Thursday, June 30, 2016

नवधा भक्ति-1

नवधा भक्ति – प्रस्तावना -
         भक्ति के बारे में हम विस्तृत रूप से विवेचन पूर्व में कर चुके हैं | नवधा भक्ति वैसे भक्ति से अलग हटकर कोई विषय नहीं है बल्कि भक्ति को विस्तृत रूप से समझने के लिए विभिन्न शास्त्रों में भक्ति के ही नौ प्रकार बताए गए है | वैसे भक्ति को नौ विभागों में बांटा नहीं गया है बल्कि भक्ति की विभिन्न नौ अवस्थाओं को बताया गया है | भक्ति तो केवल एक ही प्रकार की होती है और वह है-परमात्मा से प्रेम | जिस प्रथम द्वार से भक्ति में प्रवेश किया जाता  है और अंत में नौवें द्वार तक पहुंचा जाता है उन नौ द्वारों को ही नवधा भक्ति नाम से कहा जाता है | जिस प्रकार एक विशाल कपड़े को कई परतों में समेटा जाता है और पुनः खोलने के लिए उन परतों को एक एक कर खोला जाता है तभी उस कपड़े की भीतरी और मुख्य सतह तक पहुंचा जा सकता है उसी प्रकार भक्ति की विशालता को इसी प्रकार नौ परतों में समेटा गया है | अगर अंग्रेजी भाषा में कहें तो हम कह सकते हैं कि ‘Navdha bhakti is the nine folds of the Devotion’| अतः यह स्पष्ट है कि नवधा भक्ति कोई अलग अलग नौ प्रकार की भक्ति नहीं है बल्कि भक्ति के विभिन्न रूप हैं, चरण है - प्रथम चरण से लेकर नौ चरण तक | सभी भक्ति के चरणों को सामूहिक रूप से नवधा भक्ति कहा जाता है |
        नवधा भक्ति के बारे में हमारे सनातन धर्म के लगभग प्रत्येक ग्रन्थ में किसी न किसी रूप में वर्णन किया गया है | वर्तमान काल में इनमें से तीन शास्त्र मुख्य रूप से पढ़े जाते हैं | हमारे ये शास्त्र हैं- श्री मद्भागवत महापुराण, श्री मद्भागवत गीता और गोस्वामी तुलसीदास कृत श्री रामचरित मानस | इनमें सरलतम रूप से श्री रामचरितमानस में नवधा भक्ति का वर्णन किया गया है |  सर्वप्रथम इन ग्रंथों में वर्णित एक एक ग्रन्थ से नवधा भक्ति का वर्णन प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिससे इसे समझने में आसानी रहेगी |
क्रमशः

                 || हरिः शरणम् ||

Wednesday, June 29, 2016

प्रेय से श्रेय की ओर-14 समापन कड़ी

प्रेय से श्रेय की ओर-14 समापन कड़ी-
               सब कुछ पश्चिम की भोगवादी संस्कृति को अपनाने का परिणाम है और इसके लिए हम स्वयं दोषी है | हम ज्ञान बहुत उड़ेलते हैं परन्तु अपने बच्चे के लालन पालन में इस ज्ञान का उपयोग नहीं करते हैं | जब भी यह प्रश्न हमारे सामने आता है, हम आधुनिक भागदौड़ वाले युग होने का कहकर मुंह मोड़ लेते हैं | परन्तु वास्तविकता यह है कि हमें स्वयं को श्रेय मार्ग से अच्छा प्रेय मार्ग लगता है और दोषारोपण आधुनिक व्यवस्था पर करते फिरते हैं  | किसी के कहने पर अगर हम किसी कुएँ में जाकर नहीं गिर सकते तो फिर आपको श्रेय मार्ग पर चलने से कौन रोक सकता है ?आज की आवश्यकता है कि माता-पिता स्वयं श्रेय मार्ग का अनुगमन करते हुए बचपन से ही अपने पुत्र/पुत्री के सामने एक  आदर्श प्रस्तुत करें | तभी इस व्यवस्था में सुधार संभव है |
                  अंत में मैं आपको पुनः महर्षि शांडिल्य की भक्ति की अनुरक्तियों वाली अवधारणा की और ले जाना चाहूँगा | परा और अपरा अनुरक्तियां दोनों ही परमात्मा की देन है | अपरा अर्थात सांसारिक अनुरक्ति में उलझ जाना प्रेय-मार्ग है और परा अनुरक्ति आध्यात्मिक अनुरक्ति है और इसको अपनाना ही श्रेय मार्ग है | प्राणियों की चौरासी लाख प्रजातियाँ प्रेय-मार्ग पर चलने का ही परिणाम है और मनुष्य की प्रजाति में जन्म लेकर श्रेय-मार्ग पर चलना ही परमात्मा से प्रेम करना है | निर्णय करना केवल और केवल आपके हाथ में है | मैं तो आप सब के लिए परमात्मा से यही प्रार्थना कर सकता हूँ कि वह आपको इतना विवेक अवश्य प्रदान करे जिससे आप ‘प्रेय से श्रेय की ओर’ चल सकें | अगर आप श्रेय मार्ग पर चलेंगे तो आपका, आपके परिवार, आपके समाज और आपके देश का भला होगा और भारत पुनः इस संसार में सभी देशों में अग्रणी बन जायेगा |
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
पुनश्चः
इस विवेचन के मध्य में श्री पंकज अग्रवाल का पूरक प्रश्न मिला है | उन्होंने नचिकेता के तीन में से मांगे गए दो वर पूछे हैं | पहला वर था कि जब मैं वापिस अपने पिता उद्दालक के पास लौटूं तो वे मुझे पूर्व की भांति प्रेमपूर्वक पुत्र रूप में स्वीकार कर ले | उनके मन में मेरे लिए किसी प्रकार का दुःख का भाव और मुझे मृत्यु (यम) को देने के प्रति अपराध बोध न रहे | दूसरा वर था कि जहाँ न जरा हो, न दुःख हो, न आपका यानि मृत्यु का भय हो, न भूख लगे और न ही प्यास ऐसी जगह स्वर्ग है, वहां पहुँचने के लिए अग्नि विद्या को जानना आवश्यक है | अतः हे यम ! मुझे आप अग्नि विज्ञान प्रदान करें | यह अग्नि विज्ञान बाद में नचिकेता के नाम से प्रसिद्ध हुआ |

