महर्षि शांडिल्य की
बात की पुष्टि नारद के कथन से भी होती है | नारद-पुराण में भी लिखा है कि परमात्मा
के प्रति प्रेम ही भक्ति है | इस परम भक्ति, जो कि अतिशय दुर्लभ है, को प्राप्त हो
जाने वाला साधक, सिद्ध पुरुष; अमर तथा सर्वथा संतुष्ट हो जाता है | भक्ति की अनुभूतियों
को स्पष्ट करते हुए नारद कहते हैं-
‘यत्प्राप्य न किन्चिद्वांछति न शोचति, न द्वेष्टि,
न रमते, नोत्साही भवति |’
अर्थात ‘भक्ति को
प्राप्त करके व्यक्ति किसी अन्य वस्तु की अभिलाषा नहीं करता | वह न तो किसी प्रकार
की चिंता करता है, न किसी के प्रति द्वेष भाव रखता है, न किसी के प्रति आसक्त होता
है और न ही संसार के अन्य किसी पदार्थ के लिए मन में उत्साह रखता है |’
पंडित मधुसूदन शास्त्री ने भी अपने
ग्रन्थ ‘भक्ति-रसायन’ में परमात्मा के प्रति अक्षुण्ण प्रेम को ही भक्ति बताया है |
श्री मद भागवत गीता में निष्काम और केवल परमात्मा के प्रति सतत बनी रहने वाली
भक्ति पर बल दिया है | जिसे अनन्य भक्ति नाम से कहा गया है | विष्णु पुराण में भक्त
प्रह्लाद के नरसिंह भगवान से किये गए निवेदन में भक्ति की बड़ी ही सुन्दर व्याख्या
है | भक्त प्रह्लाद कहते हैं – ‘हे प्रभो ! अज्ञानी पुरुषों की जैसी तीव्र आसक्ति
सांसारिक विषय वासनाओं के प्रति होती है, आपका स्मरण करते हुए मेरे ह्रदय में वैसी
ही आसक्ति आपके प्रति सदैव बनी रहे |’
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिःशरणम् ||
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