Monday, October 31, 2016

अष्टधा-प्रकृति

            भगवान श्रीकृष्ण की आठ पटरानियाँ थी । अष्टधा प्रकृति ही वे आठ पटरानियाँ हैं । ईश्वर इन सभी प्रकृतियों के स्वामी हैँ । ये प्रकृतियाँ परमात्मा की सेवा करती हैँ । 
"
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।" (गीता 7/4 )!!
           जीव प्रकृति के अधीन है । ईश्वर प्रकृति के अधीन नहीं है। जीव अष्टधा प्रकृति के वश में  आ जाता है, जबकि ईश्वर उनको अपने वश में करते है । प्रकृति अर्थात् स्वभाव । स्वभाव के अधीन होने के बदले स्वभाव को प्रकृति को वशीभूत करने वाला जीव सुखी हो जाता है , मुक्त हो जाता है ।
||हरिः शरणम् ||

Sunday, October 30, 2016

रोग और उसका कारण-शेष भाग

            इस भौतिक शरीर में प्रकृति के तीनों गुण होते हैं क्योंकि यह प्रकृति के द्वारा ही निर्मित है | मनुष्य जीवन में इन तीनों गुणों को परिवर्तित किया जा सकता है | सात्विक गुणों से व्यक्ति तामसिक गुणों की और अग्रसर हो सकता है और ऐसे ही तामसिक गुणों को व्यक्ति अपने जीवन में सात्विक गुणों में बदल सकता है | यही गुण देहत्याग के बाद अगले मनुष्य जन्म में पहुंचते हैं | इन गुणों के कारण ही व्यक्ति का शरीर, स्वभाव व बुद्धि संचालित होती है | जन्म-जात व्याधियां पूर्व मनुष्य जीवन से सम्बन्ध अवश्य ही रखती है | जीवन के मध्य में यदा कदा आई अल्पकालीन बीमारियाँ गुणों में अस्थाई परिवर्तन के कारण होती हैं और वे कुछ समय बाद ठीक हो जाती हैं | यह गुणों में अस्थाई परिवर्तन देश, काल और परिस्थितियों पर निर्भर करता है | इन बीमारियों का पूर्व-जन्म से नाममात्र का सम्बन्ध होता है और वह किसी पूर्वजन्म के कर्मफल को भोगने के लिए दुःख स्वरूप आती हैं | जब वर्तमान मानव जीवन में कोई लम्बी बीमारी शरीर को घेर लेती है, तब व्यक्ति के गुणों में स्थाई परिवर्तन आ जाता है जो देहत्याग के बाद नए मानव-जीवन में जन्म-जात अथवा असाध्य रोग के रूप में प्रकट होता है |
            आयुर्वेद के अनुसार कफ़, वात और पित्त इन तीनों के मध्य असंतुलन पैदा हो जाने के फल स्वरूप व्यक्ति रोगग्रस्त हो जाता है | प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति में कफ़, वात और पित्त का एक निश्चित अनुपात  बना रहता है | उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति में सत्व, रज और तम तीनों गुण भी उपस्थित रहते हैं | कफ़ भौतिक गुण व तम का द्योतक है, पित्त रासायनिक गुण व रज का प्रतिनिधित्व करता है जबकि वात विद्युतीय गुण व सत्व का | जब कफ़ दोष होता है तो तामसिक गुण बढ़ता है और भौतिक शरीर प्रभावित होता है जिसके अंतर्गत आने वाली बीमारियाँ हैं- दमा, बुखार, क्षय रोग, विभिन्न संक्रमण आदि | जब पित्त दोष होता है तब मानसिक असंतुलन, मांसपेशियों की खराबी, ह्रदय रोग, आंत्र शोध, वमन आदि बीमारियाँ पैदा हो जाती है | जब वात दोष होता है तब ह्रदय की धड़कन का बढ़ जाना, मिर्गी के दौरे पड़ना, पागलपन और स्नायु से सम्बंधित रोग पैदा होते हैं | इस प्रकार जो भी गुण प्रभावित होता है और वह प्रभाव अगर स्थाई होता है, तो निश्चित रूप से अगले मानव-जन्म में अवश्य ही उसका प्रभाव पड़ेगा और उसी के अनुरूप उस जीवन में वह व्यक्ति रोग ग्रस्त होगा |  यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि तीनों गुणों में से जिस भी गुण में दोष पैदा होगा उसी के अनुसार नए जीवन में बीमारियों का प्रकट होना निश्चित है |
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
आज दीपावली का पर्व है | परमात्मा आपके जीवन को सदैव आलोकित करते रहें, यही कामना है | आप सभी महानुभावों को दीपोत्सव की ह्रदय से शुभ कामनाएं |

|| हरिः शरणम् || 

Saturday, October 29, 2016

रोग और उसका कारण

             नई श्रृंखला प्रारम्भ करने से पहले मैं श्री अशोक जी के एक प्रश्न का उत्तर देना चाहूँगा | अशोक जी ने पूछा है कि क्या शारीरिक रोग होने के पीछे पूर्वजन्म का कोई सम्बन्ध है ? आदरणीय अशोक जी पिछले कुछ दिनों से चिकनगुनिया नामक बीमारी से ग्रस्त हैं | यह बीमारी जिसको एक बार हो जाती है, उसको तोड़ कर रख देती है | जितनी शारीरिक पीड़ा इस रोग के कारण होती है, शायद ही अन्य किसी रोग में होती होगी | व्यक्ति चलने-फिरने से मजबूर हो जाता है | आज भी चिकित्सा विज्ञान के पास इसके निराकरण का कोई विश्वसनीय उपाय नहीं है, दावे चाहे विभिन्न चिकित्सा पद्धतियाँ कितना भी करती होंगी | यह रोग केवल शरीर को ही नहीं बल्कि मन तक को प्रभावित कर देता है | अतः यह जानना आवश्यक है कि मन और शरीर को इस व्यथा से मुक्त करें ?
                                 मानसिक रोग को आधि (Psychic disease) और शारीरिक रोग (Physical disease) को व्याधि कहा जाता है | इन दोनों का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है | आधि व्याधि पैदा करती है और व्याधि आधि | मानसिक पीड़ाएं जन्म-जन्मान्तर तक साथ चलती है जो मनुष्य की शारीरिक पीड़ा का भी एक कारण बनती है | व्याधियां वर्तमान जन्म में विभिन्न कारणों से पैदा होती है जो फिर सतत चलते रहने से मानसिक व्यथा भी पैदा कर आधि को जन्म देती है | व्याधियों का उपचार दवाओं के माध्यम से किया जा सकता है |आधि का उपचार केवल ज्ञान से ही हो सकता है और वह ज्ञान है मन पर पूर्ण नियंत्रण | अगर मन पर शीघ्र ही नियंत्रण स्थापित नहीं किया जा सका तो फिर यह आधि अगले जन्म में जाकर आधि और व्याधि दोनों को उत्पन्न कर सकती है | आधि पैदा होती है, कामनाओं और इच्छाओं के मन में बार-बार जन्म लेते रहने से | मन को जीत न पाने के कारण यह आधि स्थाई हो जाती है जो बाद में कई प्रकार की व्याधियों की जनक बनती है | जैसा कि हम जानते हैं कि कामनाएं जीवन भर ही नहीं कई जन्मों तक हमारा पीछा नहीं छोड़ती अतः माना जा सकता है कि हमारी शारीरिक और मानसिक बीमारियों का कारण पूर्वजन्म में भी निहित है |
सन्दर्भ- योगवासिष्ठ –सर्ग-81
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