      || हरिः शरणम् ||

Tuesday, June 28, 2016

प्रेय से श्रेय की ओर-13

                 अब बात करते हैं कि आधुनिक युग में श्रेय मार्ग पर चलना कठिन क्यों होता जा रहा है ? इसका सबसे बड़ा कारण है-धर्म से विमुखता | प्राचीन काल में बच्चे का लालन पालन जिस वातावरण में होता था, वह आज के समय में कहाँ उपलब्ध है ? स्वयं माता-पिता की दिनचर्या तक अस्त-व्यस्त है | पहले शैशव काल के बाद जब बाल्यावस्था में बालक प्रवेश करता था तब उसे ब्रह्मचर्य आश्रम के अनुसार गुरुकुल में भेज दिया जाता था | ब्रह्मचर्य का अर्थ है, ब्रह्म की चर्या और ब्रह्मचारी अर्थात ब्रह्म के जैसे आचरण करने वाला | ब्रह्मचर्य का अर्थ आजकल अलग रूप से प्रस्तुत किया जा रहा है, वह मात्र दिग्भ्रमित करने वाला अर्थ है | गुरुकुल में केवल ब्रह्म के बारे में शिक्षा दी जाती थी | वहां पर जाकर बालक को श्रेय-मार्ग पर ही चलना होता था | ब्रह्म में स्त्री और पुरुष का कोई भेद नहीं है | अतः आज के बालक की तरह ऐसे भेद को पालकर वहां गुरुकुल में कोई भी बालक कभी कुंठित नहीं होता था | वास्तविक ब्रह्मचर्य का जीवन तो गुरुकुल का जीवन ही था |
           आज के विद्यालयों में स्त्री-पुरुष भेद प्रारम्भ से ही बालक के मन में प्रवेश कर जाता है | इस लिंग-भेद की अग्नि में घी डालने का कार्य करती है, आधुनिक तकनीक जैसे दूरदर्शन और मोबाइल आदि | अति विकसित देश अमेरिका में आये दिन विद्यालयों में हो रहे गोली कांड और विद्यार्थी जीवन में ही कम उम्र में बच्चियों द्वारा गर्भ धारण कर लेना विद्यार्थियों में पैदा हो रही मानसिक कुंठा का ही तो परिणाम है | मैं आज दावे के साथ कह सकता हूँ कि अगर हम अभी भी नहीं चेते तो निकट भविष्य में हमारे देश में भी ऐसी घटनाएँ होने लगेगी | आज सब कुछ सुविधाएँ है, विद्यार्थी के पास | ऐसे में वह प्रेय-मार्ग पर चलना अपने जीवन के प्रारम्भ में ही सीख जाता है | ऐसी स्थिति से बाहर वह वानप्रस्थ आश्रम के अंत तक भी नहीं निकल पाता | वानप्रस्थ में समय और ऊर्जा उसका साथ छोड़ रहे होते हैं और फिर नए जन्म के लिए वही वासना भोग वाली चौरासी लाख योनियां उसका इंतजार कर रही होती हैं |
कल समापन कड़ी-

|| हरिः शरणम् ||

Monday, June 27, 2016

प्रेय से श्रेय की ओर-12

                 प्रेय मार्ग पर चलना ही सबको अच्छा लगता है | इसका मुख्य कारण यह है कि वह शारीरिक सुख को आत्मिक सुख पर प्राथमिकता देता है | शारीरिक सुख इन्द्रियों से ही प्राप्त किया जा सकता है | मनुष्य शरीर में दस इन्द्रियां हैं । इन इन्द्रियों के द्वारा हम इस संसार  का भोग करते हैं । इन सबके अतिरिक्त एक मन है । मन इन इन्द्रियों का स्वामी है, इनका संचालन करता है । मन के अतिरिक्त एक बुद्धि और एक आत्मा है । आत्मा इस बुद्धि और मन सहित समस्त शरीर का स्वामी है । इसे एक रथ की भांति समझा जा सकता है । रथ शरीर है। उसमें घोड़े इन्द्रियां हैं, मन इन घोड़ों की लगाम है और बुद्धि इनकी सारथी है ।आत्मा इस रथ और सारथी दोनों का स्वामी है ।
                इन्द्रिय अश्व शरीर रथ, मन को मानो बाग ।
                बुद्धि सारथी ले चला, भोग विषय अनुराग ।।
         आत्मा इस रथ में बैठा हुआ एक मार्ग पर जा रहा है । यह रथ उस मार्ग पर चलता जाये ,जिस पर उसे जाना है , इसके लिए यह आवश्यक है की घोड़े सारथी के वश में रहें और सारथी स्वामी के वश में रहे ।सारथी अर्थात बुद्धि के हाथ में लगाम (मन) है |अगर लगाम (मन) सारथी (बुद्धि) पर अधिक प्रभावी है तो घोड़े (इन्द्रियां) भटकेंगे ही और अगर सारथी (बुद्धि) लगाम (मन) को नियंत्रण में रखता है तो घोड़े (इन्द्रियां) स्वतः ही उसके नियंत्रण में आ जायेंगे | मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों में मन, बुद्धि पर अधिक प्रभावी रहता है जिससे वह प्राणी इन्द्रियों और मन के अनुसार ही कार्य करता है और मन पूर्व मनुष्य जन्म के कर्मों के फल प्राप्त करने के लिए ही तो उक्त योनि में आया है | परन्तु मनुष्य में अगर बुद्धि के साथ विवेक भी जाग्रत है, तो फिर मन आत्मा और विवेक के नियंत्रण में रहता है और इन्द्रियों को गलत मार्ग पर जाने नहीं देता है |
         मालिक अर्थात स्वामी को श्रेय मार्ग पर चलना है ।  मन अगर वश में न रहेगा तो इन्द्रियां प्रेय मार्ग पर चल पड़ेंगी । इसलिए घोड़े चलते हुए भी सारथी (बुद्धि, विवेक) और मन की आज्ञा के अधीन ही चलें । इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि घोड़े अपनी मनमानी उतनी ही कर सकें, जितने से उनका जीवन और स्वास्थ्य चलता रहे । इन्द्रियों को अपने विषयों का उतना ही भोग करने दो, जितने में इन्द्रियां अर्थात शरीर का स्वस्थ जीवन रह सके।
क्रमशः

                       || हरिः शरणम् ||

Sunday, June 26, 2016

प्रेय से श्रेय की ओर-11

            जिन्दगी का उद्देश्य श्रेय मार्ग है, जो सांसारिकता से एकदम अलग है ।  संसार में रहते हुए उसमें लीन होकर श्रेय मार्ग को भूल न जाने में ही इस मनुष्य जीवन की सार्थकता है । मनुष्य जीवन की सार्थकता है, जिन्दगी को यज्ञ रूप बना देने की । यज्ञ का अर्थ हैं – लोक कल्याण का कार्य अर्थात यज्ञीय कार्य, अर्थात संसार की सेवा करना, सभी को सुख और आराम पहुंचाना यानी लोक कल्याण । धन – दौलत को अपने जीवन निर्वाह के लिए अपने पर उपयोग कर शेष सब दूसरों के सुख और आराम के लिए व्यय (खर्च) कर देना यज्ञीय जीवन कहलाता है । रुपया, मकान, वस्त्र, सामान, शारीरिक और मानसिक शक्ति सब अपनी सम्पति हैं । इसका अपने सुख और आराम के लिए उपयोग कर शेष दूसरों के सुख और आराम के लिए त्याग कर देना श्रेय का मार्ग है । अपनी आवश्यकता इतनी ही बनानी चाहिए अर्थात् इतनी अल्प कर देनी चाहिए कि जितनी से हम दूसरों के लिए अधिकाधिक अर्थात ज्यादा से ज्यादा निकाल सकें ।
            मनुष्य अपनी कर्मों का नियंत्रण कर्ता स्वयं है। वह मार्ग जानता हुआ भी उस पथ पर चल नहीं सकता या यह कह सकते हैं कि कभी चलना नहीं चाहता । यह सब व्यक्ति के अपने स्वभाव और स्वयं की इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है। जैसे एक व्यक्ति के पास पांच सौ रुपये हैं, वह अपने दिन भर का खर्च पचास रुपये में भी चला सकता है और पांच सौ रुपये में भी उसका खर्चा पूरा नहीं हो सकता है । वह कितना दूसरों के लिए बचाता है यह उसकी योग्यता और हिम्मत पर है ।
क्रमशः

