प्रेय-मार्ग –
प्रेय-मार्ग सांसारिकता का
मार्ग है | यह प्रत्येक व्यक्ति को प्रिय लगता है | यह देखने में अत्यधिक लुभावना,
सरल और चलने में सुगम है | एक बार इस पथ का अनुगमन करने पर इसको छोड़ना एक साधारण
व्यक्ति के लिए लगभग असंभव हो जाता है | इस पर निरंतर चलने वाले व्यक्ति को
प्रारम्भ में तो अतिशय सुख की अनुभूति होती है परन्तु अंत में परिणाम दुखदाई ही
होता है | प्रेय मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति की इन्द्रियां नियंत्रित नहीं रह पाती
है और उसका मन स्वतंत्रता पूर्वक सांसारिक सुखों की तलाश में विचरण करता रहता है |
कान वही शब्द सुनना चाहते हैं जिनको सुनकर व्यक्ति को सुख मिले | परनिंदा व
आधुनिक संगीत इसके उदाहरण है |सतत ऐसे शब्दों और संगीत को सुनकर व्यक्ति इन्हीं को
बार बार सुनना चाहता है | इसी प्रकार
स्वाद के मारे व्यक्ति अपनी जिह्वा पर नियंत्रण नहीं रख पाता और अत्यधिक रुचिकर और
प्रिय आहार कर वमन और उदर शूल से दुःख पाता है | स्पर्श सुख एक प्रकार की खुजली ही
है, जो एक बार करने पर सुख का आभास अवश्य देती है परन्तु इस सुख को बार बार
प्राप्त करने के लिए यही प्रक्रिया दोहराई जाती है परन्तु यह खुजली ऐसी है कि न तो
यह कभी मिटती है और न ही इससे कभी संतुष्टि मिलती नहीं है |खुजली कभी खुजली करने
से मिटती नहीं है बल्कि खुजली करने कि भावना मन में आने से रोकने पर ही नियंत्रित हो सकती है | आपके
नेत्र बार बार रूप को देखने के चक्कर में थकते नहीं है और न ही आपको संतुष्टि
मिलाती है | यही हाल गंध प्राप्त करने का है, सुगंध को बार बार प्राप्त करना घ्रानेंद्रिय
की सुगंध के प्रति आसक्ति का प्रदर्शन ही तो है | गीता के आधार पर प्रेय मार्ग
राजसिक सुख प्रदान करता है | गीता के अंतिम अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को
इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
विषयेंद्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेSमृतोपमम् |
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् || गीत18/38||
अर्थात जो सुख इन्द्रियों और विषयों के संयोग से होता है, वह यद्यपि भोगकाल
में अमृत के सदृश्य लगता है किन्तु परिणाम में विष के सदृश्य है; क्योंकि यह राजस
सुख जन्म-मृत्यु का कारण है |
सांसारिक सुख राजसिक सुख है और इस सुख को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को
संसार में सकाम कर्म करने पड़ते हैं | सकाम कर्म करने की दौड़ बाहर की दौड़ है | बाहर
की दौड़ व्यक्ति को स्वयं से दूर ही ले जाती है, परमात्मा से दूर करती है | यही प्रेय-मार्ग
है | संसार से लगाव और स्वयं से दुराव |
जबकि मनुष्य जन्म का उद्देश्य स्वयं को जानना है, न कि स्वयं से दूर चले जाना |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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