Friday, December 30, 2016

भूमिका-2

              कल मैंने गीता के 18/73 श्लोक का जिक्र किया था , जो कि भगवान् श्री कृष्ण से ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद अर्जुन द्वारा कहा गया है | गीता में ही द्वितीय अध्याय से अर्जुन की सभी बातें ध्यान पूर्वक सुनकर भगवान् श्री कृष्ण ने बोलना प्रारम्भ किया है |इससे पूर्व विषाद योग नामक प्रथम अध्याय में अर्जुन ने युद्ध करने से होने वाली क्षति के बारे में बताते हुए भगवान् श्री कृष्ण को युद्ध न करने का कह दिया था | अनपेक्षित को सुनकर भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन से प्रतिप्रश्न कर रहे हैं कि -
              कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् |
              अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन          || गीता-2/2 ||
हे अर्जुन ! तुझे इस असमय में यह मोह किस कारण से प्राप्त हुआ है ? क्योंकि यह मोह न तो श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न ही प्रसिद्धि दिलाने वाला है |
            समस्त गीता शास्त्र मोह को दूर करने के प्रयास पर ही आधारित है | गीता के 2/2 में श्री भगवान् उवाच से प्रारम्भ हुआ ज्ञान, गीता के 18/72 पर आकर समाप्त होता है, जिसको प्राप्त कर 18/73 में अर्जुन मोह मुक्त हो जाता है | इस प्रकार मोह को दूर करने के लिए भगवान् श्री कृष्ण ज्ञान, ध्यान,कर्म, भक्ति और सन्यास मार्ग का विस्तृत रूप से विवेचन करते हैं  फिर भी गीता को कर्म-योग का शास्त्र कहा जाता है | इसका कारण जानने के लिए हमें सर्वप्रथम यह जानना होगा कि मोह क्या है ?
                 मोह उस तथाकथित प्रेम का नाम है, जो स्वार्थ पर आधारित होता है | वास्तविक प्रेम में स्वार्थ का कोई स्थान नहीं होता है | प्रायः हम मोह को प्रेम समझने की भूल करते हैं | मोह, ममता और आसक्ति लगभग समानार्थी शब्द हैं | किसी भी वस्तु, विषय, स्थान और व्यक्ति में मोह रखना, उसके प्रति ममता पैदा करता है |ममता आसक्ति को जन्म देती है और यह आसक्ति व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के कर्म करने को बाध्य करती है | कर्म से फिर मोह, ममता और आसक्ति शनैः शनैः बढ़ते हुए दृढ होती जाती है | मोह अर्थात आकर्षण, से ममत्व अर्थात मेरापन पैदा होता है | वह 'मेरा' कहीं किसी दूसरे का न हो जाये, कहीं मेरे से दूर न हो जाये, कहीं खो ना जाये , यह विचार ही मन में पैदा होना ही उस स्थान, विषय,वस्तु तथा व्यक्ति में आसक्त होना है | आसक्त अर्थात उसके साथ एक प्रकार के लगाव का हो जाना | इस अवस्था में व्यक्ति अपने मोह के कारण सदैव के लिए उसको अपना बनाये रखने के लिए कर्म करता है | ऐसा कर्म फिर मोह को दृढ करता है | इस प्रकार यह मोह, ममता,आसक्ति, कर्म और फिर मोह का एक अभेद्य चक्रव्यूह बन जाता है, जिससे मनुष्य मृत्यु पर्यंत बाहर नहीं निकल पाता और केवल शरीर की ही मृत्यु नहीं बल्कि कई पुनर्जन्म ले कर भी उसी मोह के जाल से बाहर नहीं आ पाता और बार-बार उसमें फंस ता रहता है |
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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