||हरिः शरणम् ||

Friday, October 28, 2016

न करोति न लिप्यते-24 समापन कड़ी -सारांश

सारांश –
       परमात्मा की दोनों ही प्रकृतियाँ उसकी स्वयं की ही है, क्योंकि अपने आनंद के लिए इनका निर्माण उन्होंने ही किया है | इसलिए अगर अपरा प्रकृति (भौतिक शरीर) में कोई कर्म होता है तो वह कर्म परमात्मा के द्वारा ही किया हुआ माना जा सकता है |  परा प्रकृति (आत्मा) किसी प्रकार का कर्म नहीं करती फिर भी अहंकार के कारण अपरा में हुए कार्य को वह अपने द्वारा किया गया कर्म मान बैठती है | परमात्मा द्वारा अपरा का निर्माण उससे कर्म करवाते हुए आनंद प्राप्त करने के लिए ही किया गया था | उस प्रकृति को आनंद प्राप्त करने तक ही स्वीकार करना चाहिए, उसके साथ बंधना नहीं चाहिए | यह बंधन परा (आत्मा) को अपना वास्तविक स्वरूप पहचान पाने से वंचित कर देता है | इस कारण से परा (आत्मा) अपने आप को अपरा (शरीर) समझने लगती है, जो कि असत्य है | अपरा यानि प्रकृति अर्थात क्षर पुरुष (शरीर) तो कर्म करता है, परा अर्थात अक्षर पुरुष (जीवात्मा) उस कर्म के फल को भोगता है और परम यानि उत्तम पुरुष (परमात्मा) किसी भी प्रकार के कर्म को न तो करता है और न ही उसको कोई कर्म लिप्त कर सकता हैं | परा (आत्मा) आप स्वयं हैं, आप अपरा (शरीर) नहीं हैं | अपरा (शरीर) परिवर्तनशील है, विनाशी है, क्षर है अतः परमात्मा के द्वारा निर्मित होने के बावजूद भी वह परमात्मा नहीं है | आप परा (आत्मा) है इसलिए आप परमात्मा स्वरूप हैं क्योंकि परमात्मा भी अविनाशी हैं, अक्षर है और परा (आत्मा) भी अविनाशी है, अक्षर है |
             गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा भी है-
                         प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः |
                         यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ||गीता-13/29 ||
            अर्थात जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही किये जाते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है वही यथार्थ देखता है | यहाँ आकर भगवान एक दम से स्पष्ट कर देते हैं कि सभी कर्म प्रकृति द्वारा ही किये जाते हैं, आत्मा की इन कर्मों को करने में कोई भूमिका नहीं होती है | अतः मनुष्य को चाहिए कि वह शरीर (प्रकृति) द्वारा किये जा रहे कर्मों को स्वयं के द्वारा किया जाना न माने | ऐसा स्वीकार कर लेने से उसे कोई कर्म लिप्त नहीं कर पायेगा | जिस व्यक्ति को कर्म लिप्त नहीं कर पाते हैं, वास्तव में वही मुक्त है-जीवन-मुक्त |
              इतने विवेचन से स्पष्ट है कि आप शरीर न होकर परमात्मा स्वरूप हैं | कर्म शरीर में ही होते हैं आप में नहीं | अतः न तो आप कर्म करते हैं और न ही आपको कर्म लिप्त कर सकते हैं | आपके द्वारा कर्मों को करना और लिप्त होना आपके अहंकार के कारण है | अगर अहंकार का त्याग कर दें तो फिर आप भी न तो कुछ करते हैं और न ही लिप्त होते हैं | आप स्वयं परमात्मा हो जाते है और फिर आप भी परमात्मा की तरह कह सकते हैं- ‘न करोति न लिप्यते’|
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, October 27, 2016

न करोति न लिप्यते-23

          इस प्रकार भगवान ने उद्धवजी को तीनों मार्ग में से किसी एक मार्ग पर चलने की योग्यता बता दी है | परन्तु हमारी विडंबना यह है कि हम अपने मनुष्य जीवन के अंतिम चरण तक पहुँच जाने के बाद भी इनमें से किसी एक मार्ग का चयन नहीं कर पाते हैं | इसका कारण यह है कि हम सब इस संसार में आकर सकाम कर्म करने में इतने अधिक व्यस्त हो जाते हैं कि परमात्मा को पाने का विचार तक मन में नहीं करते और अंत तक भक्ति-मार्ग पर चलने का भ्रम पाले परमात्मा के लिए केवल पूजा-पाठ आदि का आडम्बर ही करते रहते हैं | इस प्रकार का आडम्बर जीवन में करना उपर्लिखित तीनों मार्गों में से कोई सा भी एक मार्ग नहीं है | कर्म-योग सकाम कर्मों के स्वरूप में परिवर्तन का नाम है, सकाम कर्मों के साथ केवल परमात्मा के नाम पर पूजा-पाठ करना मात्र आडम्बर के सिवाय कुछ भी नहीं है | गीता में उपरोक्त तीन मार्ग बताये गए हैं परन्तु फिर भी इस ग्रंथ को उनमें से एक, कर्म-योग का शास्त्र बताया जाता है क्योंकि इस शास्त्र में समस्त प्रकार के कर्मों का विश्लेषण सही प्रकार से करते हुए कर्म-योग को सबसे अधिक स्पष्ट किया गया है | कर्म-योग ही राजसिक गुणों से युक्त व्यक्तियों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त मार्ग है |
          सकाम कर्मों को करते हुए ही स्वयं के स्वभाव में परिवर्तन कर ज्ञान-योग अथवा भक्ति–योग की ओर बढ़ा जा सकता है | इस संसार में जन्म लेने वाला प्रत्येक प्राणी कर्म करने को विवश है, अतः तीनों मार्ग में से किसी एक मार्ग को पकड़ने की राह भी इस कर्म-मार्ग से ही होकर गुजरती है | कर्म केवल प्रकृति में ही होते हैं और प्रकृति के द्वारा ही किये जाने संभव है | यह मनुष्य शरीर भी इस प्रकृति की ही देन है | इस प्रकार परमात्मा की प्राप्ति के लिए इस मनुष्य शरीर की उपयोगिता सिद्ध होती है | मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी प्रकृति और स्वभाव के अनुसार कर्मों के स्वरूप में परिवर्तन करते हुए कोई सा भी एक मार्ग चुनकर परमात्मा की और अग्रसर हो जाये अन्यथा सकाम कर्म करते हुए तो वह आवागमन से कभी भी मुक्त नहीं हो पायेगा |
कल समापन कड़ी में इस श्रृंखला का सारांश 

