Tuesday, June 7, 2016

भक्ति-क्रमशः 7

परमात्मा के साथ स्थायी योग भले ही मुक्ति तक पहुंचाता हो परन्तु परमात्मा का भक्त मुक्ति की कामना कभी करता ही नहीं है | मुक्ति में भक्त का लोप हो जाता है और केवल परमात्मा ही रह जाता है जबकि भक्ति में भक्त और परमात्मा दोनों ही बने रहते हैं, दोनों में एक प्रकार का जुडाव होने के बावजूद भी, दोनों में किसी भी प्रकार का भेद न होने के बाद भी | यही भक्ति और भक्त की विशेषता है | भक्त के मन में किसी भी प्रकार की कोई कामना न तो पैदा होती है और न ही कोई कामना रहती है, यहाँ तक कि वह कभी मुक्त होने की कामना तक भी नहीं करता वरन् वह सदैव परमात्मा के प्रेम में ही रत रहना चाहता है | इसी में उसको अतिशय आनन्द की अनुभूति होती है | वह परमात्मा के साथ संलग्न रहते हुए भी अपना अस्तित्व एक भक्त के रूप में अलग से बनाये रखना चाहता है |
भक्त के लक्षण-
              भक्ति-योग नाम का 12 वां अध्याय है- श्रीमद्भागवत् गीता में | उसमें भक्त के 31 लक्षण बताये गए हैं || ये लक्षण हैं -
                      1 –किसी भी प्राणी के लिए द्वेष भाव न होना |( No discrepancies)
                      2 -सबके साथ मैत्री पूर्ण व्यवहार रखना |( Friendly)
                      3-बिना स्वार्थ के, सबके प्रति दयालु होना |( Kindness)
                      4-ममता रहित होना |( Without endearment)
                      5 -अहंकार रहित होना |( No Egocentric)
                      6 -सुख-दुःख में समान रहना |( Even and smooth in each and every situation)
                      7-क्षमा भाव होना |( Forgiveness)
                      8-सभी प्रकार से संतुष्ट रहना |( Satisfy )
                      9-दृढ निश्चयी होना |( Determined )
                     10-मन और बुद्धि को परमात्मा में अर्पित कर देना |( Dedication)
                     11-किसी भी जीव को उद्वेलित नहीं करना |( Not to impulse any one)
                     12-किसी भी जीव से उद्वेलित न होना |( Not be impulsive from any one )
                     13-हर्ष, अमर्ष(दूसरे की उन्नति देखकर परेशान होना), भय और उद्वेग से रहित होना                          |( Above from all fears )
                     14-आकांक्षा से रहित होना |( Without any ambition )
                     15-बाहर और भीतर दोनों में शुद्ध रहना |( Purity )
                     16-प्रत्येक कार्य में दक्ष होना |( Expert)
                     17-पक्षपात से रहित होना |( No pros and cons )
                     18-दुःख में दुखी न होना |( No sadness)
                     19-सभी कार्य के प्रारंभ करने का श्रेय न लेना |( No wish for credit)
                     20-अधिक हर्षित न होना |( No excessive delights)
                     21-द्वेष न करना |( No bitterness)
                     22-शोक न करना |( No sorrow)
                     23-किसी भी प्रकार की कामना न करना | ( No expectations)
                     24-शुभ-अशुभ सभी कर्मों का त्याग कर देना |( Abandon all acts )
                     25-शत्रु और मित्र में सम रहना |( Treat equally friends and enemy)
                     26-मान-अपमान में सम रहना |( Smooth in respect and disrespect)
                     27-सर्दी-गर्मी और में सम रहना |( Even in  hot and cold)
                     28-आसक्ति-रहित होना |( No attachment)
                    29-निंदा और प्रशंसा को एक समान समझना |
                   30-मननशील होना |( Contemplative)                                                    31-भक्तिमान होना |( Devout

                  उपरोक्त सभी लक्षण पढ़ने में, संख्या बल में भले ही अधिक हों परन्तु एक लक्षण के प्रकट होने के साथ ही एक एक कर के सभी लक्षण प्रकट होने लगते हैं | सभी का आधार एक मात्र प्रेम ही है| परमात्मा के प्रति भीतर प्रेम पैदा होते ही भक्त में सभी लक्षण आ जाते हैं |
क्रमशः 
 प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल 
                     || हरिः शरणम् ||

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