Tuesday, March 13, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 11


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 11
                  शरीर को स्वस्थ बनाये रखने के लिए आहार की आवश्यकता होती है | आहार को प्राप्त करने लिए कर्म करने आवश्यक है (कर्म-योग), तत्व-ज्ञान की प्राप्ति के लिए ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है (ज्ञान-योग) और अहिंसक बनने के लिए हमारा भावना-प्रधान (भक्ति-योग) होना आवश्यक है | श्रीमद्भगवद्गीता में इन तीनों विषयों पर भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को सारगर्भित ज्ञान दिया है | हम सब अज्ञान के कारण अपने जीवन में सदैव किसी न किसी बात का अभाव मानकर अभय नहीं हो पा रहे हैं | दुःख का कारण ही भय है और भय का मूल कारण अज्ञान है | जीवन में गीता की सार्थकता तभी सिद्ध होगी जब हम भावना-प्रधान रहते हुए कर्म करें और ज्ञान को उपलब्ध हों |
             कर्म का सम्बन्ध हाथ-पाँव आदि कर्मेन्द्रियों (भौतिक शरीर) से है, ज्ञान का सम्बन्ध मस्तिष्क (बुद्धि) से है, जबकि भावना अर्थात भक्ति का सम्बन्ध हृदय (मन) से है | हमारी समस्त कर्मेन्द्रियाँ तभी व्यवस्थित रूप से सक्रिय रहते हुए कर्म कर सकती है, जब हमारे मस्तिष्क और हृदय के साथ उसका स्वस्थ रूप से तालमेल हो | इनमें से किसी एक में भी आया व्यवधान हमें अपने लक्ष्य तक पहुँचने से वंचित कर सकता है | कर्म-योग का सम्बन्ध हमारे शरीर से है, ज्ञान-योग का सम्बन्ध बुद्धि से है और भक्ति-योग का सम्बन्ध हमारे मन से है | अतः शरीर, मन और बुद्धि इन तीनों में सामंजस्य (Harmony) होना आवश्यक है | हमारे जीवन में दुःख इसीलिए ही है क्योंकि इन तीनों अर्थात शरीर, मन और बुद्धि में सामंजस्य का अभाव है | हम स्वयं में उपस्थित गुणों की प्रधानता (Dominancy) के अनुरूप किसी एक योग को प्रमुखता देते हुए अपने साध्य (Target) तक सुगमता से पहुँच सकते हैं | गीता में भगवान ने आपको तीनों मार्ग बता दिए हैं, आपको अपने में उपस्थित गुणों के आधार पर किसी एक मार्ग को प्रधानता (Priority) देते हुए चयन करना होगा | भगवान ने आप पर ही यह कार्य छोड़ा है | उन्होंने गीता ज्ञान का समापन करते हुए अर्जुन को भी ऐसा ही कहा है |
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया |
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु || गीता-18/63||
अर्थात इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया है | अब तुम इस रहस्य युक्त ज्ञान पर पूर्णतया भली भांति विचार कर, जैसे चाहता है, वैसे ही कर |
                       परमात्मा की यही विशेषता है कि वे सब कुछ बताकर भी निर्णय (Decision) सामने वाले श्रोता पर ही छोड़ देते हैं | इसका कारण है कि मनुष्य चाहे कितना ही ज्ञान प्राप्त कर ले, वह उस ज्ञान को किस प्रकार लेता है, यह सब उसके विवेक पर निर्भर करता है, ज्ञान देने वाले की क्षमता पर नहीं | इस संसार में अथाह ज्ञान भरा पड़ा है, ज्ञान देने वाले गुरु भी बहुत हैं, ज्ञान देने वाले शास्त्र भी हैं परन्तु उस ज्ञान को आत्मसात कर उस पर चलने वाले कितने हैं ? इसका उत्तर आप और मैं, हम सब भली-भांति जानते हैं | भगवान श्री कृष्ण ने अपने सखा, अपने शिष्य अर्जुन को गोपनीय (Confidential) से भी अति गोपनीय ज्ञान कह दिया है | यह ज्ञान रहस्यों से परिपूर्ण है और रहस्य युक्त ज्ञान केवल वही व्यक्ति आत्मसात कर सकता है, जो ज्ञान को आत्मसात करने से पूर्व किसी भी प्रकार के कथित ज्ञान से पूर्णतया रिक्त हो | अर्जुन तो पहले से ही कथित ज्ञान से भरा पड़ा था, तभी तो वह युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व भगवान श्री कृष्ण से एक ज्ञानी की तरह बातें कर रहा था | युद्ध से होने वाली हानि और उससे लगने वाले पाप को समझ रहा था | भगवान श्री कृष्ण चाहते हैं कि ज्ञान को भली भांति विचारकर उसके अनुसार चलने अथवा उस पर न चलने का निर्णय स्वयं अर्जुन करे | भगवान ने तो अर्जुन के समक्ष ऐसी परिस्थिति का निर्माण कर दिया है कि उसे निर्णय करने में जरा सी भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

No comments:

Post a Comment