Friday, June 17, 2016

प्रेय से श्रेय की ओर-2

यह सब मैंने प्रेय से श्रेय की ओरकी प्रस्तावना के तौर पर आपको बताया है क्योंकि प्रेय और श्रेय का आधार भी भोग और योग ही है | प्रेय भोग है तो श्रेय योग है | प्रेय का शाब्दिक अर्थ है, जो प्रिय लगे, प्रिय हो नहीं बल्कि प्रिय लगे और श्रेय का अर्थ है जो श्रेष्ठ हो, श्रेष्ठ लगे वह नहीं बल्कि जो श्रेष्ठ हो |
श्रेय से अर्थ है—वह जो श्रेष्ठ है, वह जो सत्य है, वह जो परम आत्यंतिक है,शुभ है, शिव है। और प्रेय से अर्थ है—वह जो प्यारा है, प्रिय है; चित्त को प्रसन्न करता है,चित्त को रंजित करता हैजो किसी काम को किसी वासना को तृप्त करने का आश्वासन देता है।
प्रेय का अर्थ है—वासना जिससे प्रफुल्लित होती है और श्रेय का अर्थ है—आत्मा जिससे प्रफुल्लित होती है। प्रेय संसार के साथ लगाव है जबकि श्रेय परमात्मा के साथ लगाव है |
 प्रेय का अर्थ है, मन को लगता है कि इससे आनंद आएगा लेकिन आता कभी भी नहीं क्योंकि लगने से आनंद का कुछ संबंध नहीं है। श्रेय में प्रारम्भ में यह लगता नहीं है कि आनंद आएगा परन्तु अंत में सदैव आनंद प्राप्त होता ही है |

       प्रेय आपको संसार में उलझाकर रखता है जबकि श्रेय आपको संसार से मुक्त करता है | प्रेय में उलझकर आप आवागमन से मुक्त नहीं हो सकते जबकि श्रेय आपको परमात्मा तक ले जाता है | प्रेम आपको कई युगों तक भोग प्रजाति के प्राणियों में बार बार जन्म लेने के लिए बाध्य करता है जबकि श्रेय आपको योग प्रजाति में जन्म दिलाते हुए इससे भी अंततः मुक्त कर देता है |अतः आपके हाथ में है, इन चौरासी लाख योनियों में भटकते रहना है अथवा सर्वोच्च योनि मानव जन्म पाकर श्रेय के मार्ग पर चलकर इस संसार चक्र के आवागमन से मुक्त होना है | प्रेय से श्रेय की ओर चलकर ही आवागमन से मुक्त हुआ जा सकता है |
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् || 

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