|| हरिः शरणम् ||

Saturday, June 25, 2016

प्रेय से श्रेय की ओर-10

 मनुष्य के समक्ष उसके जीवन में केवल दो ही मार्ग हैं - चलने के लिए | पहला प्रेय-मार्ग और दूसरा श्रेय-मार्ग | किसी एक मार्ग पर तो उसको चलना ही होगा | एक मार्ग को छोड़ते हुए ही दूसरे मार्ग पर चला जा सकता है, दोनों पर एक साथ नहीं चला जा सकता | यह प्रत्येक व्यक्ति पर निर्भर करता है कि स्वयं के चलने के लिए कौन सा मार्ग चुने |
           प्रथम मार्ग, प्रेय का तो मार्ग सबके लिए खुला है । इस संसार में जन्म लेकर तो सांसारिकता छोड़ी नहीं जा सकती । इसलिए श्रेय के मार्ग पर चलना बहुत कठिन लगता है । ऐसे में प्रेय के मार्ग में जो कुछ सामने आये, उसे स्वीकार करते हुए उसमें लिप्त नहीं होना चाहिए यथा बिजली के पंखे हैं, कूलर हैं, गद्देदार पलंग हैं, मखमली कालीन हैं और दूसरे सुख – सुविधा अर्थात ऐशो-आराम के सामान हैं। इनका भोग करते हुए खुद इनका भुक्त नहीं बन जाना चाहिए । यह नहीं कि इन वस्तुओं का गुलाम बन जाना चाहिए ।  अपने अन्दर सदैव ऐसी योग्यता और इच्छा-शक्ति बनाये रखना चाहिए कि इनको छोड़ते समय इनके खो जाने का दुःख न हो । केवल ये वस्तुएं ही जिंदगी का उद्देश्य न बन जाएँ ।
         जीवन का दूसरा मार्ग  है – श्रेय मार्ग । श्रेय मार्ग में हमें आज की अपेक्षा कल को महत्व देना और भविष्य के सुख के लिए आज, वर्तमान में संयम को  अपनाना पड़ता है । कृषक वर्ग अर्थात किसान उपज प्राप्ति हेतु  अपने घर में रखा हुआ अन्न खेत में बिखेर कर बो देता है । यही बीज आगे चल कर कई गुना होकर किसान को प्राप्त तो होता हैं परन्तु आज तो घर में रखी हुई बोरी तक खाली हो गई है अर्थात वह अधिक से अधिक पाने के चक्कर में अपना सब कुछ गँवा बैठा है । विद्यार्थी दिन–रात पढ़ता हैं ठीक प्रकार से पूरी नींद सो भी नहीं पाता, खेलने और मस्ती करने की उम्र में सब कुछ छोड़कर किताब के नीरस पन्नों में सिर खपाता रहता है । घर से शिक्षण शुल्क अर्थात फीस लेकर जाता है । किताब-  कापियों में पैसे खर्च होते हैं, अध्यापकों   की फटकार सुननी पड़ती हैं । इतना सब झंझट उठाने वाला विद्यार्थी जानता है कि अंततः  इसका परिणाम अच्छा और सुखकर ही होगा । जब शिक्षा पूर्ण करके अपनी बढ़ी हुई योग्यता का समुचित लाभ उठाऊंगा तब आज की परेशानी की पूरी तरह भर पाई हो जाएगी । श्रेय मार्ग कुछ कुछ ऐसा ही हैं इसमें वर्तमान को कष्ट मय बनाकर कल के लिए स्वर्णिम भविष्य की आशा के अंकुर उगाने पड़ते हैं । वैज्ञानिक अन्वेषणकर्ता सम्पूर्ण जिंदगी प्रकृति के किन्हीं सूक्ष्म रहस्यों का पता लगाने के लिए एकाग्र भाव से शोध कार्य में लगाते हैं तब जाकर कई प्रकार के आविष्कार होते हैं तो उसका लाभ सारे संसार को मिलता है । नेता, लोक-सेवक, बलिदानी, त्यागी, तपस्वी अपने आपको विश्व मानव के हित में स्वाहा कर देते हैं तब उस त्याग का लाभ सारे जगत को मिलता हैं । बीज अपनी हस्ती को गलाकर विशाल वृक्ष के रूप में परिणत होता है । नींव में पड़े हुए पत्थरों की छाती पर ही विशाल भवनों का निर्माण हुआ है । माता अपने रक्त और माँस का दान कर गर्भ में बालक का शरीर बनाती है और उसे अपनी छाती का दूध पिलाकर पालती- पोसती हैं तब कहीं जाकर उसे माँ कहलाने का श्रेय प्राप्त  होता है । इतना सब करना और उसके लिए कष्ट उठाना ही श्रेय मार्ग है ।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Friday, June 24, 2016

प्रेय से श्रेय की ओर-9

श्रेय-मार्ग –
    यह मार्ग श्रेष्ठ मार्ग है | यह इन्द्रियों और मन को नियंत्रित करने का मार्ग है | यह देखने में कठिन, चलने में दुर्गम और परिणाम में आनंददायक है | यह आत्म-ज्ञान का मार्ग है, ब्रह्म-ज्ञान का मार्ग है | जो कुछ भी मन और इन्द्रियों को प्रिय लगे और परिणाम जिनका दुख दाई हो, उससे बच कर निकलने का मार्ग है | इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि आप इन्द्रियों की शक्तियों को नष्ट ही कर दें | इन्द्रियां तो अपना स्वाभाविक गुण प्रदर्शित करेगी ही आपको तो बस उनके गुणों से प्रभावित नहीं होना है |
नेत्रों का कार्य है-देखना | वे तो देखेगी ही | आपको तो बस दृश्य और रूप से प्रभावित नहीं होना है | इसी प्रकार कान का कार्य है- सुनना | अच्छा मधुर संगीत सुने, जिस संगीत को सुनने से आपको आत्मिक शांति मिले | आत्मिक शांति प्रदान करने वाले संगीत को इसीलिए शास्त्रीय संगीत कहा जाता है कि उसको सुनने से एक प्रकार से परमात्मा की अनुभूति होती है | आहार चाहे कितना ही स्वादिष्ट क्यों न हो, मन के प्रभाव में आकर अधिक न खाएं | स्पर्श सुख चाहे कितना ही प्रिय लगे उसकी सतत पुनरावृति आपको पथ-विचलित कर सकती है अतः इससे बचना अत्यावश्यक है | गंध से मोहित न हो, भँवरा गंध के वशीभूत होकर अपना जीवन तक दांव पर लगा बैठता है |
श्रेय-मार्ग पर चलने से प्राप्त हुआ सुख सात्विक सुख कहलाता है | इस सुख के बारे में भगवान श्री कृष्ण गीता में अर्जुन को कहते हैं-
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति || गीता18/36||
यत्तदग्रे विषमिव परिणामे अमृतोपमम् |
तत्सुखं सात्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् || गीता 18/37||
अर्थात जिस सुख में व्यक्ति अभ्यास से रमण करता है अर्थात मन को नियंत्रित कर लेता है और जो समस्त दुखों का अंत करने वाला है तथा जो प्रारम्भ में विष के सदृश लगता है परन्तु परिणाम में अमृत तुल्य होता है; ऐसे सुख को सात्विक कहा गया है |
आध्यात्मिक सुख सात्विक सुख है और इस सुख को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को संसार में निष्काम कर्म करने होते हैं | निष्काम कर्म करने की दौड़ व्यक्ति के भीतर की दौड़ है | भीतर की दौड़ व्यक्ति को स्वयं के अन्दर ले जाती है, परमात्मा से परिचय कराती है | यही श्रेय-मार्ग है | आत्मा से लगाव और संसार से विमुखता |  मनुष्य जन्म का एक ही उद्देश्य है, वह है स्वयं को जान लेना | इसी को ही परमात्मा को प्राप्त कर लेना कहते है |
क्रमशः

