भगवान की भक्ति, भाव के लिए करनी
चाहिए, भोग
के लिए नहीं । भोगार्थ भक्ति करने वाला भक्त नहीं बल्कि बनिया है, जो देता तो कम
है किन्तु बदले में अधिक पाने की लालसा रखता है । ध्यान रखें, अपने लिए भगवान को कभी
कष्ट न दिया जाये ।
भगवान नरसिंह ने जब प्रह्लाद जी से कुछ माँगने को कहा तो प्रह्लाद ने कहा हे प्रभू यदि आप देना ही चाहते है तो यही दीजिए –
भगवान नरसिंह ने जब प्रह्लाद जी से कुछ माँगने को कहा तो प्रह्लाद ने कहा हे प्रभू यदि आप देना ही चाहते है तो यही दीजिए –
“यदि रासीश में
कामान् वरांस्त्वं वरदर्षभ |
कामनां हृदयसंरोहं भवतस्तु वृणे वरम् !!"(भागवत 7/10/7)
मेरे हृदय में कभी किसी कामना का बीज ही अंकुरित न हो, मेरे हृदय में किसी भी कामना का अंकुर ही न रहे , ऐसा वरदान मुझे दे । प्रह्लाद ने "कामस्य" नहीँ बल्कि "कामनाम् " कहा था । वही हमें भी प्रभु से कहना चाहिए । इन्द्रिय सुख की इच्छा मन में नहीं जगानी चाहिए । ऐसा सादगी पूर्ण जीवन जीने का प्रयास हो जिससे मन में किसी भी प्रकार के सुख को पाने की वासना ही न जगे । व्यक्ति अपनी वासनानुसार विषयसुख का उपभोग करने को व्यग्र तो होता है किन्तु वासना को तृप्त करने पर वह और अधिक भड़कती है ।सांसारिक सुख का उपभोग करने की इच्छा ही महा दुःख है। जिसे किसी सुख की इच्छा नहीं है वही सच्चा सुखी है । सांसारिक सुख की इच्छा मन में कभी पैदा ही न हो पाए, ऐसा समझना ही सुख है । सुख की इच्छा होते ही मनुष्य की बुद्धि शक्ति भी क्षीण होने लगती है । अतः मन पर भक्ति का अंकुश होना चाहिए ।
वासना की जागृति तेज का नाश करती है सो ऐसी कृपा करो कि मेरे मन में वासना जागे ही नहीं ऐसा वरदान प्रह्लाद ने माँगा तथा हमें भी यही माँगना चाहिए ।
गीता कहती है - सर्व काम्यकर्मो का और सर्व इच्छाओं का त्याग ही सन्यास है ।
" काम्यानां कर्मणां न्यासं सन्यासं कवयो विदुः ।"(गीता 18/2)
जीव निष्काम होता है तो उसका जीव भाव नष्ट होता है। जब जीव भाव नष्ट होता है तो वह भगवान के साथ एकाकार हो जाता है, जीव ही ईश्वर रुप बनता है । कभी कभी हम नैष्कर्म्यता (निष्कर्मता) को त्यागकर पुण्य-पाप के बारे में सोचने लग जाते हैं | पुण्य भी मुक्ति में बाधक है और पाप तो बाधक है ही । पाप लोहे की जंजीर है तो पुण्य स्वर्ण की जंजीर है । इन दोनों प्रकार की जंजीरों को काटकर ही हम परमात्मा को पा सकते है अर्थात पाप-पुण्य दोनों के बंधनों को नष्ट करने पर ही भगवत धाम पहुँचा जा सकता है अन्यथा नहीं ।
कामनां हृदयसंरोहं भवतस्तु वृणे वरम् !!"(भागवत 7/10/7)
मेरे हृदय में कभी किसी कामना का बीज ही अंकुरित न हो, मेरे हृदय में किसी भी कामना का अंकुर ही न रहे , ऐसा वरदान मुझे दे । प्रह्लाद ने "कामस्य" नहीँ बल्कि "कामनाम् " कहा था । वही हमें भी प्रभु से कहना चाहिए । इन्द्रिय सुख की इच्छा मन में नहीं जगानी चाहिए । ऐसा सादगी पूर्ण जीवन जीने का प्रयास हो जिससे मन में किसी भी प्रकार के सुख को पाने की वासना ही न जगे । व्यक्ति अपनी वासनानुसार विषयसुख का उपभोग करने को व्यग्र तो होता है किन्तु वासना को तृप्त करने पर वह और अधिक भड़कती है ।सांसारिक सुख का उपभोग करने की इच्छा ही महा दुःख है। जिसे किसी सुख की इच्छा नहीं है वही सच्चा सुखी है । सांसारिक सुख की इच्छा मन में कभी पैदा ही न हो पाए, ऐसा समझना ही सुख है । सुख की इच्छा होते ही मनुष्य की बुद्धि शक्ति भी क्षीण होने लगती है । अतः मन पर भक्ति का अंकुश होना चाहिए ।
वासना की जागृति तेज का नाश करती है सो ऐसी कृपा करो कि मेरे मन में वासना जागे ही नहीं ऐसा वरदान प्रह्लाद ने माँगा तथा हमें भी यही माँगना चाहिए ।
गीता कहती है - सर्व काम्यकर्मो का और सर्व इच्छाओं का त्याग ही सन्यास है ।
" काम्यानां कर्मणां न्यासं सन्यासं कवयो विदुः ।"(गीता 18/2)
जीव निष्काम होता है तो उसका जीव भाव नष्ट होता है। जब जीव भाव नष्ट होता है तो वह भगवान के साथ एकाकार हो जाता है, जीव ही ईश्वर रुप बनता है । कभी कभी हम नैष्कर्म्यता (निष्कर्मता) को त्यागकर पुण्य-पाप के बारे में सोचने लग जाते हैं | पुण्य भी मुक्ति में बाधक है और पाप तो बाधक है ही । पाप लोहे की जंजीर है तो पुण्य स्वर्ण की जंजीर है । इन दोनों प्रकार की जंजीरों को काटकर ही हम परमात्मा को पा सकते है अर्थात पाप-पुण्य दोनों के बंधनों को नष्ट करने पर ही भगवत धाम पहुँचा जा सकता है अन्यथा नहीं ।
|| हरिः शरणम् ||
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