Wednesday, December 28, 2016

ग्रहण-4 समापन कड़ी

शास्त्रों में वर्णित कथा का मर्म-

          समुद्र मंथन के बाद अमृत निकला, श्री नारायण मोहिनी का रुप धारण कर जब अमृत को देवताओं को बाँटना प्रारम्भ किया तभी राहु सूर्य और चन्द्र के मध्य छल पूर्वक आकर बैठ गया जिसे प्रभू ने जान लिया किन्तु पंक्ति भेद न हो इसलिए राहु को भी अमृत पिला दिया । परमात्मा का यह नियम है कि कभी भी पंक्ति भेद नहीं करना चाहिए ।
      जब इन्द्रादि देवों को अमृत मिल रहा था तब राहु नहीं आया किन्तु जब सूर्य - चन्द्र को अमृत मिल रहा था तभी वहाँ राहु आ पहुँचा । मन का स्वामी चन्द्र है । मन चन्द्र का स्वरूप है । बुद्धि का स्वामी सूर्य है । सूर्य बुद्धि का स्वरूप है । राहु है विषयानुराग अर्थात विषयों का चिंतन |
          जब तक हाथों से, जीभ से (इन्द्रियों आदि से) मनुष्य भक्ति करता है तब तक विषयरुपी राहु बाधा डालने नहीं आता किन्तु जब मनुष्य मन से बुद्धि से ईश्वर का ध्यान करने लगता है तो विषयरुपी राहु बाधा डालने आ जाता है । मन और बुद्धि को ईश्वर में लगाया नहीं कि विषय रुपी राहु बाधक बनकर आया समझो । जब मन, बुद्धि को भक्तिरुपी अमृत मिलने लगता है तो विषयरुपी राहु से देखा नहीं जा सकता और वह विघ्न डालने आ जाता है ।
          नारायण ने राहु के सिर को सुदर्शन चक्र चलाकर उड़ा दिया अर्थात सुदर्शन चक्र - ज्ञानरूपी सुदर्शन चक्र से विषयी राहु का नाश किया जाये किन्तु मात्र ज्ञान और बुद्धि से विषय राहु मरता नहीं है । ज्ञान और बुद्धि का अधिक विश्वास भी नहीं करना चाहिए । अकेले ज्ञान से कुछ भी नहीं हो सकता क्योंकि वैसे तो राहु अमर है । जब तक किसी सच्चे संत की कृपा नहीं मिल पाती विषय राहु नहीं मरता । मात्र ज्ञान से विषयों का नाश नहीं हो पाता । ईश्वर के अनुग्रह से ही मन निर्विषयी होता है । भगवान की कृपा के बिना मन निर्विषयी नहीं हो सकता । ज्ञान का आश्रय लेकर भी अति दीन बनने पर ही परमात्मा कृपा करके विषय राहु को मारेंगे । मात्र ज्ञान से ही निर्विषयता नहीं हो पाती । ईश्वर की कृपा से निर्विषयता आती है -
         "रसवर्जँ रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ।"(गीता-2/59)
परमात्मा की कृपा और साक्षात्कार से ही विषयासक्ति और विषयानुरागिता में से मन निवृत्त हो पाता है । दैत्य भगवान से विमुख थे अतः उन्हें अमृत नहीं मिला क्योंकि वे मोहिनी के चक्कर में फँस गये थे । संसार भी मोहिनी स्वरूप है, इसमें फँस जाने पर भक्ति रुपी अमृत कभी भी नहीं मिलेगा ।
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल 
|| हरिः शरणम् ||

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