंग नहीं होगा तब तक न तो उनका संशय दूर होगा और न ही पुनः स्मृति को प्राप्त हो सकेंगे | इस मोह को गीता ही दूर कर सकती है, ऐसा मेरा मत है |
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल 
|| हरिः शरणम् ||

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