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, June 23, 2016

प्रेय से श्रेय की ओर-8

 प्रेय-मार्ग –
     प्रेय-मार्ग सांसारिकता का मार्ग है | यह प्रत्येक व्यक्ति को प्रिय लगता है | यह देखने में अत्यधिक लुभावना, सरल और चलने में सुगम है | एक बार इस पथ का अनुगमन करने पर इसको छोड़ना एक साधारण व्यक्ति के लिए लगभग असंभव हो जाता है | इस पर निरंतर चलने वाले व्यक्ति को प्रारम्भ में तो अतिशय सुख की अनुभूति होती है परन्तु अंत में परिणाम दुखदाई ही होता है | प्रेय मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति की इन्द्रियां नियंत्रित नहीं रह पाती है और उसका मन स्वतंत्रता पूर्वक सांसारिक सुखों की तलाश में विचरण करता रहता है |
कान वही शब्द सुनना चाहते हैं जिनको सुनकर व्यक्ति को सुख मिले | परनिंदा व आधुनिक संगीत इसके उदाहरण है |सतत ऐसे शब्दों और संगीत को सुनकर व्यक्ति इन्हीं को बार बार सुनना चाहता है | इसी  प्रकार स्वाद के मारे व्यक्ति अपनी जिह्वा पर नियंत्रण नहीं रख पाता और अत्यधिक रुचिकर और प्रिय आहार कर वमन और उदर शूल से दुःख पाता है | स्पर्श सुख एक प्रकार की खुजली ही है, जो एक बार करने पर सुख का आभास अवश्य देती है परन्तु इस सुख को बार बार प्राप्त करने के लिए यही प्रक्रिया दोहराई जाती है परन्तु यह खुजली ऐसी है कि न तो यह कभी मिटती है और न ही इससे कभी संतुष्टि मिलती नहीं है |खुजली कभी खुजली करने से मिटती नहीं है बल्कि खुजली करने कि भावना मन में आने  से रोकने पर ही नियंत्रित हो सकती है | आपके नेत्र बार बार रूप को देखने के चक्कर में थकते नहीं है और न ही आपको संतुष्टि मिलाती है | यही हाल गंध प्राप्त करने का है, सुगंध को बार बार प्राप्त करना घ्रानेंद्रिय की सुगंध के प्रति आसक्ति का प्रदर्शन ही तो है | गीता के आधार पर प्रेय मार्ग राजसिक सुख प्रदान करता है | गीता के अंतिम अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
विषयेंद्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेSमृतोपमम् |
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् || गीत18/38||
अर्थात जो सुख इन्द्रियों और विषयों के संयोग से होता है, वह यद्यपि भोगकाल में अमृत के सदृश्य लगता है किन्तु परिणाम में विष के सदृश्य है; क्योंकि यह राजस सुख जन्म-मृत्यु का कारण है |
सांसारिक सुख राजसिक सुख है और इस सुख को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को संसार में सकाम कर्म करने पड़ते हैं | सकाम कर्म करने की दौड़ बाहर की दौड़ है | बाहर की दौड़ व्यक्ति को स्वयं से दूर ही ले जाती है, परमात्मा से दूर करती है | यही प्रेय-मार्ग है | संसार से लगाव और  स्वयं से दुराव | जबकि मनुष्य जन्म का उद्देश्य स्वयं को जानना है, न कि स्वयं से दूर चले जाना |
क्रमशः

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, June 22, 2016

प्रेय से श्रेय की ओर -7

प्रेय से श्रेय की ओर-7
  प्रेय हमें क्या देता है ? वही न जिसमें मनुष्य के साथ साथ अन्य प्राणी भी रत हैं – आहार, निद्रा, भय और मैथुन | सब सांसारिक सुख इन्द्रियों के कारण ही संभव होते हैं और संसार के सभी प्राणी इन इन्द्रियों के माध्यम से ही भोगों में रत रहते हैं | अगर आहार, निद्रा, भय और मैथुन में रत रहना ही इतना महत्वपूर्ण होता तो फिर यह जैविक विकास एक कोशिकीय जीव से प्रारम्भ होकर विभिन्न प्राणियों से होते हुए मनुष्य तक कैसे पहुँच जाता ? कभी सोचा है आपने ? परमात्मा को मनुष्य नाम के प्राणी के निर्माण की आवश्यकता ही क्यों हुई ? केवल प्रेय में ही लगे रहने के लिए नहीं बल्कि साथ ही साथ श्रेय को जानने के लिए भी | अगर सभी प्राणी प्रेय-मार्ग के अनुगामी बने रहते तो इस सृष्टि का काल चक्र भी थम जाता | विभिन्न कल्पों और बारम्बार सृष्टि की रचना का आधार ही ये दो मार्ग हैं | किसी एक मार्ग का होना अर्थात केवल एक मार्ग पर प्राणियों का चलना सृष्टि की परिवर्तनशीलता में बाधक है | यह एक अलग विषय है, जो काल की गति, विभिन्न सृष्टियों की रचना, युगों और कल्पों की अवधारणा को पुष्ट करता है | इसकी चर्चा फिर आगे कभी करेंगे | सृष्टि का  यह चक्र निर्बाध गति से चलता रहे, इसीलिए अन्य प्राणियों में स्थित बुद्धि से अलग हटकर मनुष्य को विवेक भी दिया है, परमात्मा ने | वह अपने विवेक का सही उपयोग कर प्रेय से श्रेय की ओर यात्रा कर सकता है |
आइये, अब हम प्रेय और श्रेय मार्ग को थोडा और अधिक विस्तार से जानें | पहले हम प्रेय-मार्ग  की बात करेंगे क्योंकि हमारी यह यात्रा, आत्म-ज्ञान के लिए है और आत्म-ज्ञान  के लिए प्रेय मार्ग को छोड़कर श्रेय मार्ग पर चलना पड़ता है | प्रेय-मार्ग को जाने समझे बिना हम उसका परित्याग कैसे करेंगे, इसलिए श्रेय-मार्ग पर चलने से पहले प्रेय-मार्ग को जानना आवश्यक है | ध्यान रहे, मनुष्य को छोड़कर संसार में एक भी प्राणी ऐसा नहीं है जो श्रेय मार्ग पर चल सके |
कल-प्रेय मार्ग 
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, June 21, 2016

प्रेय से श्रेय की ओर-6

कठोपनिषद के यही पाँच श्लोक श्रेय और प्रेय के अंतर को समझने के लिए पर्याप्त हैं | संसार में जन्म लेने के बाद मनुष्य की एक प्रकार की दौड़ प्रारम्भ हो जाती है | संसार में आकर इन्द्रियों के सुख प्राप्त करने की दौड़ को आधुनिक युग में विकास कहा जाता है | तुमने कितना धन कमा लिया, कितना बड़ा घर है तुम्हारे पास, कितनी और कैसी कैसी गाड़ियाँ है, कितने पुत्र हैं और क्या करते हैं आदि आज विकास के मापदंड बन चुके हैं | आत्मिक उत्थान कितना किया आपने, इससे किसी को कोई मतलब नहीं है | हमारे यहाँ सहस्राब्दियों से ही आत्मिक उत्थान को सर्वोत्तम उत्थान माना जाता है और आज----- आज आध्यात्मिक उत्थान की बात भी करने वाले को दकियानूसी कहा जाने लगा है | इसके लिए हम स्वयं ही उत्तरदाई है क्योंकि आज हम श्रेय पर प्रेय को अधिक महत्त्व देने लगे हैं |
कठोपनिषद की दूसरी वल्ली के पाँच प्रारम्भिक श्लोकों विद्या और अविद्या नाम से  दो शब्द आये हैं | अविद्या वह कथित ज्ञान है जो हमारा परिचय भौतिक वस्तुओं, अनित्य संसार और सांसारिकता से करवाता है | इसी अविद्या के कारण व्यक्ति भौतिक वस्तुओं और इस मायावी संसार में सुख ढूंढता है | इसी अविद्या को धारण करना ही प्रेय मार्ग है | जबकि विद्या वह ज्ञान है जो हमें अपने आप से परिचित करवाता है जिससे हम आत्म-कल्याण कर सकें | इस विद्या को प्राप्त कर लेना ही श्रेय मार्ग पर चलना है |आज की शिक्षा हमें अविद्या के अतिरिक्त कुछ भी उपलब्ध नहीं करवा रही है | हम आज की शिक्षा प्राप्त कर भौतिक सुख-सुविधाएँ भले ही जुटा लें, अपन जीवन भली-भांति निर्वाह कर लें परन्तु यह शिक्षा कभी भी हमें आत्म-साक्षात्कार नहीं करवा सकती | अतः इस शिक्षा को अविद्या कहा गया है | जो शिक्षा से हमें अपने होने का, आत्मा और परमात्मा का ज्ञान उपलब्ध करवाए वही वास्तविक विद्या है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Monday, June 20, 2016

