Friday, June 24, 2016

प्रेय से श्रेय की ओर-9

श्रेय-मार्ग –
    यह मार्ग श्रेष्ठ मार्ग है | यह इन्द्रियों और मन को नियंत्रित करने का मार्ग है | यह देखने में कठिन, चलने में दुर्गम और परिणाम में आनंददायक है | यह आत्म-ज्ञान का मार्ग है, ब्रह्म-ज्ञान का मार्ग है | जो कुछ भी मन और इन्द्रियों को प्रिय लगे और परिणाम जिनका दुख दाई हो, उससे बच कर निकलने का मार्ग है | इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि आप इन्द्रियों की शक्तियों को नष्ट ही कर दें | इन्द्रियां तो अपना स्वाभाविक गुण प्रदर्शित करेगी ही आपको तो बस उनके गुणों से प्रभावित नहीं होना है |
नेत्रों का कार्य है-देखना | वे तो देखेगी ही | आपको तो बस दृश्य और रूप से प्रभावित नहीं होना है | इसी प्रकार कान का कार्य है- सुनना | अच्छा मधुर संगीत सुने, जिस संगीत को सुनने से आपको आत्मिक शांति मिले | आत्मिक शांति प्रदान करने वाले संगीत को इसीलिए शास्त्रीय संगीत कहा जाता है कि उसको सुनने से एक प्रकार से परमात्मा की अनुभूति होती है | आहार चाहे कितना ही स्वादिष्ट क्यों न हो, मन के प्रभाव में आकर अधिक न खाएं | स्पर्श सुख चाहे कितना ही प्रिय लगे उसकी सतत पुनरावृति आपको पथ-विचलित कर सकती है अतः इससे बचना अत्यावश्यक है | गंध से मोहित न हो, भँवरा गंध के वशीभूत होकर अपना जीवन तक दांव पर लगा बैठता है |
श्रेय-मार्ग पर चलने से प्राप्त हुआ सुख सात्विक सुख कहलाता है | इस सुख के बारे में भगवान श्री कृष्ण गीता में अर्जुन को कहते हैं-
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति || गीता18/36||
यत्तदग्रे विषमिव परिणामे अमृतोपमम् |
तत्सुखं सात्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् || गीता 18/37||
अर्थात जिस सुख में व्यक्ति अभ्यास से रमण करता है अर्थात मन को नियंत्रित कर लेता है और जो समस्त दुखों का अंत करने वाला है तथा जो प्रारम्भ में विष के सदृश लगता है परन्तु परिणाम में अमृत तुल्य होता है; ऐसे सुख को सात्विक कहा गया है |
आध्यात्मिक सुख सात्विक सुख है और इस सुख को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को संसार में निष्काम कर्म करने होते हैं | निष्काम कर्म करने की दौड़ व्यक्ति के भीतर की दौड़ है | भीतर की दौड़ व्यक्ति को स्वयं के अन्दर ले जाती है, परमात्मा से परिचय कराती है | यही श्रेय-मार्ग है | आत्मा से लगाव और संसार से विमुखता |  मनुष्य जन्म का एक ही उद्देश्य है, वह है स्वयं को जान लेना | इसी को ही परमात्मा को प्राप्त कर लेना कहते है |
क्रमशः

|| हरिः शरणम् ||

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