Monday, June 6, 2016

भक्ति-क्रमशः 6

                 इस प्रकार संक्षेप में मैंने महापुरुषों द्वारा दी गयी कुछ परिभाषाएं बताने का प्रयास किया है | भक्ति की अन्य कई परिभाषाएं भी मैंने पढ़ी हैं परन्तु मुझे जो उत्तम प्रतीत हुई उन्हीं को आपके समक्ष प्रस्तुत किया है | सभी परिभाषाएं पृथक पृथक होते हुए भी इन सभी परिभाषाओं के मूल में केवल एक प्रेम-तत्व ही उपस्थित है | सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सेवा–भाव से ही इस प्रेम-तत्व की उपलब्धि होती है |
              सेवा की आवश्यकता हमारे परम पिता को भले कैसे हो सकती है ? समस्त जगत के सूत्रधार भी वही हैं और धारण करने वाले भी | हम अभी इतने महान नहीं हुए हैं और न ही कभी हो सकते हैं जो अपने परमात्मा की सेवा कर सके | परमात्मा से तो केवल और केवल प्रेम ही किया जा सकता है | सेवा भाव से यहाँ अर्थ है परमात्मा द्वारा बनाये गए संसार की सेवा में लग जाना | ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदासजी महाराज कहा करते थे कि इस जगत की सेवा में लग जाओ और सतत लगे रहो, एक न एक दिन परमात्मा की प्राप्ति हो ही जाएगी | परमात्मा की प्राप्ति का सबसे सुगम मार्ग ही संसार की सेवा करना है | सेवा से प्रेम बढ़ता है | इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से संसार की सेवा करना ही परमात्मा के प्रति प्रेम है और परमात्मा की पूजा भी |

                संसार की सेवा से प्रेम प्रकट होता है और प्रेम से भक्ति | भक्ति अर्थात परमात्मा से जुडाव | यह प्रेम निरंतर बढ़ता रहे तो एक न एक दिन भक्त का परमात्मा में पूर्ण रूप से विलय हो जाता है अर्थात भक्त ही भगवान बन जाता है | यही परमात्मा के साथ स्थायी योग है और मोक्ष भी |
क्रमशः 
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल 
                      || हरिः शरणम् ||

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