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, October 26, 2016

न करोति न लिप्यते-22

           साधारण मनुष्य के बस में ज्ञान की उच्चतम अवस्था को प्राप्त करना लगभग असंभव है | इसीलिए गीता में भगवान श्री कृष्ण ने केवल ज्ञान-योग को ही महत्त्व नहीं दिया है बल्कि दो अन्य योग, कर्म-योग और भक्ति-योग का भी विवेचन किया है | किस के लिए कौन सा मार्ग अपनाना उचित रहेगा, इसका उल्लेख हमें भागवत में भी मिलता है |
          निर्विणानां ज्ञायोगो न्यासिनामिह कर्मसु |
          तेष्वनिर्विणचित्तानां कर्मयोगस्तु कामिनाम् ||
          यदृच्छया मत्कथादौ जातश्रद्धस्तु यः पुमान् |
          न निर्विणो नातिसक्तो भक्तियोगोSस्य सिद्धिदः|| भागवत-11/20/7-8 ||
                 भागवत में उद्धवजी को भगवान कह रहे हैं कि जो लोग कर्मों तथा उनके फलों से विरक्त हो चुके हैं और उनका त्याग कर चुके हैं, वे ज्ञान योग के अधिकारी हैं | इसके विपरीत जिनके चित्त में कर्मों और उनके फलों से वैराग्य नहीं हुआ है, उनमें दुःख बुद्धि नहीं हुई है, वे सकाम व्यक्ति कर्म योग के अधिकारी हैं | जो पुरुष न तो विरक्त हैं और न अत्यंत आसक्त ही है तथा किसी पूर्वजन्म के शुभ कर्म से सौभाग्यवश मेरी लीला-कथा आदि में उसकी श्रद्धा हो गयी है, वह भक्ति योग का अधिकारी है | उसे भक्ति योग के द्वारा ही सिद्धि मिल सकती है |

                 भगवान श्री कृष्ण ने स्पष्ट कर दिया है कि जिस प्रकार व्यक्ति की जैसी मानसिकता होती है, उसे उसी प्रकार के मार्ग को चुनना चाहिए | मार्ग चुनना महत्वपूर्ण है क्योंकि गलत मार्ग चुन लिया जाये तो भटकना हो सकता है | दुःख बुद्धि होने का अर्थ है यह जान लेना कि इस संसार में केवल दुःख ही दुःख है, सच्चा सुख तो परमात्मा में ही है | ज्ञान, कर्म और भक्ति मार्ग पर चलना अलग – अलग माने जा सकते हैं परन्तु सभी का लक्ष्य एक ही होता है- परमात्मा तक पहुंचना |
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, October 25, 2016

न करोति न लिप्यते-21

         हम सब इतना सब कुछ जानते हुए भी स्वीकार नहीं करते हैं कि हम न तो कर्ता हैं और न ही भोक्ता | इस बात को मानने अर्थात स्वीकार करने के लिए ज्ञान और विवेक का होना आवश्यक है | भागवत में इसी बात को स्पष्ट करते हुए भगवान श्री कृष्ण उद्धवजी को कहते हैं -
       एवं विरक्तः शयने आसनाटनमज्जने |
       दर्शनस्पर्शघ्राणभोजनश्रवणादिषु      ||
       न तथा बद्ध्यते विद्वांस्तत्र तत्रादयन् गुणान् |
       प्रकृतिस्थोSप्यसंसक्तो यथा खं सवितानिल: || भागवत-11/11/12-13||
अर्थात ऐसा विचार करके विवेकी पुरुष समस्त विषयों से विरक्त रहता है और सोने-बैठने, घूमने-फिरने, नहाने, देखने, छूने, सूंघने, खाने और सुनने आदि क्रियाओं में अपने को कर्ता नहीं मानता बल्कि गुणों को ही कर्ता मानता है | गुण ही सभी कर्मों के कर्ता-भोक्ता हैं, ऐसा जानकर विद्वान जन कर्म वासना और फलों से नहीं बंधते | वे प्रकृति में रहकर वैसे ही असंग रहते हैं, जैसे स्पर्श आदि से आकाश, जल कि आर्द्रता आदि से सूर्य और गंध आदि से वायु |
               जब आपको सत्य का पता चलता है तब आप किसी भी सूरत में कर्मों के साथ बंध ही नहीं सकते | एक साधारण व्यक्ति के द्वारा इस सत्य को स्वीकार कर पाना लगभग असंभव ही है | ऐसे में वह कर्मों के साथ बंध जाता है और स्वयं को कर्ता समझने की भूल कर बैठता है | वास्तव में गुण ही कर्ता है और गुण ही भोक्ता है | गुण इस शरीर में हैं ऐसे में यह शरीर ही कर्ता और भोक्ता हुआ | जीवात्मा की भूमिका तो मात्र उपस्थिति  और दृष्टा की है | बिना दृष्टा के दृश्य नहीं हो सकता, उसी प्रकार बिना जीवात्मा की उपस्थिति के अकेले गुण कर्म कर ही नहीं सकते | अतः अचेतन देह कभी कर्म कर ही नहीं सकती | ध्यान रहे, जीवात्मा की उपस्थिति का अर्थ मात्र दृष्टा होना है, इस माया के खेल में उतरना और हिस्सा लेना नहीं है | जैसे आकाश में बादल आते-जाते  रहते हैं परन्तु आकाश को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, वह तो सदैव निर्लिप्त रहता है |
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् || 

Monday, October 24, 2016

न करोति न लिप्यते-20

      गुणातीत होने के बारे में एक बात स्पष्ट है कि सब गुण परमात्मा के ही बनाये हुए हैं फिर भी न तो गुण उसमें हैं और न ही वह गुणों में है | इसी प्रकार मनुष्य को भी चाहिए कि चाहे जितने कर्म उसके मन और इन्द्रियों द्वारा उसके शरीर से हुए हो, वह यह स्वीकार करे कि वह न तो इनका कर्ता है और न ही भोक्ता | सब कुछ प्रारब्ध वश उपलब्ध हुआ है और यहाँ तक कि जिस शरीर से कर्म किये जा रहे हैं वह भी प्रारब्ध के अधीन है | श्री मद्भागवत महापुराण में भगवान कहते हैं –
    दैवाधीने शरीरेSस्मिन् गुणभाव्येन कर्मणा |
    वर्तमानोSबुधस्तत्र कर्तास्मीति निबद्ध्यते || भागवत-11/11/10||
अर्थात यह शरीर प्रारब्ध के अधीन है | इससे शारीरिक और मानसिक जितने भी कर्म होते हैं, सब गुणों की प्रेरणा से ही होते हैं | अज्ञानी पुरुष इन कर्मों का कर्ता स्वयं को मान बैठता है और इस प्रकार वह कर्तापन के साथ बंध जाता है |