श्रेय से प्रेय की ओर-5

   कठोपनिषद की दूसरी वल्ली में यम प्रेय और श्रेय के बारे में नचिकेता को कहते हैं-
अन्‍यत्‍छेूयोध्न्यदुतैव प्रेयस्ते उभे नानाथें पुरुषं सिनीत:।
तयो: श्रेय आददानस्य साधु भवति हीयतेsर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते।।1।।
इस प्रकार परीक्षा करके जब यम ने समझ लिया कि नचिकेता दृढ़निश्चयी परम वैराग्यवान एवं निर्भीक है अत: ब्रह्मविद्या का उत्तम अधिकारी है तब ब्रह्मविद्या का उपदेश आरंभ करने के पहले उसका महत्व प्रकट करते हुए यम ने कहा—श्रेय अर्थात कल्याण का साधन अलग है और प्रेय अर्थात प्रिय लगने वाले भोगों का साधन अलग है। वे भिन्न— भिन्न फल देने वाले दोनों साधन मनुष्य को बांधते हैं अपनी—अपनी ओर आकर्षित करते हैं। उन दोनों में से श्रेय अर्थात कल्याण के साधन को ग्रहण करने वाले का कल्याण होता है। परंतु जो प्रेय अर्थात सांसारिक भोगों के साधन को स्वीकार करता है वह यथार्थ लाभ से वंचित रह जाता है।।1।।
श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीर:।
श्रेयो हि धीरोऽभि प्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते।।2।।
श्रेय और प्रेय दोनों ही मनुष्य के सामने आते हैं। बुद्धिमान मनुष्य उन दोनों के स्वरूप पर भलीभांति विचार करके उनको पृथक—पृथक करके समझ लेता है। और वह श्रेष्ठबुद्धि मनुष्य परम कल्याण के साधन को ही भोग—साधन की अपेक्षा श्रेष्‍ठ समझकर ग्रहण करता है। परंतु मंदबुद्धि वाला लौकिक योगक्षेम की इच्छा से भोगों के साधनरूप प्रेय को अपनाता है।।2।।
       स त्वं प्रियान् प्रियरूपाक्य कामानभिध्यायन्नचिकेतोइत्यस्राक्षी:।
नैतान् सृंकां वित्तमयीमवाप्तो यस्यां मंजन्ति बहवो मनुष्य।:।।3।।
हे नचिकेता! तुम ऐसे निस्पृह हो कि प्रिय लगने वाले और अत्यंत सुंदर रूप वाले इस लोक और परलोक के समस्त भोगों को भलीभांति सोच—समझकर तुमने छोड़ दिया। इस संपत्तिरूप श्रृंखला को बेड़ियों को तुम नहीं प्राप्त हुए इसके बंधन में तुम नहीं फंसे जिसमें बहुत से मनुष्य फंस जाते हैं।।3।।
       दूरमेते विपरीते विषूची अविद्या या च विद्येति ज्ञाता।
विद्याभीप्सिन नचिकेतसं मन्ये न त्वा कामा बहवोऽलोलुपन्त।।4।।
जो कि अविद्या और विद्या नाम से विख्यात हैं ये दोनों परस्पर अत्यंत विपरीत और भिन्न— भिन्न फल देने वाली हैं तुम नचिकेता को मैं विद्या का अभिलाषी मानता हूं। क्योंकि तुमको बहुत से भोग किसी प्रकार भी नहीं लुभा सके।।4।।
      अविद्यायामन्तरे वर्तमाना: स्वयं धीरा: यण्डितम्मन्यमाना:।
दन्द्रम्यमाणा: परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धा:।। 5।।
अविद्या के भीतर रहते हुए भी अपने आपको बुद्धिमान और विद्वान मानने वाले मूढ लोग नाना योनियों में चारों ओर भटकते हुए ठीक वैसे ही ठोकरें खाते रहते हैं जैसे अंधे मनुष्य के द्वारा चलाए जाने वाले अंधे अपने लक्ष्य तक न पहुंचकर इधर—उधर भटकते और कष्ट भोगते हैं।।5।।
क्रमशः

|| हरिः शरणम् ||

Sunday, June 19, 2016

प्रेय से श्रेय की ओर-4

जब व्यक्ति के भीतर मुमुक्षा होती है, तब वह भूख और प्यास सब कुछ भूल जाता है | शारीरिक भूख और प्यास इस अनित्य शरीर से सम्बंधित है, इस भौतिक शरीर से सम्बंधित है जबकि आत्मिक भूख यानि मुमुक्षा आत्म-कल्याण से सम्बंधित है | भूख और प्यास प्रेय के अंतर्गत आती है जबकि मुमुक्षा श्रेय का मार्ग है | भूख और प्यास शांत होने पर सांसारिक सुख मिलता है परन्तु समय पाकर  यह भूख पुनः जाग्रत हो उठती है और व्यक्ति पुनः दौड़ पड़ता है, बाहर इस संसार में, इसको शांत करने के लिए | मुमुक्षा को शांत करने के लिए मनुष्य को संसार को त्यागकर स्वयं के भीतर प्रवेश करना पड़ता है | मुमुक्षा  के शांत हो जाने पर मनुष्य को अतुलनीय आनन्द प्राप्त होता है | नचिकेता को भूख तो थी परन्तु वह भूख आत्म-कल्याण की थी, शारीरिक नहीं | शारीरिक भूख को वरियता देने वाला वरदान में भौतिक सुख सुविधाएँ मांगता है जबकि आत्म-कल्याण के लिए भूखा व्यक्ति आत्म-ज्ञान प्राप्त करने का वर मांगता है | जिसकी जैसी मांग होती है, परमात्मा उसको उसी अनुरूप देता है | नचिकेता इस दूसरी श्रेणी का बालक है, वह मुमुक्षु है |     

          नचिकेता ने जो पहले दो वर मांगे वे इस विषय से सम्बंधित नहीं है, अतः पहले दो को यहीं पर छोड़कर हम तीसरे वरदान की तरफ चलते हैं | नचिकेता ने तीसरा वर माँगा-‘ब्रह्म विद्या’ प्राप्त करने का | यम ने उसको ब्रह्म विद्या के बदले अन्य कई भोग प्राप्त कर लेने का प्रलोभन दिया परन्तु नचिकेता ब्रह्म विद्या प्रदान करने की जिद्द पर ही अडा रहा | ब्रह्म विद्या का यह प्रसंग कठोपनिषद की दूसरी वल्ली में वर्णित है |
    प्रेय और श्रेय का वर्णन जो कठोपनिषद में आता है वह आपके समक्ष प्रस्तुत है | इस वर्णन को पढ़ने से पता चलता है कि ब्रह्म-विद्या प्राप्त करने का वास्तविक अधिकारी कौन होता है ? ब्रह्म-विद्या आज भले ही हमारे शास्त्रों में लिखी पड़ी हो, परन्तु इन शास्त्रों को भी आज कौन पढ़  रहा है ? प्रेय का अनुगामी तो शास्त्रों को देखकर ही बिदक जाता है और श्रेय का अनुगामी, जैसे तैसे शास्त्रों में इसे खोज ही लेता है | हम ऋणी हैं हमारी इस कठोपनिषद के, जो इसके माध्यम से ब्रह्म-विद्या को जान सकते हैं |
                  || हरिः शरणम् ||

