भक्त
और भक्ति-
भक्त और भक्ति किसे कहते हैं ?
इसे स्पष्ट किये बिना हम भक्ति को उचित प्रकार से नहीं समझ सकेंगे | भक्ति उस प्रक्रिया अथवा विधि को कहते है, जिसके कारण व्यक्ति का योग परमात्मा के साथ हो जाता है | इस प्रक्रिया
के सम्पूर्ण होने पर ही व्यक्ति भक्त कहलाता है | आजकल हम किसी को भी भक्त कह देते
हैं, जबकि भक्ति की परिणति जब परमात्मा के साथ योग में हो जाती है तभी व्यक्ति भक्त
कहलाता है | भक्ति अर्थात् परमात्मा के साथ संयुक्त होने की प्रक्रिया को भक्ति-योग
कहा जाता है | भक्ति-योग के कारण व्यक्ति एक साधारण मनुष्य की श्रेणी से ऊपर उठते हुए
भक्त बन जाता है | इस स्थिति में आकर भक्त का परमात्मा के साथ सीधा संपर्क हो जाता
है | इस भक्ति से भक्त बनने की पूरी प्रक्रिया एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है | गीता में
भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि मुझे चार प्रकार के व्यक्ति भजते हैं- आर्त, अर्थार्थी,
जिज्ञासु और ज्ञानी |
चतुर्विद्याभजन्ते मां जनाः सुकृतिनोSर्जुन |
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ || गीता 7/16 ||
अर्थात् हे अर्जुन , उत्तम कर्म करने वाले अर्थार्थी,
आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी- ऐसे चार प्रकार के भक्तजन मुझको भजते हैं | अर्थार्थी यानि
सांसारिक सुख सुविधा के साधन प्राप्त करने के लिए भजने वाला, आर्त यानि सांसारिक दुखों
के निवारण हेतु भजने वाला, जिज्ञासु का अर्थ है परमात्मा के बारे में मन में जिज्ञासा
के कारण उसे जानने के लिए भजने वाला और ज्ञानी वह व्यक्ति जो परमात्मा को जानता है,
और उसे ही सर्वस्व मानकर भजने वाला |
इस श्लोक का यह
अर्थ गीता प्रेस, गोरखपुर से छपी पुस्तक में किया गया है | हालाँकि इस श्लोक में भक्त
शब्द नहीं आया है, जनाः शब्द आया है जिसका अर्थ जन यानि व्यक्ति ही होता है | जबकि
आज की परिस्थिति में प्रत्येक व्यक्ति जो परमात्मा का स्मरण करते हैं, उन्हें भक्त
कह दिया गया है | श्रीकृष्ण कहते हैं की आर्त व्यक्ति तो स्वार्थ वश अपने दुःख को दूर
करने के लिए मुझे याद करते हैं और ऐसा ही अर्थार्थी के साथ है, जो अपनी सुख सुविधा
की कामना पूरी करने के लिए तथा संसार की विभिन्न भौतिक वस्तुएं प्राप्त करने के
लिए मुझे याद करते है | ये दोनों भी मुझे प्रिय हैं | जिज्ञासु के मन में यह इच्छा
होती है कि मेरे स्वरूप और प्रकृति को जाने और समझे | ऐसा स्मरण करने वाला व्यक्ति
भी मुझे प्रिय है | परन्तु सबसे अधिक प्रिय मुझे ज्ञानी ( Intellectual ) व्यक्ति हैं | इसका कारण श्रीकृष्ण बताते
हैं कि ज्ञानी भक्ति मुझे अनन्य प्रेम भाव से स्मरण करता है | अतः ज्ञानी व्यक्ति,
अनन्य भक्ति से परमात्मा को पाकर एक भक्त की श्रेणी में आ जाता है | भगवान ने कहीं
पर यह नहीं कहा है कि शेष तीन प्रकार के व्यक्ति मुझे प्रिय नहीं है, कहते हैं कि
वे भी उदार हैं परन्तु उनके भीतर मेरे अतिरिक्त भी कुछ अन्य है, इस कारण से उन्हें
अनन्य भक्त नहीं कहा जा सकता | उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान उन्हें वह सब उपलब्ध करा
देंगे, जो वे उनसे कामना करते हैं | परन्तु प्रथम तीन प्रकार के भक्तों का परमात्मा
को भजना संसार के लिए है, जबकि ज्ञानी भक्त परमात्मा का होकर परमात्मा को ही भजता है
| अतः ऐसा भजने वाला ही वास्तव में भक्त कहलाने का अधिकारी होता है |
क्रमशःप्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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