              व्यक्ति दो प्रकार के कर्म करता है-शारीरिक और मानसिक | शारीरिक कर्म में कर्मेन्द्रियाँ व ज्ञानेद्रियाँ सक्रिय रहकर प्राकृतिक गुणों में परस्पर क्रियाएं करवाते हुए कर्म संपन्न करती है जबकि मानसिक कर्म में केवल मन ही कर्म करने के बारे में विचार करता रहता है | फल दोनों ही प्रकार के कर्मों से प्राप्त होने अवश्यम्भावी है | शरीर प्रकृति की देन है और वह प्रकृति के गुणों से सुसज्जित है | गुण ही गुण के साथ संयोग कर कर्म शरीर से करवाते हैं, यही वास्तविकता है | ऐसे गुण आधारित सभी कर्म में मन सहित सभी इन्द्रियों की भूमिका रहती है, आत्मा की बिलकुल भी नहीं | शरीर प्रारब्ध के अधीन है, अतः गुण भी प्रारब्ध के अधीन हुए | प्रारब्ध पूर्वजन्म के कर्मों से बनता है, ऐसे में वर्तमान जीवन भी पूर्व मानव जीवन के आधार पर मिला है | इस सत्य को स्वीकार कर लेने से जीवात्मा स्वयं ही कर्तापन से दूर हो जाता है अन्यथा वह कर्तापन के साथ बंध जाता है और कर्म उसे अपने साथ लिप्त कर लेते हैं |
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् ||

Sunday, October 23, 2016

न करोति न लिप्यते-19

        यहाँ गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को ज्ञान देते हुए ज्ञानयोगी की समझ को बतला रहे हैं | ज्ञान हो जाने पर जीवात्मा अपने आपको कर्ता न मानकर यह मानता है कि सभी कर्म गुणों की  गुणों के बीच हो रही क्रियाएं ही करवा रही है, इसमें मेरी कोई भूमिका नहीं है अर्थात कर्मों को करने से मेरा कोई लेना देना नहीं है | जीवात्मा के द्वारा ऐसा मान लेना केवल ज्ञान की पराकाष्ठा की स्थिति में ही संभव है | गीता में भगवान श्री कृष्ण ज्ञान के महत्व को बतलाते हुए अर्जुन को यहाँ तक कह गए हैं कि-
           यथैधांसि समिद्धोSग्निर्भस्मसात्कुरुतेSर्जुन |
           ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा || गीता-4/37 ||
         अर्थात हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है | यह श्लोक परमात्मा के ‘न करोति न लिप्यते’ कहने को भी स्पष्ट करता है | जब ज्ञान के द्वारा समझ में आ जाता है कि कर्म केवल गुण ही गुण का उपयोग करते हुए होते हैं, इनके करने अथवा होने में आत्मा का किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं है तो फिर जो जीवात्मा पूर्व में जिन्हें अपने द्वारा किया गये कर्म मानता है, वे सभी कर्म भी जलकर भस्ममय हो जाते है | भस्ममय हो जाने का अर्थ है वह कर्म जीवात्मा द्वारा कभी किया ही नहीं गया था | जब कर्म किया ही नहीं गया था, यह समझ में आ जाता है तो फिर आपको कोई भी कर्म कैसे तो अपने में बाँध सकता है और कैसे लिप्त कर सकता है ? इसी स्थिति को प्राप्त कर लेने को ही गुणातीत होना कहते हैं | अतः कहा जा सकता है कि गुणातीत होने के लिए एक मात्र ज्ञान ही सर्वोत्तम मार्ग है |
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् ||

Saturday, October 22, 2016

न करोति न लिप्यते-18

गुणातीत –
      अब तक के विवेचन से यह स्पष्ट हो गया है कि केवल अपरा प्रकृति अर्थात क्षर पुरुष ही कर्म करता है और वही उनको करने में लिप्त होता है | परमात्मा गुणातीत है | गुणातीत अर्थात जो गुणों से ऊपर हो | प्रकृति ही उस परमात्मा की उपज है, ऐसे में अप्रत्यक्ष रूप से गुण भी परमात्मा के अंतर्गत ही होने चाहिए | सत्य है, परन्तु परमात्मा ने इस संसार को, इस भौतिक जगत को प्रकृति के भरोसे ही छोड़ दिया है | वह तो केवल उदासीन अवस्था में, एक साक्षी की भूमिका में इस संसार की प्रत्येक वस्तु और प्राणी में उपस्थित रहता है | अतः सभी गुण उसके कारण होते हुए भी वह इनमें और ये गुण उसमें नहीं है अर्थात गुण परमात्मा को प्रभावित नहीं करते हैं और न ही परमात्मा इन गुणों के कार्य में अपना दखल देते हैं | यही कारण परमात्मा को गुणातीत बना देता है | उत्तम पुरुष (परमात्मा) की तरह ही अक्षर पुरुष (आत्मा) भी गुणातीत है परन्तु गुणों के संग से, गुणों में आसक्ति हो जाने से वह अपने आपको कर्ता और भोक्ता (जीवात्मा) मानने लगता है, जबकि वास्तव में वह इन दोनों से परे है, गुणातीत है | गुणातीत होने के लिए ज्ञान आवश्यक है | इसी बात को समझाते हुए गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं –
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः |
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते || गीता-3/28 ||

अर्थात हे महाबाहो, गुण विभाग और कर्म विभाग के तत्व को जानने वाला ज्ञानयोगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता |
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् || 

Friday, October 21, 2016

न करोति न लिप्यते-17

कर्मों में लिप्त न होने की बात को महर्षि अष्टावक्र, जनक जी को इस प्रकार से स्पष्ट कर रहे हैं-
      सुखे दुःखे जन्ममृत्यु दैवादेवेति निश्चयी |
      साध्यादर्शी निरायासः कुर्वन्नपि न लिप्यते || अष्टावक्र गीता-11/4||
अर्थात सुख और दुःख, जन्म और मृत्यु देव योग से ही प्राप्त होते हैं, ऐसा निश्चय करने वाला पुरुष साध्य कर्मों को करता हुआ और प्रयास रहित कर्मों को करता हुआ भी उनमें लिप्त नहीं होता |
           सुख-दुःख, जन्म-मरण भाग्यानुसार ही प्राप्त होते हैं | ये साध्य कर्म कर के प्राप्त नहीं किये जा सकते, जीव कर्ता न होकर भोक्ता मात्र है | यह जानकर ज्ञानी व्यक्ति केवल करने योग्य कर्मों को प्रयास रहित करता हुआ उनमें लिप्त नहीं होता है | कर्मों को देव योग से होते हुए मानकर वह कर्तापन से मुक्त हो जाता है | वह जान जाता है कि सब कर्म परमात्मा जनित प्रकृति में और उसके द्वारा ही हो रहे है, मैं तो केवल निमित मात्र हूँ,  मात्र एक द्रष्टा हूँ | इस प्रकार इस प्रकार  जानकार वह चिंता मुक्त और साथ ही साथ अहंकार मुक्त भी हो जाता है |

      इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कर्मफल में आसक्ति ही एक मात्र कारण है जिससे कर्म मनुष्य को अपने साथ बाँध लेते हैं अर्थात लिप्त करते हैं | जब व्यक्ति कर्म होने की क्रिया को तत्व से समझ लेता है, फिर उसे कोई कर्म लिप्त नहीं कर सकता | कर्मों को न करना और लिप्त भी न होना, दोनों को ही संभव करना हो तो आपको प्रकृति के तीनों गुणों से परे हो जाना होगा | इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि प्रकृति का त्याग कर दे, जो कि किसी भी जीवन में संभव ही नहीं है | इसका अर्थ है, प्रकृति के साथ रहते हुए उसके गुणों से अप्रभावित रहना | इस प्रकार गुणों से प्रभावित न होना ही गुणातीत होना है |     
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् ||

Thursday, October 20, 2016

न करोति न लिप्यते-16

कर्मों में लिप्तता –
            परमात्मा ने गीता में कहा है कि न तो मैं कर्मों को करता हूँ और न ही कर्मों में लिप्त होता हूँ | हमने अभी तक जाना है कि गुण ही गुण का उपयोग करते हुए कर्म को सम्पादित करते हैं | अतः कर्म केवल गुणों में ही होते हैं, जो कि प्रकृति का हिस्सा है | जब हम अर्थात जीवात्मा यह मान लेती है कि मैंने ही ये कर्म किये है, यही कर्मों में लिप्तता है | कर्मों में लिप्त होने का अर्थ है, कर्मों को करने की भावना का पैदा होना अर्थात एक कर्म के फलस्वरूप प्राप्त सुख अथवा दुःख के प्रति आसक्ति भाव का पैदा होना जिससे बार-बार उसी प्रकार के कर्म करने की चाह रखना | ऐसी चाह ही कर्मों में लिप्तता कहलाती है | कर्मों में लिप्तता कर्म-बंधन पैदा करती है और इसी प्रकार का कर्म-बंधन व्यक्ति को बार–बार कर्म करने को बाध्य करते हैं | यह कर्म-बंधन कर्मफल के प्रति आसक्ति-भाव को ही व्यक्त करता है जो कि संसार की विभिन्न योनियों में भटकने का एक मात्र कारण है | परमात्मा कहते हैं कि मैं कर्मों में लिप्त नहीं होता हूँ, कोई भी कर्म मुझे अपने में लिप्त नहीं कर सकता क्योंकि किसी भी प्रकार का कर्मफल प्राप्त करने में मेरी आसक्ति नहीं है | गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को यही समझा रहे हैं कि उन्हें कर्म लिप्त क्यों नहीं कर पाते हैं ?
           न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा |
           इति मां योSभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते || गीता-4/14 ||
अर्थात कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिए मुझे कर्म लिप्त नहीं करते | इस प्रकार जो मुझे तत्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बंधता |

            इस श्लोक में कर्म के फल को लेकर आसक्ति की बात कही गयी है | कर्म लिप्त ही तभी करते हैं जब हम उस कर्म से प्राप्त होने वाले फल के प्रति आसक्त हों | एक फल के प्रति अगर हम अपना लगाव दिखाते हैं तो फिर हमारा मन बार-बार उस कर्म को करना चाहेगा | वही कर्म हमसे बार-बार होता रहेगा | इस प्रकार वह कर्म हमें अपने साथ लिप्त कर ही लेता है |
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, October 19, 2016

न करोति न लिप्यते-15

        क्षर पुरुष के गुणों अर्थात प्रकृति के गुणों के संयोग से हो रहे कर्मों को जीवात्मा (अक्षर पुरुष) अपने द्वारा किया गया मानने लगती है और उन कर्मों के फल की भोक्ता भी बन जाती है | इस प्रकार उसकी कर्मों के प्रति आसक्ति ही उसे नयी योनि पाने को विवश करती है | नयी योनि प्रदान करने का कार्य इस भौतिक शरीर में बैठा सर्वव्यापी ईश्वर करता है जो कि उत्तम पुरुष (गीता-15/17) है | परमात्मा ने पुनर्जन्म के लिए निश्चित नियम बना रखे हैं, जीवात्मा उसी के अनुसार नयी योनियों में जाता रहता है | वास्तविकता यह है कि अक्षर पुरुष (आत्मा) भी उत्तम पुरुष (परमात्मा) का ही अंश है, अतः वह भी परमात्मा की तरह न कुछ करता है और न ही किसी में लिप्त होता है | ‘आत्मा ही परमात्मा है’ इस बात को भगवान श्री कृष्ण गीता में स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः |
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च || गीता-10/20 ||
       अर्थात हे अर्जुन ! मैं ही सब भूतों के ह्रदय में स्थित आत्मा हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अंत भी मैं ही हूँ | यह श्लोक स्पष्ट करता है कि इस भौतिक शरीर को चेतनता प्रदान करने वाला हमारा आत्मा, वास्तव में परमात्मा ही है | अतः यह आत्मा भी परमात्मा की तरह ही न तो कुछ करता है और न ही लिप्त होता है |

      जीवात्मा में चित्त आत्मा के साथ एकाकार हो जाता है | यह जीवात्मा ही चित्त के कारण अपने आपको कर्ता, भोक्ता मानने लगती है | करता और भोक्ता मानने के कारण ही  कर्म इसको लिप्त करने में सक्षम हो जाते हैं | चित्त हमारा मन ही तो है और उस मन के कारण ही कर्म होते हैं, आत्मा की इसमें कोई भूमिका नहीं होती | अतः मन ही करता है, मन ही भोक्ता है और मन ही लिप्त होता है | अगर हम मन को नियंत्रण में रखें तो न हम करता बनेंगे और न ही भोक्ता | ऐसे में कोई भी कर्म हमें लिप्त भी नहीं कर पायेगा |
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, October 18, 2016

न करोति न लिप्यते-14

              प्रकृति, जो कि पुरुष (क्षर पुरुष,गीता-15/16) भी है, उसी प्रकृति (क्षर पुरुष) में स्थित अक्षर पुरुष (जीवात्मा) ही कर्म फल का भोक्ता है | जीवात्मा में आत्मा के साथ मन (चित्त) संलग्न रहता है, वही चित्त कर्म फल का भोक्ता है, आत्मा नहीं | आत्मा की भूमिका इन कर्मों के करने और उसके फल को भोगने में कहीं पर भी नहीं होती परन्तु प्रकृति के इन तीन गुणों का संग हो जाने के कारण आत्मा, मन (चित्त) के साथ संयुक्त होने के कारण जीवात्मा बनकर उन कर्मों के फल की भोक्ता स्वयं को मान बैठती है | जैसे कि सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान आदि सब का भोक्ता केवल क्षर पुरुष (मन सहित भौतिक शरीर) ही है, अक्षर पुरुष (जीवात्मा) का स्वयं को भोक्ता मानना केवल प्रकृति के गुणों में आसक्ति के कारण ही संभव होना दिखाई देता है परन्तु वास्तव में आत्मा इन सब प्रकार के द्वंद्व से निर्लिप्त ही है | गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
               पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुंक्ते प्रकृतिजान्गुणान् |
               कारणं गुणसंगोSस्य सदसद्योनिजन्मसु || गीता-13/21 ||
अर्थात प्रकृति में स्थित पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी और बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है |

