Wednesday, June 8, 2016

भक्ति-8 क्रमशः भक्ति और संसार

भक्ति और संसार-
            भक्ति एक ऐसा शब्द है, जिसके बारे में अभी भी कई भ्रांतियां बनी हुई है | किसी भी प्रकार की पूजा-पाठ और कर्म-कांड को भक्ति की श्रेणी में रख दिया जाता है, जो कि नितांत ही अनुचित है | परमात्मा की भक्ति और परमात्मा के लिए किये जा रहे कर्म-कांड तथा पूजा-अर्चना में मौलिक रूप से बहुत अंतर है | केवल मात्रात्मक ( Quantitative ) ही नहीं, गुणात्मक (Qualitative ) अंतर भी है | आज के इस भौतिक युग में ईश्वर की पूजा उपासना भी दिखावा बनती जा रही है | समयाभाव के कारण आज ईश्वर के लिए प्रार्थना करने के लिए भी मूल्य देकर प्रार्थी तक खरीदे जा रहे हैं | जिसके द्वारा प्रार्थना की जाती है, वह तो सांसारिक गतिविधियों में इतना उलझा हुआ है कि स्वयं उसे भी ज्ञान नहीं रहता कि प्रार्थना कैसे और किस प्रकार की जा रही है ? प्रश्न यही है कि क्या ऐसी प्रार्थना को भक्ति और प्रार्थी को भक्त कहा जा सकता है ? यह ऐसे लोगों का एक उदाहरण है जिनके पास कथित तौर पर प्रत्येक अप्राप्य को प्राप्त करने की आर्थिक और सामाजिक क्षमता है, परन्तु उनके पास स्वयं के द्वारा परमात्मा को स्मरण करने का समय तो क्या अपने व अपने परिवार तक के लिए समय नहीं है |
         श्री मद भागवत महा पुराण में भगवान कहते हैं-
                  अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थितः सदा |
                  तमवज्ञाय मां मर्त्यः कुरुतेSर्चाविडम्बनम् ||
                  यो मां सर्वेषु भूतेषु सन्तमात्मानमीश्वरम् |
                  हित्वार्चा भजते मौढ्याद्भस्मन्येव जुहोति सः ||3/29/21-22||

अर्थात् मैं आत्मा रूप से सदा सभी जीवों में स्थित हूँ; इसलिए जो लोग मुझ सर्वभूत स्थित परमात्मा का अनादर करके केवल प्रतिमा में ही मेरा पूजन करते हैं, उनकी वह पूजा स्वांग मात्र है | मैं सबका आत्मा, परमेश्वर सभी भूतों में स्थित हूँ; ऐसी दशा में जो मोह वश मेरी उपेक्षा करके केवल प्रतिमा के पूजन में ही लगा रहता है, वह तो मानो भस्म में ही हवन करता है |   
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

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