इस प्रकार संक्षेप में मैंने
महापुरुषों द्वारा दी गयी कुछ परिभाषाएं बताने का प्रयास किया है | भक्ति की अन्य
कई परिभाषाएं भी मैंने पढ़ी हैं परन्तु मुझे जो उत्तम प्रतीत हुई उन्हीं को आपके
समक्ष प्रस्तुत किया है | सभी परिभाषाएं पृथक पृथक होते हुए भी इन सभी परिभाषाओं
के मूल में केवल एक प्रेम-तत्व ही उपस्थित है | सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सेवा–भाव
से ही इस प्रेम-तत्व की उपलब्धि होती है |
सेवा की आवश्यकता हमारे परम पिता
को भले कैसे हो सकती है ? समस्त जगत के सूत्रधार भी वही हैं और धारण करने वाले भी |
हम अभी इतने महान नहीं हुए हैं और न ही कभी हो सकते हैं जो अपने परमात्मा की सेवा
कर सके | परमात्मा से तो केवल और केवल प्रेम ही किया जा सकता है | सेवा भाव से
यहाँ अर्थ है परमात्मा द्वारा बनाये गए संसार की सेवा में लग जाना | ब्रह्मलीन
स्वामी रामसुखदासजी महाराज कहा करते थे कि इस जगत की सेवा में लग जाओ और सतत लगे
रहो, एक न एक दिन परमात्मा की प्राप्ति हो ही जाएगी | परमात्मा की प्राप्ति का सबसे
सुगम मार्ग ही संसार की सेवा करना है | सेवा से प्रेम बढ़ता है | इस प्रकार अप्रत्यक्ष
रूप से संसार की सेवा करना ही परमात्मा के प्रति प्रेम है और परमात्मा की पूजा भी |
संसार की सेवा से प्रेम प्रकट
होता है और प्रेम से भक्ति | भक्ति अर्थात परमात्मा से जुडाव | यह प्रेम निरंतर
बढ़ता रहे तो एक न एक दिन भक्त का परमात्मा में पूर्ण रूप से विलय हो जाता है
अर्थात भक्त ही भगवान बन जाता है | यही परमात्मा के साथ स्थायी योग है और मोक्ष भी
|
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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