Monday, March 26, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 24


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 24 
                काम अर्थात कामना | मनुष्य में कामना मन में उठती है और मन के होने व उसे अपने अनुसार चलाने की क्षमता के कारण से ही यह प्राणी मनुष्य कहलाता है | कामनायें  दो प्रकार की होती हैं - शुभ कामना और अशुभ कामना | स्मरण रखें कि दोनों ही कामनाएं विकार हैं | हाँ, शुभ कामनाएं हमें उत्थान और मुक्ति की ओर ले जाती है और अशुभ कामनाएं पतन व आवागमन के चक्र की ओर | शुभ कामना को जानने से पहले अशुभ कामनाओं के बारे में जान लेते हैं | अशुभ कामनाएं इस संसार से सुख प्राप्त करने की अपेक्षा से मन में जन्म लेती है | अशुभ कामनाएं सांसारिक कामनाएं होती है और इन्हें दो प्रकार से पूरा किया  जा सकता है | अशुभ कामना को पूरा करने के लिए प्रथम रास्ता है स्वयं के द्वारा कर्म (सकाम अथवा विकर्म) करके पूरा करना | अशुभ कामनाओं को पूरा करने के लिए दूसरा मार्ग है किसी अन्य व्यक्ति से उस कामना को पूरी करने की आशा अथवा अपेक्षा रखना | दोनों ही रास्तों से जब अशुभ कामना अर्थात सांसारिक कामना पूरी नहीं होती तो फिर क्रोध पैदा होता है | इस सांसारिक कामनाओं का पूरा होना बहुत कुछ आपके भाग्य अर्थात प्रारब्ध पर ही निर्भर करता है |
                       शुभ कामना व्यक्ति के उत्थान के लिए होती है, इसे आध्यात्मिक कामना भी कहा जा सकता है अर्थात ये कामनाएं परमात्मा अथवा आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के लिए होती है | अगर पूर्ण रूप से समर्पित होकर मानसिक प्रयास किये जाएँ तो यह शुभ कामना परमात्मा की प्राप्ति करवा देती है | शुभ कामना को पूरा करने के लिए व्यक्ति को स्वयं ही प्रयास करना पड़ता है | स्वयं के अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्ति जैसे गुरु अथवा शास्त्र अध्ययन केवल आपके लिए मार्गदर्शक की भूमिका निभा सकते हैं |  परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन स्वामी श्री राम सुख दास जी महाराज शुभ कामना को पूरा करने के लिए चार प्रकार की कृपा का होना आवश्यक बताते हैं | पहली है स्व-कृपा अर्थात परमात्मा को पाने के लिए स्वयं के द्वारा प्रयास करना आवश्यक है, स्वयं की लगन आवश्यक है | हम अगर स्वयं अपना उत्थान नहीं चाहते तो हमारा कुछ भी भला नहीं होने वाला | ज्ञान तो सभी प्राप्त करना चाहते हैं परन्तु ज्ञान के लिए स्वयं को तैयार करना पड़ता है | स्वयं को आत्म-ज्ञान के लिए तैयार करने को ही स्वामी जी स्व-कृपा होना कह रहे हैं |
                       दूसरी है, गुरु-कृपा | स्व-कृपा से जब व्यक्ति शुभ कामना पूरा करने का प्रयास करता है तो उस पर गुरु-कृपा होना आवश्यक है | यह व्यक्ति को आत्म-ज्ञान के लिए मार्गदर्शन देते हैं | जब मनुष्य आत्म-ज्ञान के लिए प्रयास करते हैं तो गुरु की खोज अधिक समय तक नहीं करनी पड़ती, गुरु मिल ही जाते हैं | जिसकी स्वयं पर कृपा नहीं होती, उसको गुरु ढूँढने से भी नहीं मिल पाते | तीसरी कृपा है, शास्त्र-कृपा | गुरु आपको शास्त्रों के माध्यम से मार्गदर्शन देता है | शास्त्रों को पढ़कर और गुरु के द्वारा उसका सही विवेचन सुनकर ही आप आत्म-ज्ञान के मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं  | शास्त्र और गुरु हमारे भीतर से सभी विकार बाहर कर इस प्रकार प्रकाशित कर देते हैं जैसे किसी बर्तन को बाहर-भीतर से साफ कर चमका दिया जाता है | शास्त्र अध्ययन और गुरु का मार्गदर्शन आपको ऐसी राह दिखा देते हैं, जहाँ से परमात्मा मिलने बहुत ही सहज हो जाते हैं |
                   चौथी और अंतिम कृपा है, भगवत-कृपा | परमात्मा की कृपा के बिना कोई भी कामना फल प्रदान नहीं कर सकती, चाहे वह किसी भी प्रकार की कामना हो | जिस दिन हमें आत्म-ज्ञान हो जायेगा हम स्वयं के भीतर बैठे परमात्मा को पा लेंगे | उस दिन कृष्ण-मृग की तरह वन-वन, पत्ते-पत्ते में कस्तूरी को ढूँढना नहीं पड़ेगा |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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