            किस प्रकार और क्यों जीवात्मा अच्छी अथवा बुरी योनि में जाकर जन्म लेता है ? जीवात्मा अधूरी रही कामनाओं को पूरा करने के लिए तथा मनुष्य योनि में किये गए कर्मों के विभिन्न फल भोगने के लिए ही ऐसा होता है | अगर ऐसा नहीं है अर्थात अगर कोई कामना मनुष्य जीवन में शेष नहीं रहे और न ही जीवन में कोई कर्म ऐसा किया हो जिसका फल भोगना शेष हो तो  फिर नई योनि में जाना संभव ही नहीं होगा | जीवन काल में यही मुक्ति की अवस्था है और देह की मृत्यु के उपरांत मोक्ष होना भी इसी को कहते हैं |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||

Monday, October 17, 2016

न करोति न लिप्यते-13

    भौतिक शरीर और दस इन्द्रियां आदि बाह्य-करण कहलाती है जबकि मन, बुद्धि और अहंकार अन्तः-करण है | मन और बुद्धि किसी भी कर्म को प्रारम्भ करने के लिए जिम्मेवार हैं और यह कर्म इन्द्रियों सहित इस भौतिक शरीर के द्वारा ही किया जाना संभव हो पाता है | मनुष्य के ह्रदय में स्थित ईश्वर की भूमिका ऐसे किसी भी कर्म को करने अथवा कर्म करने के बारे में विचार करने तक में भी नहीं होती है | पूर्वजन्म में किये गए कर्मों के आधार पर नए जन्म में प्राणी वैसे ही गुणों के साथ इस संसार में आता है, जिनके आधार पर वह कर्म कर पूर्वजन्म के कर्म फलों को भोग सके | प्रकृति के ये गुण मन के ही एक भाग, चित्त के साथ नए शरीर में आते हैं | यह चित्त और परमात्मा का शरीर में उपस्थित अंश-आत्मा, दोनों संयुक्त रूप से जीवात्मा कहलाते हैं और यह जीवात्मा ही प्रकृति के इन तीनों गुणों को साथ लेकर नए शरीर में प्रवेश करती है | ध्यान रहे, तीनों गुणों को साथ लेकर, किसी भी एक गुण को पीछे छोड़ कर नहीं |

             जीवात्मा के शरीर में प्रवेश करने के साथ ही प्रकृति के गुण अकेले अथवा आपस में संयोग करते हुए विभिन्न प्रकार के कर्मों को करना/होना प्रारम्भ कर देते हैं | जीवन के प्रारम्भ में ये संयोग केवल पूर्वजन्म के कर्मों के फलों को भोगने के लिए होता है और बाद के जीवन में मन में उठी विभिन्न इच्छाओं और कामनाओं की पूर्ति के लिए होता है | इससे यह स्पष्ट है कि गुण ही गुण के साथ संयोग और वियोग करते हुए विभिन्न कर्म को करते हैं | अन्तः-करण के कारण यह गुणों का संयोग होता है और इस संयोग के कारण विभिन्न प्रकार के कर्म भौतिक शरीर के द्वारा संपन्न होते हैं |
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् ||

Sunday, October 16, 2016

न करोति न लिप्यते-12

प्रकृति के गुण और कर्म –
          प्रकृति के गुण ही व्यक्ति के कर्म निर्धारित करते हैं | गुण और कर्म, इन दोनों के बीच में जो सम्बन्ध है, वही कर्म करने का एक मात्र कारण है | अकेले गुण से भी किसी प्रकार कर्म नहीं किया जा सकता अर्थात कर्म कैसे और किस प्रकार के करने है, यह भी केवल प्रकृति जनित गुणों के द्वारा होने संभव नहीं है | शास्त्रों में इसीलिए गुण और कर्म विभाग के नाम से इनका विस्तृत वर्णन किया गया है | गुण विभाग के अंतर्गत पाँच महा भूत, दसों इन्द्रियां, पाँच इन्द्रियों के विषय, मन, बुद्धि और अहंकार; इन 23 तत्वों का समूह आता है | कर्म-विभाग के अंतर्गत इन 23 तत्वों का आपस में मिल-जुल कर कार्य को संपन्न करना आता है | गुण-विभाग के तत्वों का आपस में ताल-मेल ही कर्म संपादन का मुख्य आधार है | अगर इन 23 तत्वों के मध्य किसी कारण से सामंजस्य नहीं बन पाता है, तो फिर कर्म का स्वरूप ही परिवर्तित हो जाता है |
            प्रकृति के गुण तीन प्रकार के होते हैं-सत्व, रज और तम | प्रकृति से ही हमारे इस भौतिक शरीर का निर्माण होता है | यही कारण है कि इस भौतिक शरीर में भी प्रकृति के तीनों गुण उपस्थित रहते हैं | केवल उन गुणों का अनुपात न्यूनाधिक हो सकता है | जीवन के प्रारम्भ में प्रत्येक गुण की मात्रा पूर्व जन्म से मिले संस्कारों पर निर्भर करती है | मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणी तो उन्हीं संस्कारों से मिले गुणों की मात्रा के अनुसार कर्म करते हुए अपना जीवन बिता देते हैं परन्तु मनुष्य अपनी बुद्धि और विवेक से अपने गुणों को परिवर्तित कर अपना स्वभाव बदल सकता है | वह राजसिक गुणों को सात्विक गुणों में अथवा तामसिक गुणों में बदल सकता है और अपना स्वभाव परिवर्तित कर सकता है | मनुष्य की यही विशेषता उसे अन्य प्राणियों से अलग करती है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||

Saturday, October 15, 2016

न करोति न लिप्यते-11

गीता में भगवान कहते हैं-
            ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेsर्जुन तिष्ठति |
            भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया || गीता-18/61||
अर्थात हे अर्जुन ! शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अंतर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के ह्रदय में स्थित है |
         गीता का यह श्लोक पुनर्जन्म और कर्मों के मध्य के सम्बन्ध को स्पष्ट करता है | कर्म कौन करता है तथा किस प्रकार के करता है और फिर उन कर्मों के आधार पर पुनर्जन्म के रूप में किस प्रकार के प्राणी के रूप में जन्म होना है, यह सब ईश्वर ही तय करता है | वह ईश्वर प्राणी के शरीर से बाहर कहीं अन्य स्थान पर स्थित नहीं है बल्कि उसी प्राणी के साथ उसी के ह्रदय में स्थित है | प्राणी को उसके किये गए कर्मों के अनुसार ही नया जन्म और नयी योनि उपलब्ध होती है अन्यथा नहीं | कहने का तात्पर्य यह है कि कर्म अपने द्वारा किया गया मानना ही पुनर्जन्म का प्रमुख कारण है |