Saturday, June 18, 2016

प्रेय से श्रेय की ओर-3

             प्रेय और श्रेय शब्दों का उल्लेख सर्वप्रथम अथर्व वेद में आता है | इन्हीं शब्दों को और अधिक स्पष्टता देता है- कठोपनिषद | कठोपनिषद में यम-नचिकेता संवाद है | मेरे पसंदीदा संवादों में से एक है-यह ‘यम–नचिकेता’ संवाद | जब महर्षि अरुण के पुत्र ऋषि उद्दालक ब्राह्मणों को बीमार और कृशकाय गायें, जो कि दूध भी नहीं दे सकती थी, दान में दे रहे थे तो उनका पुत्र नचिकेता व्यथित हो गया | पहले तो उसने अपने पिता का इस ओर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया परन्तु जब उसने देखा कि वे उसकी किसी भी बात पर ध्यान नहीं दे रहे हैं तो उसने अपने पिता ऋषि उद्दालक से पूछा कि आप मुझे किसको दान में दे रहे है तो एक बार ऋषि ने उसकी इस बात की उपेक्षा कर दी | परन्तु जब नचिकेता ने यही बात तीसरी बार भी पूछी तो ऋषि उद्दालक ने व्यंग से अपने पुत्र को देखते हुए कहा कि मैं तुम्हें यम को दान में देता हूँ | इतना सुनते ही नचिकेता अपने पिता का घर त्यागकर यम के निवासस्थान को प्रस्थान कर गया | यह देखकर पिता उद्दालक व्यथित हो गए और अपने द्वारा कहे गए शब्दों पर पश्चाताप करने लगे | परन्तु शब्द तो शब्द हैं, एक बार मुंह से बाहर निकल गए तो फिर उनको लौटा लाना असंभव है | पिता के पश्चाताप का नचिकेता पर कोई प्रभाव नहीं हुआ | उसने वापिस मुड़कर देखा तक नहीं |

        इस प्रकार अब नचिकेता आ पहुंचा है, यम के निवास स्थान के द्वार पर | यम किसी कार्य वश बाहर गए हुए थे | यम की पत्नी ने उतर दे दिया कि वे तीन दिन बाद आयेंगे परन्तु नचिकेता वापिस नहीं लौटा, वहीँ यम द्वार पर भूखा-प्यासा बैठा रहा | अब चिंतित होने की बारी यम की पत्नी की थी | उसको बहुत बुरा लगा कि उसके द्वार पर एक ब्राह्मण पुत्र तीन दिन से भूखा-प्यासा बैठा है | वह किसी अनहोनी और अनजाने भय से सिहर उठी | यम के लौटते ही उसने उन्हें ब्राह्मण बालक का पूरा वृतांत कह सुनाया | यम ने नचिकेता को बुलाकर उसकी पूरी राम कहानी सुनी | पहले तो तीन दिन का इंतजार कराने के लिए क्षमा मांगी और फिर इसके बदले उसे तीन वरदान पाने को कहा |
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् ||

Friday, June 17, 2016

प्रेय से श्रेय की ओर-2

यह सब मैंने प्रेय से श्रेय की ओरकी प्रस्तावना के तौर पर आपको बताया है क्योंकि प्रेय और श्रेय का आधार भी भोग और योग ही है | प्रेय भोग है तो श्रेय योग है | प्रेय का शाब्दिक अर्थ है, जो प्रिय लगे, प्रिय हो नहीं बल्कि प्रिय लगे और श्रेय का अर्थ है जो श्रेष्ठ हो, श्रेष्ठ लगे वह नहीं बल्कि जो श्रेष्ठ हो |
श्रेय से अर्थ है—वह जो श्रेष्ठ है, वह जो सत्य है, वह जो परम आत्यंतिक है,शुभ है, शिव है। और प्रेय से अर्थ है—वह जो प्यारा है, प्रिय है; चित्त को प्रसन्न करता है,चित्त को रंजित करता हैजो किसी काम को किसी वासना को तृप्त करने का आश्वासन देता है।
प्रेय का अर्थ है—वासना जिससे प्रफुल्लित होती है और श्रेय का अर्थ है—आत्मा जिससे प्रफुल्लित होती है। प्रेय संसार के साथ लगाव है जबकि श्रेय परमात्मा के साथ लगाव है |
 प्रेय का अर्थ है, मन को लगता है कि इससे आनंद आएगा लेकिन आता कभी भी नहीं क्योंकि लगने से आनंद का कुछ संबंध नहीं है। श्रेय में प्रारम्भ में यह लगता नहीं है कि आनंद आएगा परन्तु अंत में सदैव आनंद प्राप्त होता ही है |

       प्रेय आपको संसार में उलझाकर रखता है जबकि श्रेय आपको संसार से मुक्त करता है | प्रेय में उलझकर आप आवागमन से मुक्त नहीं हो सकते जबकि श्रेय आपको परमात्मा तक ले जाता है | प्रेम आपको कई युगों तक भोग प्रजाति के प्राणियों में बार बार जन्म लेने के लिए बाध्य करता है जबकि श्रेय आपको योग प्रजाति में जन्म दिलाते हुए इससे भी अंततः मुक्त कर देता है |अतः आपके हाथ में है, इन चौरासी लाख योनियों में भटकते रहना है अथवा सर्वोच्च योनि मानव जन्म पाकर श्रेय के मार्ग पर चलकर इस संसार चक्र के आवागमन से मुक्त होना है | प्रेय से श्रेय की ओर चलकर ही आवागमन से मुक्त हुआ जा सकता है |
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् || 

