स्वामी विवेकानन्द ने ‘भक्त के लक्षण’
शीर्षक के अंतर्गत भक्ति की अनेक परिभाषाओं का विवेचन करने के पश्चात अपना मत दिया
है कि ‘आध्यात्मिक अनुभूति के लिए किये जाने वाले मानसिक प्रयत्नों की परम्परा ही
भक्ति है, जिसका प्रारम्भ तो साधारण पूजा-पाठ से होता है और अंत ईश्वर के प्रति
प्रगाढ़ एवं अनन्य प्रेम में |’
मेरे बड़े भाई और शिक्षाविद् श्री लीला धर शर्मा
को मैंने भक्ति की परिभाषा पूछी तो उनका उत्तर बड़ा ही एक दार्शनिक जैसा था, वैसे
वे एक दार्शनिक व्यक्ति हैं भी | उनके अनुसार ज्ञान जब आँखों के माध्यम से बाहर
प्रवाहित होने लगता है तब वह भक्ति बन जाता है | स्वामी अड़गडानन्द जी की गीता टीका
‘यथार्थ गीता’ में भी लिखा है कि जब परमात्मा
का चिंतन करते हुए आँखों से अश्रु धारा बहने लगे तो यह परमात्मा के प्रति प्रेम है
और यही भक्ति है |
परन्तु आधुनिक युग में भक्ति-भाव का दृश्य
अलग ही रूप में नज़र आता है | ऐसे में यह कहना बड़ा ही मुश्किल है कि कौन तो भक्ति में
लीन है और कौन आडम्बर में ? इस युग में गोस्वामी
तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस प्रायः सभी घरों में रखी एवं पढ़ी जाती है | इस महान
ग्रन्थ का अंतिम दोहा कहता है –
कामिहि नारि पियारि जिमि लोभहि प्रिय
जिमि दाम |
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि
राम || उत्तरकाण्ड-130(ख) ||
इस ग्रन्थ को मन लगाकर पढ़े और इस दोहे के
अनुसार अगर सांसारिक प्रेम जो हम काम और अर्थ आदि से करते हैं, उतना भी अगर हम
परमात्मा से प्रेम करें तो वह तत्काल ही भक्ति बन जाएगी | अलग से किसी भी प्रकार
के प्रयास करने की आवश्यकता ही नहीं होगी | सम्पूर्ण सनातन ग्रंथों का सारांश यही
है | गोस्वामीजी का यह कथन हमें पुनः महर्षि शांडिल्य के कथन की याद दिलाता है कि सांसारिक
प्रेम को छोड़कर ईश्वरीय प्रेम में रत हो जाना ही वास्तव में भक्ति है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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