              कर्म भौतिक शरीर नामक यंत्र द्वारा किये जाते हैं और जब आपका मन उस यंत्र का चालक बन जाता है तभी सब कुछ गड़बड़ हो जाता है | चालक का होना आवश्यक है, नहीं तो शरीर कर्म कैसे करेगा ? मनुष्य योनि मिली है तो मन भी साथ में रहेगा परन्तु जब यह मनरूपी चालक शरीर की गुणवता को अपने अनुसार, अपनी इच्छानुसार अलग दिशा देना चाहता है तभी उस इच्छानुसार कराये गए कर्म ही फल प्रदान करने वाले होते हैं | गीता में इनको सकाम कर्म नाम से कहा गया है | जब मन अपने किसी स्वार्थ के बिना इस शरीर से कर्म कराता है अथवा शरीर अपनी गुण-शक्ति के अनुसार कर्म करता है, तो ये सभी कर्म फल तो प्रदान करते हैं परन्तु उन कर्मों के फलस्वरूप विभिन्न शरीरों में भ्रमण नहीं करना होता अर्थात पुनर्जन्म में उन कर्मों के फल भोगने नहीं होते | ऐसे कर्मों को निष्काम-कर्म कहा जाता है |
क्रमशः 
|| ह्हरिः शरणम् || 

Friday, October 14, 2016

न करोति न लिप्यते-10

अपने स्वभाव की स्मृति पाकर अर्जुन भगवान श्री कृष्ण को कहते हैं-
                 नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत |
                 स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव || गीता-18/73 ||
    अर्थात हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशय रहित होकर स्थित हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा |
            अर्जुन को तो स्मृति दिलाने के लिए श्री कृष्ण जैसे मित्र और गुरु मिल गए थे परन्तु हमें अपने स्वभाव को याद दिलाने कोई कृष्ण नहीं आयेंगे | गीता ही हमारी मित्र है और गुरु भी | हमें अपने स्वभाव में निरंतर सुधार करते रहना होगा और उस स्वभाव को सदैव स्मृति में बनाये रखना होगा | इस कार्य को करने में गीता की भूमिका महत्वपूर्ण है |

              वर्तमान जीवन का यही स्वभाव, संस्कार बनकर पुनर्जन्म पाकर नए जीवन में आता है और नए कर्म करना प्रारम्भ करवाता है | मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणी उसी संस्कार के वशीभूत होकर कर्म करते रहते हैं और कर्म-बंधन से उत्पन्न कर्म-फलों को भोगकर वह अपना शरीर त्याग देते हैं | परन्तु मनुष्य के साथ केवल ऐसा ही नहीं है | वह पूर्व-जन्म के कर्म के फलों को तो भोगता ही है, साथ ही साथ नए प्रकार के कर्म करते हुए अपने पूर्वजन्म के संस्कार से बने वर्तमान जीवन के प्रारम्भिक स्तर के स्वभाव में सतत परिवर्तन करते हुए अपना नया स्वभाव बना सकता है | यह नया स्वभाव देह त्यागने पर पुनः संस्कार बनकर नए जीवन में प्रारम्भिक स्तर के स्वभाव का निर्माण करता है | 
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||

Thursday, October 13, 2016

न करोतो न लिप्यते-9

                आप तनिक एक कल्पना कीजिये, अगर अर्जुन युद्ध-भूमि से हट जाता और कौरवों तथा पांडवों में युद्ध प्रारम्भ हो जाता तो क्या होता ? श्री कृष्ण अगर उसको ज्ञान नहीं भी देते, तो क्या अर्जुन युद्ध से पलायन कर जाता ? नहीं, युद्ध के प्रारम्भ हो जाने पर अर्जुन मूक दर्शक बना बैठा रह ही नहीं सकता था | उसे उसका स्वभाव युद्ध-भूमि में अवश्य ही खींच लाता | ऐसी परिस्थिति में युद्ध का परिणाम क्या रहता, यह अलग बात है | इसी बात को मैं एक अन्य उदाहरण से स्पष्ट करना चाहूँगा | एक कन्या जो कि बचपन से ही एक कुशल नृत्यांगना है, वह विवाहोपरांत अपने ससुराल में नृत्य करने में एक प्रकार की झिझक महसूस करती है | परन्तु जब किसी समारोह में नृत्य और गायन का कार्यक्रम होता है, उसके पाँव बैठे-बैठे ही थिरकने लगते हैं और जब नृत्य अपने चरम पर होता है तब वही सकुचाई स्त्री उसी नृत्यांगन में सभी प्रकार के संकोच को त्यागकर नृत्य करने लग ही जाती है | कौन उसे ऐसा करने को विवश करता है ? उसका संकोच उसे कुछ समय के लिए नृत्य करने से रोक सकता है परन्तु कुछ समय पश्चात उसका स्वभाव ही उसे नृत्य करने को विवश कर देता है |

              मोह मनुष्य के स्वभाव को परिवर्तित करने का प्रयास करता अवश्य है क्योंकि मोह में अंधा हो जाने से उसे अपने स्वभाव की स्मृति नहीं रहती या यों कहा जा सकता है कि मोह में फंसा व्यक्ति पलायन वादी हो जाता है और वह वास्तविकता का अर्थात सम्मुख उपस्थित हुई परिस्थिति का अपने स्वभाव से मुकाबला करने के स्थान पर उससे दूर भागने का असफल प्रयास करता है | असफल प्रयास मैं इसलिए कहूँगा क्योंकि स्वभाव से दूर भागना किसी भी मनुष्य के लिए असंभव ही है | यही कारण है कि भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को उसका स्वभाव याद दिलाया और हमें अमूल्य ग्रन्थ गीता के रूप में मिल गया | इसीलिए गीता को प्रबंधन-शास्त्र (Book of management) भी कहा  जाता है | प्रबंधन (Management) की शिक्षा भी हमें गीता की तरह ही ऐसा ही कुछ सिखाती है, जिससे विद्यार्थी को प्रकृति के गुणों से निर्मित अपना स्वभाव स्मरण हो जाये और वह अपनी क्षमता को पहचान ले | 
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, October 12, 2016