Thursday, June 16, 2016

प्रेय से श्रेय की ओर-1 प्रस्तावना


       इस संसार में जितने भी प्राणी है, जिन्हें हम एक आध्यात्मिक व्यक्ति की भाषा में ‘जीवात्मा’ भी कह सकते हैं, उन सभी का यहाँ पर उत्पन्न होना केवल भोग के लिए ही है अन्यथा उनको इस संसार में जन्म लेने की कोई आवश्यकता भी नहीं थी | सनातन धर्म शास्त्रों के अनुसार इस प्रकार के समस्त प्राणियों की प्रजातियां चौरासी लाख एक कही गयी है | विज्ञान अभी इस संख्या से लगभग आधी ही प्रजातियां खोज पाया है और अभी इनकी खोज जारी है | अभी भी नई प्रजातियां मिल रही है और मिलती भी जाएगी जब तक समस्त चौरासी लाख एक की संख्या तक नहीं पहुँच जाये | आप कह सकते हैं कि मैं यह दावा कैसे कर सकता हूँ कि इन नित नई प्रजातियों की खोज तब तक नहीं रुकेगी जब तक सनातन शास्त्रों में वर्णित संख्या को प्राप्त नहीं कर लिया जाये ? मेरे मित्रों, आज तक विज्ञान ने जो कुछ भी पाया है, सभी पहले से ही हमारे शास्त्रों में वर्णित है और मेरे इस विश्वास का आधार मेरे ये धर्म शास्त्र ही हैं |
           हाँ, तो बात चल रही थी, विभिन्न प्रकार की भोग प्रजातियों की, जिनमें एक मनुष्य नाम की प्रजाति भी सम्मिलित है | परन्तु मनुष्य और अन्य प्राणियों में एक मूलभूत अंतर है, जो मनुष्य को अन्य शेष प्राणियों से अलग और विशेष बनाता है और वह अंतर है उसमें ज्ञान और विवेक का होना | ज्ञान तो अन्य प्राणियों में भी होता है परन्तु वह ज्ञान केवल भोग के लिए होता है जिसमें आहार, निद्रा, भय (मृत्यु का भय) और मैथुन शामिल है | मनुष्य में ज्ञान के साथ साथ विवेक भी होता है और विवेक का उपयोग वह अपनी इच्छा से विभिन्न प्रकार के कर्मों को करने में करता है | ये कर्म केवल इन्द्रिय जनित भोगों को भोगने के लिए ही नहीं होते बल्कि आत्म-ज्ञान के लिए भी होते हैं | आत्म-ज्ञान अर्थात स्वयं को जानना | स्वयं को जानना यानि परमात्मा को जानना | इसीलिए मनुष्य अन्य प्राणियों की तरह मात्र एक भोग प्रजाति न होकर भोग के साथ में कर्म व योग प्रजाति भी है |
             भोग प्रजाति या भोग योनि अर्थात पूर्व मानव जन्म में किये गए कर्मों का फल प्राप्त करने व उन्हें भोगने के लिए पैदा होना और योग प्रजाति या योग योनि अर्थात वर्तमान मानव जीवन में विवेक का उपयोग करते हुए कर्म करना जिनका फल प्राप्त करने और उसको भोगने के लिए भविष्य के जीवन को तय किया जा सके | सब कुछ मनुष्य के हाथ में ही दे दिया है, परमात्मा ने | अतः किसी अनुचित और अप्रिय कर्मफल के लिए परमात्मा को दोष न दें, सब कुछ आपने स्वयं ही निश्चित किया है | इसीलिये यह कहा जाता है –

              “Your birth is not by chance but by your choice.”
                                           || हरिः शरणम् ||

Wednesday, June 15, 2016

आपसे बात-

            कल ही “भक्ति’ विषय पर लेख का समापन हुआ है | इस पर प्रतिदिन प्रतिक्रियाएं, सुझाव और प्रति प्रश्न प्राप्त होते रहें हैं | पहले यह विचार आया था कि प्रतिक्रियाओं और प्रश्नों का उत्तर तत्काल दे दूँ परन्तु फिर विचार किया कि जो भी प्रश्न आये थे, उनका कुछ शब्दों मात्र में उत्तर देना अपर्याप्त रहेगा | एक प्रश्न श्री पंकज अग्रवाल ने पूना से किया है कि श्रेय और प्रेय मार्ग को और अधिक स्पष्ट करूँ | श्री पंकज अग्रवाल कई वर्षों से मेरे ब्लॉग के पाठक है और समय समय पर प्रश्न पूछ कर अपनी जिज्ञासा शांत करते रहते हैं | प्रेय और श्रेय मार्ग के बारे में मेरे स्थानीय मित्रों को भी और अधिक स्पष्टता के साथ जानने की उत्कंठा है | वैसे यह विषय भी भक्ति से ही सम्बंधित है और अल्प रूप से इसको महर्षि शांडिल्य के द्वारा दी गई भक्ति की परिभाषा के साथ स्पष्ट करने का प्रयास किया था | यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति उन अल्प शब्दों से श्रेय और प्रेय के बारे में स्पष्ट रूप से जान सके | अतः मुझे आवश्यकता महसूस हो रही है कि इस विषय को अपने अल्प ज्ञान से और अधिक स्पष्ट करने का प्रयास करूँ |
        इसी प्रकार सुजानगढ़ से वकील साहब राहुल देव शर्मा ने नवधा भक्ति के बारे में विस्तार से जानने की जिज्ञाषा की है | पहले प्रश्न श्री पंकज ने किया था, अतः पहले हम  श्रेय और प्रेय पर चर्चा करेंगे और उसके पश्चात राहुल की नवधा भक्ति पर |
               अन्य प्रश्नों के उत्तर आपको भक्ति के शेष बचे भाग को प्रस्तुत करने के बाद उनको पढ़ने से मिल ही गए होंगे | हाँ, एक प्रश्न कल ही मिला है, एक मित्र ने पूछा है कि पाप की ज़ंजीर तो समझ में आती है परन्तु पुण्य भी जंजीर की तरह बांधता है, ऐसा कैसे संभव है ? हाँ, दोनों ही ज़ंजीर है क्योंकि पुण्य का फल भी व्यक्ति को भोगना पड़ता है | जिस भी कर्म का फल भोगना पड़ता है, वह प्रत्येक कर्म जंजीर बन कर बंधन में ही डालता है | मैं आपको पुनः ले जाना चाहूँगा, भक्त प्रह्लाद चरित्र की और | प्रह्लाद जब भगवान नृसिंह से ‘जीवन में कभी कामना का अंकुरण नहीं हो’, यह वर मंगाते हैं, तब परमात्मा तथास्तु कह देते है, परन्तु फिर भगवान उन्हें कहते हैं कि-
               भोगेन पुण्यं कुशलेन पापं
                       कलेवरं कालजवेन हित्वा |
               कीर्ति विशुद्धां सुर्लोकगीतां
                        विताय मामेष्यसि मुक्तबन्ध: || भागवत 7/10/13 ||
अर्थात भोग के द्वारा पुण्य कर्मों के फल और निष्काम कर्मों के द्वारा पाप का नाश करते हुए समय पर शरीर का त्याग  करके तुम मेरे पास आ जाओगे | देवलोक में भी लोग तुम्हारी विशुद्ध कीर्ति का गान करेंगे |
      यह श्लोक स्पष्ट करता है कि पुण्य कर्म भी एक बंधन है, जिनके फल भोगने के उपरांत ही मुक्ति संभव है | प्रह्लाद के पुण्य कर्म किये हुए थे इसीलिए नृसिंह भगवान ने उन्हें उनका भोग प्राप्त कर लेने का आदेश दिया | इस श्लोक में एक विशेष बात और है- पाप का नाश भी हो सकता है, निष्काम कर्मों से परन्तु पुण्य का फल तो प्रत्येक परिस्थिति में भोगना ही पड़ता है |
       इन प्रश्नों के अतिरिक्त कुछ सुझाव और प्रतिक्रियाएं भी प्राप्त हुई है, जिनको मैं ह्रदय से स्वीकार करता हूँ और भविष्य में प्रयास करूँगा कि प्रत्येक विषय को साधारण और सरल भाषा में आपके सामने प्रस्तुत करूँ | आपकी प्रतिक्रियाएं, सुझाव और प्रश्न आदि सभी मेरा मार्गदर्शन करते हैं | आप सभी का आभार व अभिनंदन | कल से ‘प्रेय से श्रेय की ओर‘ विषय पर बात करेंगे |
                                                        डॉ. प्रकाश काछवाल
                         || हरिः शरणम् ||

             

