दूसरी श्रेणी
उन भक्तों की है, जो भगवान के स्मरण को समय और स्थान तक सीमित कर देते हैं और
प्रतिदिन का एक नियम बना लेते हैं | एक निश्चित स्थान और समय से आगे वे बढ़ना ही नहीं
चाहते | सांसारिकता में रमते हुए भी वे परमात्मा को याद रखने का कार्य जारी रखना चाहते
हैं | समय और स्थान निश्चित करना अनुचित नहीं है बल्कि इनके साथ बंध जाना गलत है |
संसार में इतने रत रहते हैं कि वे पूजा अर्चना और स्मरण भौतिक रूप से कर रहे होते
हैं परन्तु मन संसार में ही कहीं और भटक रहा होता है | कई बार ऐसी परिस्थिति पैदा हो
जाती है जब किसी अन्य कार्य के कारण निश्चित स्थान और समय तक पूजा-पाठ, स्मरण इत्यादि
सम्भव नहीं हो पाता | ऐसे में भक्त को किसी भी प्रकार की ग्लानि मन में नहीं होनी चाहिए
| तभी इसकी सार्थकता है | अगर कभी ऐसी परिस्थिति आ भी जाये तो जितनी और जहाँ, जैसी
सुविधा उपलब्ध हो, परमात्मा का स्मरण कर लेना चाहिए | महत्वपूर्ण तो परमात्मा में
मन लगाकर उसका स्मरण करना है, स्थान और समय जैसा
भी उपलब्ध हो |
भक्ति के लिए परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण
(Surrender ) का भाव होना आवश्यक है | गीता में इसे अनन्य भक्ति
कहा गया है | भक्ति में आंतरिक रूप से यह स्वीकार किया जाता है कि मेरे लिए परमात्मा
ही सर्वस्व है | परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | एक स्थिति ऐसी आती है जब परमात्मा
के अतिरिक्त कहीं पर, कुछ भी नज़र नहीं आता | जो व्यक्ति इस अवस्था को उपलब्ध हो जाता
है, उसे भक्त कहा जाता है और भक्ति को अनन्य भक्ति | संसार और परमात्मा दोनों एक साथ
उपलब्ध नहीं हो सकते | परमात्मा को भी पाना चाहें और संसार में भी मन लगायें,
दोनों एक साथ कैसे संभव हो सकते हैं ? संसार में रहना गलत नहीं है और न ही परमात्मा
प्राप्ति के लिए संसार से पलायन ( Escape ) करना आवश्यक है |
आवश्यक है मन में संसार के स्थान पर परमात्मा को ही प्रवेश मिले | संसार को बाहर ही
रहने दे, अपने भीतर प्रवेश न करने दें | अनन्य भक्ति का मूल मंत्र यही है |
क्रमशःप्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||
No comments:
Post a Comment