अनन्य भक्त को भी कई जन्म लग जाते हैं, उस
स्थिति में पहुँचने के लिए जब वह आत्मा से महात्मा बन सके | इसको भगवान स्पष्टतः गीता
में अर्जुन को कहते है-
बहुनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः
|| गीता 7/19 ||
अर्थात्
बहुत जन्मों के अंत के जन्म में यानि अंतिम मानव जन्म में तत्वज्ञान को प्राप्त पुरुष,
सब कुछ वासुदेव ही है, इस प्रकार मुझको भजता है. वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है |
अर्जुन. जो साक्षात् परमात्मा के
सानिध्य में था. फिर भी वह किस प्रकार व्यवहार कर रहा था, वह भी एक आश्चर्य की बात है | परमात्मा को जानने, समझने के लिए ज्ञान आवश्यक
है, उसके प्रति समर्पण भाव आवश्यक है तथा उस परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई है भी नहीं.
यह भी स्वीकारना आवश्यक है अन्यथा साक्षात् परमात्मा भी सामने आ जाये तो उसको पाना
असंभव है | ऐसा ही अर्जुन के साथ हुआ था | हम सबके साथ भी ऐसा ही हो रहा है |
परमात्मा सामने खड़े पुकार रहे हैं, सर्वत्र उपस्थित है, सब कुछ जानते हुए भी हम स्वीकार
करने को तैयार नहीं है |
इतने विश्लेषण के बाद यह स्पष्ट
है कि आत्मा से महात्मा बनने की प्रक्रिया को ही भक्ति कहते हैं | महात्मा, भक्त
की उच्चतम अवस्था है, जिसे भक्ति-योग से ही प्राप्त किया जा सकता है | महात्मा से
परमात्मा की अवस्था प्राप्त करना आसान है | उपरोक्त श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने महात्मा
की अवस्था को अंतिम जन्म कहा है | इसी से स्पष्ट होता है कि महात्मा बनने के बाद
पुनर्जन्म की सम्भावना भी समाप्त हो जाती है |
गीता के आधार पर हम यह मान सकते हैं कि
भक्ति-योग का प्रारंभ व्यक्ति की आर्त अवस्था से होता है | दुःखी होने पर परमात्मा
को भजना व्यक्ति के भक्ति मार्ग पर चलने का प्रथम कदम होता है | यहीं से व्यक्ति संसार
से विमुख और परमात्मा के सम्मुख होना प्रारंभ करता है | परमात्मा से प्रार्थना के
बाद जब उसका दुःख दूर हो जाता है. तब वह वापिस संसार में लौट जाता है | जब उसके
साथ ऐसा अनेकों बार हो जाता है, तब वह परमात्मा और संसार दोनों में ही रत रहना
चाहता है | यहाँ अब वह परमात्मा को भजने का प्रतिदिन का नियम बना लेता है | इस
स्थिति में वह अर्थार्थी हो जाता है | वह नित्य परमात्मा से केवल अपनी ही सुख-सुविधा
की कामना करता है | अभी भी वह एक भक्त की श्रेणी में नहीं आ पाया है | जब उसे संसार
के सब सुख उपलब्ध हो जाते हैं, तब वह समझने लगता है कि वास्तव में परमात्मा नाम से
कोई शक्ति अवश्य है | उसके भीतर परमात्मा को जानने और समझने की उत्कंठा पैदा होती
है | यह उसकी जिज्ञासु अवस्था है | इन तीनों अवस्थाएं भक्ति-योग के मुख्य मार्ग तक
पहुँचने हेतु प्रयास मात्र है | जब व्यक्ति की जिज्ञासा शांत हो जाती है, उस
स्थिति में आ जाने पर व्यक्ति परमात्मा के अस्तित्व को तो स्वीकार कर लेता है.
परन्तु आगे उसके बारे में और ज्यादा ज्ञान प्राप्त करना चाहता है या नहीं, यह उसके
विवेक पर निर्भर करता है | यहाँ तक की यात्रा के पश्चात या तो व्यक्ति ज्ञान-मार्ग
पर चलते हुए भक्ति-योग में लग जाता है अथवा इसी स्थिति में आकर संसार में पुनः लौट
जाता है | इस संसार का आकर्षण इतना लुभावना है की व्यक्ति को अपने जीवन का सार केवल
यहीं पर नज़र आता है | वह यह समझने का प्रयास भी नहीं करता कि जो भी उसे आज तक उपलब्धियां
प्राप्त हुई है, उनका आधार क्या है ? वह इन उपलब्धियों को केवल अपना ही व्यक्तिगत प्रयास
मानता है | यहीं से उसमें कर्ता (Doer) भाव पैदा हो जाता है
| इस स्थिति में वह परमात्मा को भजता अवश्य है, परन्तु केवल मात्र प्रदर्शन यानि दिखावे
के लिए | वह इस ईश्वर भजन को एक दैनिक क्रिया ( Routine ) मात्र मानता
है | ऐसे में इसको भक्ति कैसे माना जा सकता है ? यह तो स्वयं के साथ एक छलावा मात्र
है, ईश्वर-भक्ति नहीं |प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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