न करोति न लिप्यते-8

       जब कर्म से स्वभाव अपना आकार ले लेता है तब मनुष्य उसी के अनुसार आचरण और कर्म करने को विवश हो जाता है | यहाँ आकर स्वभाव की भूमिका कर्मों को करने में स्पष्ट हो जाती है | नवजात शिशु स्वयं किसी भी प्रकार का कर्म नहीं करता है, उससे कुछ कर्म स्वतः ही होते हैं लेकिन बढ़ती उम्र के साथ-साथ वह कर्म भी करना सीख जाता है, जिसमें प्रकृति के गुणों की ही मुख्य भूमिका रहती है | जब शिशु किसी विशेष कर्म के प्रति आसक्त हो जाता है, तब वही कर्म वह बार-बार दोहराता जाता है | एक ही प्रकार के कर्म को बार-बार दोहराते जाने से ही धीरे-धीरे उसके इस जन्म के स्वभाव का निर्माण होता जाता है | आगे के जीवन-काल में उसी स्वभाव के अनुरूप उसका आचरण होगा और वह उसी के अनुसार कर्म करने को बाध्य होगा | उदाहरण स्वरूप हम अर्जुन के जीवन को ही लेते हैं | अर्जुन बाल्यकाल से ही धनुर्विद्या में पारंगत हो गया था और पूर्व जन्म के संस्कार से क्षत्रिय कुल में उसका जन्म हुआ था | अतः युद्ध कौशल उसका स्वभाव था परन्तु अपने सगे सम्बन्धियों को कुरुक्षेत्र में देखकर वह पारिवारिक मोह से ग्रस्त हो गया था, जिस कारण से उसने युद्ध करने से इनकार कर दिया था | भगवान उसे उसका वही क्षत्रिय स्वभाव याद दिलाते हुए कहते हैं कि-
       यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे |
       मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति || गीता-18/59 ||
अर्थात जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ तो तेरा यह निश्चय मिथ्या है; क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे जबरदस्ती युद्ध में लगा देगा |
            पारिवारिक मोह अहंकार कैसे हो सकता है ? यहाँ अर्जुन को परिवार का मोह परेशान नहीं कर रहा है बल्कि उसने अपने जीवन में जो भी तथाकथित ज्ञान प्राप्त किया था उसके अनुसार उसे परिवारजनों के विरुद्ध युद्ध करना अनुचित प्रतीत हो रहा है | उसे अपने उस ज्ञान का अहंकार हो गया था और उसने परिवारजनों के विरुद्ध युद्ध से होने वाली संभावित हानि को देखते हुए युद्ध करने से इनकार कर दिया था | इस ज्ञान के अहंकार के कारण अर्जुन को दुःखी देखकर भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
     अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे |
    गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः || गीता-2/11 ||

अर्थात हे अर्जुन ! तू शोक न करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और ज्ञानियों के से वचन कहता है; परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए पण्डितजन शोक नहीं करते |  
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, October 11, 2016

न करोति न लिप्यते-7

            प्रकृति में ये गुण आते कहाँ से हैं ? अब यह प्रश्न ‘कर्म के कर्ता’ को जानने के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है | इस प्रकृति में तीन गुण सदैव ही उपस्थित रहते हैं जिन्हें सत्व, रज और तम गुण के नाम से जाना जाता है | इन तीन गुणों की ही भूमिका किसी भी प्रकार के कर्म को सम्पादित करने में रहती है | इस धरा पर मनुष्य मात्र ही नहीं बल्कि जन्म लेने वाला प्रत्येक प्राणी ही कर्म करने को विवश है और यह कर्म वह गुणों के वशीभूत होकर ही कर सकता है, अन्यथा नहीं | इस बात को स्पष्ट करते हुए गीता में भगवान कहते हैं-
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् |
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः|| गीता-3/5 ||
अर्थात निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षण मात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृतिजन्य गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है |

        कितनी सत्य बात कही है, भगवान श्री कृष्ण ने | हमें भी कई बार अनुभव होता है, अपने इस क्षण भंगुर जीवन में कि कैसे हमारे द्वारा कई कर्म जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे और स्वतः ही हो जाते हैं | ऐसे कर्मों का भान भी हमें नहीं रहता और कर्म हो भी जाते हैं | यह अनुभव केवल उन मनुष्यों को ही हो सकता है, जिनकी आध्यात्मिक सोच हो और जिन पर परमात्मा की असीम कृपा हो अन्यथा तो सभी मनुष्य प्रकृति के इन गुणों से मोहित होकर स्वयं को ही प्रत्येक कर्म का कर्ता मान बैठते हैं | ’प्रकृतेर्गुणसम्मूढा: सज्जन्ते गुणकर्मसु |(गीता-3/29) अर्थात प्रकृति के गुणों से मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं | कहने का अर्थ यह है कि प्रकृति के गुणों से प्रभावित होकर मनुष्य कर्म के प्रति आसक्त हो जाता है और कर्मों में आसक्त होने का अर्थ है कर्म का कर्ता स्वयं को मान लेना | जब आप किसी कर्म के कर्ता बन बैठते हैं तब आपमें यह कर्मासक्ति सतत बढ़ती ही जाती है और आप एक ही प्रकार के कर्म को बार-बार दोहराते रहते हैं | ऐसे एक ही प्रकार के बार-बार किये जाने वाले कर्म आपकी प्रकृति के गुणों तक में बहुत बड़ा परिवर्तन ला देते हैं और वह गुणों में हुआ परिवर्तन आपके स्वभाव को भी परिवर्तित कर देता है क्योंकि प्रकृति के गुण ही व्यक्ति का स्वभाव निर्धारित करते हैं | 
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||

Monday, October 10, 2016

न करोति न लिप्यते-6

          अपरा और परा अर्थात प्रकृति और पुरुष में कौन कर्म करता है ? कर्म तो इन दोनों में से कोई एक अवश्य ही करता है | आइये, हम जानने का प्रयास करें कि शरीर (प्रकृति) कर्मों को करता है अथवा जीवात्मा (पुरुष) | यह तो स्पष्ट है कि उत्तम पुरुष (परमात्मा) तो कर्म नहीं करता है | इस प्रश्न का उत्तर हमें स्वयं भगवान श्री कृष्ण ही दे रहे हैं | वे अर्जुन को कह रहे हैं-
  प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः |
  अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते || गीता 3/27 ||
अर्थात वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा ही किये जाते है तो भी जिसका  अंतःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी ’मैं कर्ता हूँ’ ऐसा मानता है |

             गीता का ऊपर उल्लेखित यह श्लोक स्पष्ट रूप से कर्मों को करने के लिए प्रकृति को  जिम्मेवार मानता है | प्रकृति के गुणों द्वारा ही समस्त प्रकार के कर्म किये जाते हैं | इन कर्मों को करने में पुरुष की कोई भूमिका नहीं होती है | प्रकृति इस भौतिक शरीर का निर्माण करती है और यह शरीर ही सभी प्रकार के कर्म करता है | साथ ही साथ यह श्लोक इस बात को भी स्पष्ट करता है कि जिस मनुष्य का अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, वह अज्ञानी पुरुष अपने आपको कर्ता मानता है | हमारे इस भौतिक शरीर के दो भाग हैं- बाह्य करण और अन्तःकरण | बाह्य करण में पाँच भौतिक तत्व और इन्द्रियां आ जाती है जबकि अन्तःकरण में मन, चित्त, बुद्धि और अहंकार आते हैं | बाह्य-करण अर्थात इन्द्रियों सहित पाँच भौतिक तत्व अकेले तो किसी प्रकार का कर्म करने में सक्षम नहीं है, अगर वे अकेले ही सक्षम होते तो किसी भी प्राणी की मृत देह भी कर्म करती रहती | इस भौतिक शरीर के कर्म करने में सक्षम न होने के कारण अब कर्म करने में अन्तः-करण की भूमिका होने को बल मिलता है | यह श्लोक कहता है कि अहंकार से मोहित होने के कारण व्यक्ति अर्थात जीवात्मा स्वयं को कर्ता समझता है परन्तु वास्तव में कर्म केवल प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||