Tuesday, June 14, 2016

भक्ति-समापन किश्त

              भक्ति का मार्ग सर्वोत्तम मार्ग है | ज्ञान प्राप्त करके भी आपको शांति मिले, यह आवश्यक नहीं है परन्तु भक्ति में आपको शांति अवश्य ही मिलेगी यह शतप्रतिशत सत्य है | मनुष्य जीवन भर भटकता रहता है, अर्थोपार्जन के लिए, जिससे भविष्य में सुख और शांति का आनंद ले सके | परन्तु क्या अर्थ से कभी शांति खरीदी जा सकती है ? मैं कहता हूँ कि नहीं क्योंकि शांति अनमोल है | शांति बाहर संसार में खोजने से नहीं मिलती अथवा पैसों से नहीं खरीदी जा सकती | शांति प्राप्त होती है, अपने भीतर प्रवेश करने से, आत्म-ज्ञान से | संसार की सभी मूल्यवान वस्तुओं का शांति के सामने कुछ भी मोल नहीं है | अनित्य और नाशवान वस्तुओं से शांति मिलेगी, इस संसार में इससे बड़ा भ्रम दूसरा कोई हो ही नहीं सकता | इसी भ्रम में जीवन का, इस शरीर का संध्याकाल आ धमकता है अर्थात व्यक्ति का अंतिम समय आ जाता है और सिवाय हाथ मलते रहने के वह कुछ भी नहीं कर पाता है | ऐसी स्थिति में उसके पास सम्हल पाने के लिए न तो समय बचा होता है और न ही ऊर्जा | इस प्रकार से फिर वही संसार में आवागमन का अभेद्य चक्र |
           इस शरीर को शांति प्राप्त होती है, संतोष धारण करने से | संतोष केवल नित्य के साथ सम्बन्ध स्थापित करने से ही प्राप्त होता है | नित्य अर्थात जो परिवर्तनशील नहीं है | अर्थ अनित्य है, संसार अनित्य है, परिवर्तनशील है | आज है कल नहीं भी हो सकता | आज पर्याप्त नहीं है, कल भी अपर्याप्त ही रहेगा | जीवन भर पर्याप्त नहीं हो पायेगा चाहे जितना दौड़ते रहना | अगर जीवन में शांति चाहिए, संतोष धारण कर लें, इस दौड़ को बंद करें | नित्य के साथ योग करें, परमात्मा के साथ योग करें | परमात्मा के साथ योग अर्थात भक्ति, आपका परमात्मा के साथ नित्य सम्बन्ध है,  इस बात को विस्मृत न होने दें | ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्“ (गीता 9/22), परमात्मा सभी प्रकार से आपका ध्यान रखेंगे, चिंता मुक्त हो जाइये | यही भक्ति-योग है और भक्ति की पराकाष्ठा है शरणागति | परमात्मा आपको अपनी शरण में लें और आप उसकी अनन्य भक्ति में सदैव लीन रहें |
           आप सभी का आभार एवं साधुवाद |
प्रस्तुति - डॉ.प्रकाश काछवाल

             || हरिः शरणम् ||

Monday, June 13, 2016

भक्ति-13

भक्ति-योग / ज्ञान, ध्यान और कर्म-योग –
            प्रेम और शरणागत होना परमात्मा को पाने के सबसे सुगम मार्ग है और इसी को भक्ति कहा जाता है | गीता का उतरार्ध इसको भक्ति-मार्ग के रूप में स्पष्ट करता है | इस भक्ति को स्पष्ट करने के लिए भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को भक्ति-योग का विस्तृत रूप से ज्ञान दिया है | इस ज्ञान के द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि मनुष्य चाहे कितना ही ज्ञान और ध्यान में रत रहे, उसको वास्तविक शांति भक्ति से ही प्राप्त होती है | संसार और शास्त्रों का समस्त ज्ञान तब तक अज्ञान (अविद्या) ही है जब तक उससे परमात्मा के प्रति प्रेम और समर्पण पैदा न हो | अतः परमात्मा के प्रति प्रेम और समर्पण को ही भक्ति कहा जाता है |   
      परमात्मा को ज्ञान, ध्यान और कर्म योग से तभी पाया जा सकता है जब इनके साथ साथ परमात्मा के प्रति प्रेम भाव भी हो | ज्ञान, बिना प्रेम के अहंकार पैदा कर सकता है, ध्यान बिना समर्पण के व्यर्थ है और कर्म जब तक परमात्मा के लिए और उनको समर्पित किये बिना किये जाये तो वे सकाम कर्म के अंतर्गत आ जाते हैं, जिनके कारण मनुष्य को फल भोगने पड़ते हैं और भाव-सागर से आवागमन नहीं छूटता | परन्तु जब ज्ञान, ध्यान और कर्म परमात्मा के प्रति समर्पण भाव से होते हैं तब यही सब भक्ति बन जाते हैं | ज्ञान, ध्यान और कर्म सभी भक्ति की और ले जा सकते हैं परन्तु ये तीनों मार्ग कठिनाइयों से भरे हैं | अगर व्यक्ति प्रारम्भ से ही परमात्मा के प्रति प्रेम भाव से शरणागत हो जाता है तब वह परमात्मा की भक्ति को उपलब्ध हो जाता है | ऐसी भक्ति के कारण मनुष्य स्वतः ही ज्ञान, ध्यान और कर्म योग को उपलब्ध हो जाता है | अतः भक्ति मार्ग पर चलते हुए परमात्मा को पाना अधिक आसान है | यह सबसे सुगम मार्ग है | इसीलिए गीता में भी कर्म-योग के साथ साथ भक्ति-योग को बहुत महत्त्व दिया गया है | भक्ति-मार्ग ही एक सुगम मार्ग है जिस पर चल कर आदिकाल से आज तक अनेकों नामचीन भक्त हो चुके हैं जबकि केवल ज्ञान, ध्यान अथवा कर्म-मार्ग पर चलते हुए अनेकों मनुष्य इन मार्गों की कठिनाइयाँ देखते हुए पदच्युत भी हुए हैं | भक्ति आपको ज्ञान उपलब्ध करवा सकती है परन्तु अकेला ज्ञान भक्ति को उपलब्ध हो जाये यह प्रत्येक के लिए संभव नहीं है | परमात्मा, समस्त ज्ञान से भी परे हैं, उन्हें केवल मात्र पुस्तकीय ज्ञान से प्राप्त नहीं किया जा सकता | परमात्मा को तो प्रेम और समर्पण से ही जाना और पाया जा सकता है | ज्ञान, ध्यान और कर्म तो प्रेम और भक्ति के लिए अनुकूल आधार प्रदान कर सकते हैं जिस पर भक्ति का भवन निर्मित किया जा सकता है | जबकि अगर केवल भक्ति को ही आधार बना लिया जाये तो ऐसी भक्ति से जो निर्माण होता है उसमें ज्ञान, ध्यान और कर्म सब परमात्मा प्राप्ति के ही साधन बन जाते हैं| इतिहास प्रसिद्ध भक्तों के जीवन से हमें यही प्रेरणा मिलती है |
                      ज्ञान का एक मात्र स्रोत है, परमात्मा | पुस्तकों से ज्ञान नहीं मिलता है बल्कि केवल सूचना मात्र मिलती है | ज्ञान बाहर नहीं है | समस्त ज्ञान आपके स्वयं के भीतर है, जो परमात्मा की कृपा से ही अनावृत होता है | परमात्मा की कृपा संसार की सेवा और सभी से प्रेम करके ही प्राप्त की जा सकती है | संसार की सेवा ही परमात्मा से प्रेम करना है और प्रेम ही भक्ति है | इस दृष्टि से भक्ति-योग परमात्मा को पाने का सर्वोत्तम मार्ग कहा जा सकता है |
  मुख्य बात - इस शीर्षक से यह लेख तब लिखा गया था जब हरिः शरणम् आश्रम में आचार्य श्री गोविन्दराम शर्मा के सानिध्य से मुझे पहली बार यह ज्ञान हुआ कि पुस्तकीय ज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण है भक्ति | भक्ति में ज्ञान प्राप्त हो जाता है परन्तु ज्ञान से भक्ति प्राप्त होगी ही, कहा नहीं जा सकता |
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

                || हरिः शरणम् ||