कठोपनिषद की दूसरी वल्ली में यम प्रेय और श्रेय
के बारे में नचिकेता को कहते हैं-
अन्यत्छेूयोध्न्यदुतैव प्रेयस्ते उभे नानाथें पुरुषं सिनीत:।
तयो: श्रेय आददानस्य साधु भवति हीयतेsर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते।।1।।
इस प्रकार परीक्षा करके जब यम ने समझ लिया कि नचिकेता दृढ़निश्चयी परम
वैराग्यवान एवं निर्भीक है अत: ब्रह्मविद्या का उत्तम अधिकारी है तब ब्रह्मविद्या
का उपदेश आरंभ करने के पहले उसका महत्व प्रकट करते हुए यम ने कहा—श्रेय अर्थात
कल्याण का साधन अलग है और प्रेय अर्थात प्रिय लगने वाले भोगों का साधन अलग है। वे
भिन्न— भिन्न फल देने वाले दोनों साधन मनुष्य को बांधते हैं अपनी—अपनी ओर आकर्षित
करते हैं। उन दोनों में से श्रेय अर्थात कल्याण के साधन को ग्रहण करने वाले का
कल्याण होता है। परंतु जो प्रेय अर्थात सांसारिक भोगों के साधन को स्वीकार करता है
वह यथार्थ लाभ से वंचित रह जाता है।।1।।
श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीर:।
श्रेयो हि धीरोऽभि प्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते।।2।।
श्रेय और प्रेय दोनों ही मनुष्य के सामने आते हैं। बुद्धिमान मनुष्य उन
दोनों के स्वरूप पर भलीभांति विचार करके उनको पृथक—पृथक करके समझ लेता है। और वह
श्रेष्ठबुद्धि मनुष्य परम कल्याण के साधन को ही भोग—साधन की अपेक्षा श्रेष्ठ
समझकर ग्रहण करता है। परंतु मंदबुद्धि वाला लौकिक योगक्षेम की इच्छा से भोगों के
साधनरूप प्रेय को अपनाता है।।2।।
स त्वं प्रियान्
प्रियरूपाक्य कामानभिध्यायन्नचिकेतोइत्यस्राक्षी:।
नैतान् सृंकां वित्तमयीमवाप्तो यस्यां मंजन्ति बहवो मनुष्य।:।।3।।
हे नचिकेता! तुम ऐसे निस्पृह हो कि प्रिय लगने वाले और अत्यंत सुंदर रूप
वाले इस लोक और परलोक के समस्त भोगों को भलीभांति सोच—समझकर तुमने छोड़ दिया। इस
संपत्तिरूप श्रृंखला को बेड़ियों को तुम नहीं प्राप्त हुए इसके बंधन में तुम नहीं
फंसे जिसमें बहुत से मनुष्य फंस जाते हैं।।3।।
दूरमेते विपरीते
विषूची अविद्या या च विद्येति ज्ञाता।
विद्याभीप्सिन नचिकेतसं मन्ये न त्वा कामा बहवोऽलोलुपन्त।।4।।
जो कि अविद्या और विद्या नाम से विख्यात हैं ये दोनों परस्पर अत्यंत विपरीत
और भिन्न— भिन्न फल देने वाली हैं तुम नचिकेता को मैं विद्या का अभिलाषी मानता
हूं। क्योंकि तुमको बहुत से भोग किसी प्रकार भी नहीं लुभा सके।।4।।
अविद्यायामन्तरे
वर्तमाना: स्वयं धीरा: यण्डितम्मन्यमाना:।
दन्द्रम्यमाणा: परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धा:।। 5।।
अविद्या के भीतर रहते हुए भी अपने आपको बुद्धिमान और विद्वान मानने वाले मूढ
लोग नाना योनियों में चारों ओर भटकते हुए ठीक वैसे ही ठोकरें खाते रहते हैं जैसे
अंधे मनुष्य के द्वारा चलाए जाने वाले अंधे अपने लक्ष्य तक न पहुंचकर इधर—उधर
भटकते और कष्ट भोगते हैं।।5।।
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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