भक्ति शब्द की व्याख्या विभिन्न महापुरुषों ने की
है, आइये उनको भी जान लेते हैं | कबीर ‘श्वास श्वास में राम’ को भक्ति कहते हैं जबकि
तुलसी के हनुमान प्रति पल अपने प्रभु के ध्यान में ही खोये रहना चाहते हैं |
हनुमान कहते हैं - ‘कह हनुमंत बिपत्ति प्रभु सोई | जब तब सुमिरन भजन न होई ||’ आचार्य
श्री गोविन्द राम शर्मा प्रेमाभक्ति की बात कहते हैं जिसका उदाहरण सबसे बड़ा आज के
युग में मीरा बाई है | मीरा बाई कहती है- ‘मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरा न कोई |’
देवी भागवत के अनुसार ‘पूजनियों के प्रति अनुराग या प्रेम का भाव रखना ही भक्ति है
|’ यहाँ पूजनीय शब्द में माता, पिता, गुरु, स्वामी इत्यादि सभी आ जाते हैं | श्रवण
कुमार की मातृ-पितृ
भक्ति, भामाशाह और पन्ना धाय की स्वामी-भक्ति, शिवाजी और लक्ष्मी बाई की देश-भक्ति
आदि भी भक्ति के उदाहरण है |
परन्तु इन सबसे अलग और भक्ति की सही
परिभाषा महर्षि शांडिल्य की है | वे कहते हैं - ‘भक्ति वह है, जिसमें ईश्वर के
प्रति परा अनुरक्ति हो | प्रेय और श्रेय मार्गों के अनुसार अनुरक्तियां भी दो प्रकार
की होती हैं – अपरा (सांसारिक) और परा (ईश्वरीय) | अपरा अनुरक्ति का सम्बन्ध प्रेय
मार्ग से है | यह जीव को विविध सांसारिक प्रलोभनों , यथा- लोकेषणा (संसार में सुखी रहने की इच्छा ), पुत्रेषणा
(पुत्र प्राप्ति की अभिलाषा ) और वित्तेषणा (धन की कामना ) में भटकाकर उसका
सर्वस्व हनन करती है | अतः महर्षि ने परा अनुरक्ति का उल्लेख किया है | परा
अनुरक्ति ईश्वरीय प्रेम है | चित्त वृतियों को ईश्वर की और लगायें जैसे बुद्ध और
महावीर ने समस्त राज सुख का त्याग करके किया था | अतः संसार के समस्त सुख त्यागकर
परमात्म-भक्ति में लीन हो जाना ही परम सुख है, परम आनंद है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
प्रेय और श्रेय मार्ग - इस विषय को थोडा और स्पष्ट करके बता सकते है क्या ?
ReplyDeleteपंकज