Wednesday, June 15, 2016

आपसे बात-

            कल ही “भक्ति’ विषय पर लेख का समापन हुआ है | इस पर प्रतिदिन प्रतिक्रियाएं, सुझाव और प्रति प्रश्न प्राप्त होते रहें हैं | पहले यह विचार आया था कि प्रतिक्रियाओं और प्रश्नों का उत्तर तत्काल दे दूँ परन्तु फिर विचार किया कि जो भी प्रश्न आये थे, उनका कुछ शब्दों मात्र में उत्तर देना अपर्याप्त रहेगा | एक प्रश्न श्री पंकज अग्रवाल ने पूना से किया है कि श्रेय और प्रेय मार्ग को और अधिक स्पष्ट करूँ | श्री पंकज अग्रवाल कई वर्षों से मेरे ब्लॉग के पाठक है और समय समय पर प्रश्न पूछ कर अपनी जिज्ञासा शांत करते रहते हैं | प्रेय और श्रेय मार्ग के बारे में मेरे स्थानीय मित्रों को भी और अधिक स्पष्टता के साथ जानने की उत्कंठा है | वैसे यह विषय भी भक्ति से ही सम्बंधित है और अल्प रूप से इसको महर्षि शांडिल्य के द्वारा दी गई भक्ति की परिभाषा के साथ स्पष्ट करने का प्रयास किया था | यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति उन अल्प शब्दों से श्रेय और प्रेय के बारे में स्पष्ट रूप से जान सके | अतः मुझे आवश्यकता महसूस हो रही है कि इस विषय को अपने अल्प ज्ञान से और अधिक स्पष्ट करने का प्रयास करूँ |
        इसी प्रकार सुजानगढ़ से वकील साहब राहुल देव शर्मा ने नवधा भक्ति के बारे में विस्तार से जानने की जिज्ञाषा की है | पहले प्रश्न श्री पंकज ने किया था, अतः पहले हम  श्रेय और प्रेय पर चर्चा करेंगे और उसके पश्चात राहुल की नवधा भक्ति पर |
               अन्य प्रश्नों के उत्तर आपको भक्ति के शेष बचे भाग को प्रस्तुत करने के बाद उनको पढ़ने से मिल ही गए होंगे | हाँ, एक प्रश्न कल ही मिला है, एक मित्र ने पूछा है कि पाप की ज़ंजीर तो समझ में आती है परन्तु पुण्य भी जंजीर की तरह बांधता है, ऐसा कैसे संभव है ? हाँ, दोनों ही ज़ंजीर है क्योंकि पुण्य का फल भी व्यक्ति को भोगना पड़ता है | जिस भी कर्म का फल भोगना पड़ता है, वह प्रत्येक कर्म जंजीर बन कर बंधन में ही डालता है | मैं आपको पुनः ले जाना चाहूँगा, भक्त प्रह्लाद चरित्र की और | प्रह्लाद जब भगवान नृसिंह से ‘जीवन में कभी कामना का अंकुरण नहीं हो’, यह वर मंगाते हैं, तब परमात्मा तथास्तु कह देते है, परन्तु फिर भगवान उन्हें कहते हैं कि-
               भोगेन पुण्यं कुशलेन पापं
                       कलेवरं कालजवेन हित्वा |
               कीर्ति विशुद्धां सुर्लोकगीतां
                        विताय मामेष्यसि मुक्तबन्ध: || भागवत 7/10/13 ||
अर्थात भोग के द्वारा पुण्य कर्मों के फल और निष्काम कर्मों के द्वारा पाप का नाश करते हुए समय पर शरीर का त्याग  करके तुम मेरे पास आ जाओगे | देवलोक में भी लोग तुम्हारी विशुद्ध कीर्ति का गान करेंगे |
      यह श्लोक स्पष्ट करता है कि पुण्य कर्म भी एक बंधन है, जिनके फल भोगने के उपरांत ही मुक्ति संभव है | प्रह्लाद के पुण्य कर्म किये हुए थे इसीलिए नृसिंह भगवान ने उन्हें उनका भोग प्राप्त कर लेने का आदेश दिया | इस श्लोक में एक विशेष बात और है- पाप का नाश भी हो सकता है, निष्काम कर्मों से परन्तु पुण्य का फल तो प्रत्येक परिस्थिति में भोगना ही पड़ता है |
       इन प्रश्नों के अतिरिक्त कुछ सुझाव और प्रतिक्रियाएं भी प्राप्त हुई है, जिनको मैं ह्रदय से स्वीकार करता हूँ और भविष्य में प्रयास करूँगा कि प्रत्येक विषय को साधारण और सरल भाषा में आपके सामने प्रस्तुत करूँ | आपकी प्रतिक्रियाएं, सुझाव और प्रश्न आदि सभी मेरा मार्गदर्शन करते हैं | आप सभी का आभार व अभिनंदन | कल से ‘प्रेय से श्रेय की ओर‘ विषय पर बात करेंगे |
                                                        डॉ. प्रकाश काछवाल
                         || हरिः शरणम् ||

             

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