Saturday, June 4, 2016

भक्ति-क्रमशः 4

                        वैसे देखा जाये तो प्रेम और भक्ति में कोई अंतर नहीं है | भक्ति का अर्थ है, किसी के साथ भक्त होना अर्थात एक प्रकार का बंधन | बंधन जब संसार के साथ होता है  तब वह बंधन ही कहलाता है और जब यही बंधन परमात्मा के साथ होता है, तब भक्ति कहलाता है |संसार से प्रेम एक बंधन है जबकि परमात्मा से प्रेम भक्ति है | संसार में बंधु-बांधव, पति-पत्नी और रिश्ते-नाते आदि से प्रेम एक प्रकार का बंधन ही पैदा करता है क्योंकि हम इनमे इतना अधिक उलझ जाते हैं कि इस संसार को ही सब कुछ समझ बैठते हैं | संसार जड़ है और इससे प्रेम करना सिवाय बधनों में उलझने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | यह बंधन आपको संसार के सुखों और दुखों दोनों की ही अनुभूति देता है |
                       बंधन आपको संसारके आवागमन में डाले रखता है जबकि भक्ति आपको मुक्ति दिलाती है | शाब्दिक अर्थ लें तो भक्ति और मुक्ति एक दूसरे के विलोम शब्द है | भक्ति का अर्थ है-बंधन जबकि मुक्ति का अर्थ है बंधन-मुक्त | परमात्मा से प्रेम करना सत से प्रेम करना है, जो नित्य है उससे प्रेम करना है | जो नित्य है उससे आपका कोई बंधन हो ही नहीं सकता उससे तो केवल शाश्वत प्रेम ही हो सकता है | यह प्रेम परमात्मा के साथ आपको बांधता अवश्य है, परन्तु यह बंधन जड़ पदार्थों अर्थात अनित्य से आपको मुक्ति दिलाता है | यही कारण है कि संसार से प्रेम आपको बांधता है जबकि परमात्मा से प्रेम आपको मुक्त करता है |
                           महर्षि शांडिल्य ने जो दो अनुराक्तियाँ बताई हैं - प्रेय  और श्रेय मार्ग की, उनमे प्रेय मार्ग संसार से प्रेम है और श्रेय मार्ग परमात्मा से प्रेम है | प्रेय मार्ग में संसार से अनुरक्ति है जबकि श्रेय मार्ग में परमात्मा से अनुरक्ति है | अतः भक्ति की परिभाषा जो शांडिल्य ने दी है, वह उचित है |
                           प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
                                 || हरिः शरणम् ||

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