गीता-ज्ञान की सार्थकता - 1
श्रीमद्भगवद्गीता न जाने कितनी बार कही गयी है और सुनी गयी है परन्तु इस
गीता-ज्ञान को कहने और सुनने से अधिक महत्वपूर्ण है कि हम यह जानें कि इसको कितने
व्यक्तियों ने आत्मसात किया है | गीता-ज्ञान की प्रासंगिकता इसी से सिद्ध होगी,
कहने और सुनने मात्र से नहीं | अगर इस ज्ञान को किसी भी व्यक्ति द्वारा आत्मसात
नहीं किया जायेगा तो एक दिन यह गीता भी लुप्तप्राय हो जाएगी | गीता चाहे कुछ समय
के लिए लुप्तप्राय हो जाये परन्तु अप्रासंगिक होना असंभव है | इस गीता को
पुनर्जीवित करने के लिए फिर एक बार श्री कृष्ण को इस धरा पर अवतार लेना होगा और
साथ ही अर्जुन को भी, जो यह ज्ञान सुन सके | गीता में भगवान श्री कृष्ण स्वयं इस
बात को स्वीकारते हुए अर्जुन को कह रहे हैं –
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्
|
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेSब्रवीत्
||
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो
विदुः |
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ||गीता-4/1-2||
श्री कृष्ण कह रहे हैं-हे अर्जुन!
मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा
और मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु से कहा | इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को
राजर्षियों ने जाना; किन्तु उसके बाद वह योग इस धरा से लुप्तप्राय हो गया |
गीता-ज्ञान बड़ा ही विलक्षण ज्ञान
है और इस ज्ञान को प्राप्त करने वाला योग्य पात्र होना आवश्यक है | जब किसी योग्य पात्र
का अभाव हो जाता है तभी यह ज्ञान लुप्तप्राय हो सकता है अन्यथा नहीं | यही कारण है
कि गीता की अनेकों विद्वानों ने अपने अनुसार व्याख्याएं की है, जिससे इस ज्ञान के
प्रति समाज में रुचि बनी रहे और योग्य पात्रों का कभी अभाव न होने पाये | आज से
नयी प्रारम्भ होने वाली इस श्रृंखला में मैं उन महत्वपूर्ण तथ्यों को आपके समक्ष
प्रस्तुत करने का प्रयास करने जा रहा हूँ, जिससे हम यह समझ सकें कि कमी गीता-ज्ञान
में नहीं है बल्कि हमारे में है, जो इस ज्ञान का समुचित उपयोग नहीं कर पा रहे हैं |
श्रीमद्भगवद्गीता की प्रासंगिकता इसके ज्ञान को आत्मसात करने में ही है केवल पढ़ने,
सुनने और व्याख्या करते रहने में नहीं | अगर हम केवल इन तीन कार्यों में ही उलझे
रहे तो एक दिन यह ज्ञान भी अपनी प्रासंगिकता खोकर लुप्तप्राय हो जायेगा |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
उत्तम व् विलक्षण विश्लेषण
ReplyDelete