Tuesday, June 21, 2016

प्रेय से श्रेय की ओर-6

कठोपनिषद के यही पाँच श्लोक श्रेय और प्रेय के अंतर को समझने के लिए पर्याप्त हैं | संसार में जन्म लेने के बाद मनुष्य की एक प्रकार की दौड़ प्रारम्भ हो जाती है | संसार में आकर इन्द्रियों के सुख प्राप्त करने की दौड़ को आधुनिक युग में विकास कहा जाता है | तुमने कितना धन कमा लिया, कितना बड़ा घर है तुम्हारे पास, कितनी और कैसी कैसी गाड़ियाँ है, कितने पुत्र हैं और क्या करते हैं आदि आज विकास के मापदंड बन चुके हैं | आत्मिक उत्थान कितना किया आपने, इससे किसी को कोई मतलब नहीं है | हमारे यहाँ सहस्राब्दियों से ही आत्मिक उत्थान को सर्वोत्तम उत्थान माना जाता है और आज----- आज आध्यात्मिक उत्थान की बात भी करने वाले को दकियानूसी कहा जाने लगा है | इसके लिए हम स्वयं ही उत्तरदाई है क्योंकि आज हम श्रेय पर प्रेय को अधिक महत्त्व देने लगे हैं |
कठोपनिषद की दूसरी वल्ली के पाँच प्रारम्भिक श्लोकों विद्या और अविद्या नाम से  दो शब्द आये हैं | अविद्या वह कथित ज्ञान है जो हमारा परिचय भौतिक वस्तुओं, अनित्य संसार और सांसारिकता से करवाता है | इसी अविद्या के कारण व्यक्ति भौतिक वस्तुओं और इस मायावी संसार में सुख ढूंढता है | इसी अविद्या को धारण करना ही प्रेय मार्ग है | जबकि विद्या वह ज्ञान है जो हमें अपने आप से परिचित करवाता है जिससे हम आत्म-कल्याण कर सकें | इस विद्या को प्राप्त कर लेना ही श्रेय मार्ग पर चलना है |आज की शिक्षा हमें अविद्या के अतिरिक्त कुछ भी उपलब्ध नहीं करवा रही है | हम आज की शिक्षा प्राप्त कर भौतिक सुख-सुविधाएँ भले ही जुटा लें, अपन जीवन भली-भांति निर्वाह कर लें परन्तु यह शिक्षा कभी भी हमें आत्म-साक्षात्कार नहीं करवा सकती | अतः इस शिक्षा को अविद्या कहा गया है | जो शिक्षा से हमें अपने होने का, आत्मा और परमात्मा का ज्ञान उपलब्ध करवाए वही वास्तविक विद्या है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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