Monday, June 27, 2016

प्रेय से श्रेय की ओर-12

                 प्रेय मार्ग पर चलना ही सबको अच्छा लगता है | इसका मुख्य कारण यह है कि वह शारीरिक सुख को आत्मिक सुख पर प्राथमिकता देता है | शारीरिक सुख इन्द्रियों से ही प्राप्त किया जा सकता है | मनुष्य शरीर में दस इन्द्रियां हैं । इन इन्द्रियों के द्वारा हम इस संसार  का भोग करते हैं । इन सबके अतिरिक्त एक मन है । मन इन इन्द्रियों का स्वामी है, इनका संचालन करता है । मन के अतिरिक्त एक बुद्धि और एक आत्मा है । आत्मा इस बुद्धि और मन सहित समस्त शरीर का स्वामी है । इसे एक रथ की भांति समझा जा सकता है । रथ शरीर है। उसमें घोड़े इन्द्रियां हैं, मन इन घोड़ों की लगाम है और बुद्धि इनकी सारथी है ।आत्मा इस रथ और सारथी दोनों का स्वामी है ।
                इन्द्रिय अश्व शरीर रथ, मन को मानो बाग ।
                बुद्धि सारथी ले चला, भोग विषय अनुराग ।।
         आत्मा इस रथ में बैठा हुआ एक मार्ग पर जा रहा है । यह रथ उस मार्ग पर चलता जाये ,जिस पर उसे जाना है , इसके लिए यह आवश्यक है की घोड़े सारथी के वश में रहें और सारथी स्वामी के वश में रहे ।सारथी अर्थात बुद्धि के हाथ में लगाम (मन) है |अगर लगाम (मन) सारथी (बुद्धि) पर अधिक प्रभावी है तो घोड़े (इन्द्रियां) भटकेंगे ही और अगर सारथी (बुद्धि) लगाम (मन) को नियंत्रण में रखता है तो घोड़े (इन्द्रियां) स्वतः ही उसके नियंत्रण में आ जायेंगे | मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों में मन, बुद्धि पर अधिक प्रभावी रहता है जिससे वह प्राणी इन्द्रियों और मन के अनुसार ही कार्य करता है और मन पूर्व मनुष्य जन्म के कर्मों के फल प्राप्त करने के लिए ही तो उक्त योनि में आया है | परन्तु मनुष्य में अगर बुद्धि के साथ विवेक भी जाग्रत है, तो फिर मन आत्मा और विवेक के नियंत्रण में रहता है और इन्द्रियों को गलत मार्ग पर जाने नहीं देता है |
         मालिक अर्थात स्वामी को श्रेय मार्ग पर चलना है ।  मन अगर वश में न रहेगा तो इन्द्रियां प्रेय मार्ग पर चल पड़ेंगी । इसलिए घोड़े चलते हुए भी सारथी (बुद्धि, विवेक) और मन की आज्ञा के अधीन ही चलें । इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि घोड़े अपनी मनमानी उतनी ही कर सकें, जितने से उनका जीवन और स्वास्थ्य चलता रहे । इन्द्रियों को अपने विषयों का उतना ही भोग करने दो, जितने में इन्द्रियां अर्थात शरीर का स्वस्थ जीवन रह सके।
क्रमशः

                       || हरिः शरणम् ||

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