जिन्दगी का उद्देश्य श्रेय मार्ग है, जो सांसारिकता से एकदम अलग है । संसार में रहते हुए उसमें लीन होकर
श्रेय मार्ग को भूल न जाने में ही इस मनुष्य जीवन की सार्थकता है । मनुष्य जीवन की सार्थकता है, जिन्दगी को यज्ञ रूप बना देने की । यज्ञ का अर्थ
हैं – लोक कल्याण का कार्य अर्थात यज्ञीय कार्य, अर्थात संसार की सेवा करना, सभी
को सुख और आराम पहुंचाना यानी लोक कल्याण । धन – दौलत को अपने जीवन निर्वाह के लिए
अपने पर उपयोग कर शेष सब दूसरों के सुख और आराम के लिए व्यय (खर्च) कर देना यज्ञीय
जीवन कहलाता है । रुपया, मकान, वस्त्र, सामान, शारीरिक और मानसिक शक्ति सब
अपनी सम्पति हैं । इसका अपने सुख और आराम के लिए उपयोग कर शेष दूसरों के सुख और
आराम के लिए त्याग कर देना श्रेय का मार्ग है । अपनी आवश्यकता इतनी ही बनानी चाहिए
अर्थात् इतनी अल्प कर देनी चाहिए कि जितनी से हम दूसरों के लिए अधिकाधिक अर्थात
ज्यादा से ज्यादा निकाल सकें ।
मनुष्य अपनी कर्मों का नियंत्रण कर्ता स्वयं है। वह मार्ग
जानता हुआ भी उस पथ पर चल नहीं सकता या यह कह सकते हैं कि कभी चलना नहीं चाहता ।
यह सब व्यक्ति के अपने स्वभाव और स्वयं की इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है। जैसे एक
व्यक्ति के पास पांच सौ रुपये हैं, वह अपने दिन भर का खर्च पचास रुपये में भी चला
सकता है और पांच सौ रुपये में भी उसका खर्चा पूरा नहीं हो सकता है । वह कितना
दूसरों के लिए बचाता है यह उसकी योग्यता और हिम्मत पर है ।
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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