गीता-ज्ञान की सार्थकता – 9
मनुष्य के लिए आहार का अर्थ व्यापक है, इसे
केवल पेट की क्षुधा शांत करने के लिए ही न लें | मनुष्य को अपना पेट भरने के अतिरिक्त भी
आहार चाहिए क्योंकि उसने अपनी क्षुधा को विस्तार दे दिया है | प्रत्येक
इन्द्रिय-भोग की अपनी भूख होती है | जब मनुष्य अपनी ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञान की प्राप्ति
के स्थान पर केवल विषय-भोग की प्राप्ति की ओर लगा देता है, तब उसकी भूख का विस्तार
पेट के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी हो जाता है | इस प्रकार जब मनुष्य में
तृष्णा बढ़ती है तब प्रत्येक इन्द्रिय के माध्यम से मिलने वाले आहार की आवश्यकता भी
बढ़ जाती है | जीवन में किसी न किसी की आवश्यकता बने रहने का नाम ही अभाव है | आज
के इस भौतिक युग में समस्या यह है कि हम विलासिता और आवश्यकता में अंतर नहीं कर पा
रहे हैं और विलासिता को ही आवश्यकता समझ रहे हैं | साथ ही यह भी सत्य है कि आज की
विलासिता भविष्य में आवश्यकता बन ही जाती है | विलासिता ही अभाव को जन्म देती है जो
सभी प्रकार का आहार पाकर भी तृप्त नहीं हो सकती | इस प्रकार असंतुष्टि का भाव जीवन
में दुःख उत्पन्न करता है | इसीलिए गीता हमें अपनी आवश्यकताएं सीमित रखने को कहती
है, जिससे मन में किसी प्रकार की निरर्थक कामनाओं का जन्म ही न हो |
श्रीमद्भगवद्गीता में आहार
और शयन के बारे में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को स्पष्ट करते हुए कहते है कि –
युक्ताहारविहारस्य
युक्तचेष्टस्य कर्मसु |
युक्तस्वप्नावबोधस्य
योगो भवति दुःखहा ||गीता-6/17||
भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि दुखों का नाश
करने वाला योग तो उचित आहार-विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने
वाले का और यथायोग्य सोने-जागने वाले का ही सिद्ध होता है |
दुःख का कारण है- भय | भय मनुष्य को सदैव दुःखी बनाये रखता है | मनुष्य को अगर
कभी सुख की प्राप्ति हो भी जाती है तो वह थोड़े समय बाद उस सुख को अपर्याप्त मानते
हुए दुःखी हो जाता है | अभाव सभी प्रकार के भय का जनक है और भय दुःख का प्रमुख
कारण है | अगर हम आहार केवल अपने प्राण की रक्षा के लिए करते हैं तब तो वह निश्चित
ही उपलब्ध होगा | हमें जन्म देने से पहले ही परमात्मा ने हमारे प्राणों की रक्षा
करने के लिए हमारे लिए उचित आहार की व्यवस्था कर रखी है | जब कोई स्त्री गर्भधारण
करती है, तब गर्भ की प्रारम्भिक अवस्था में ही उसके स्तनों का विकास दूध-स्राव के
लिए होना प्रारम्भ हो जाता है जिससे नौ माह बाद पैदा होने वाले शिशु को तत्काल ही उचित
आहार मिल सके | एक ओर हम हैं, जो आहार को प्राप्त करने के लिए दिन-रात एक किये हुए
हैं, भविष्य के न देखे जा सकने वाले हजारों वर्षों की व्यवस्था करने में लगे हुए
हैं | हमें आहार चाहिए केवल अपने प्राणों की रक्षा के लिए और प्राण चाहिए इस शरीर
को स्वस्थ बनाये रखने के लिए | स्वस्थ शरीर चाहिए तत्व-ज्ञान की प्राप्ति के लिए,
आत्म-बोध के लिए | अतः हमारे जीवन का उद्देश्य केवल मात्र एक आत्म-बोध का ही होना
चाहिए, केवल आहार प्राप्त करते रहने का नहीं |
इसी बात को योगवासिष्ठ
में वसिष्ठ मुनि भगवान श्री राम को उपदेश देते हुए स्पष्ट कर रहे हैं –
अन्न्नाहार्थं
कर्म कुर्यादनिन्द्यं कुर्यादाहारं प्राणसंधारणार्थम् |
प्राणा
संधार्यास्तत्वजिज्ञासनार्थं तत्त्वं जिज्ञास्यं यें भूयो न दुःखम् ||नि.प्र.उ.21/10||
अर्थात मनुष्य को चाहिए कि इस संसार में आहार की प्राप्ति
के लिए शास्त्रानुकूल अनिंद्य कर्म करे | आहार भी उतना ही करे, जितने से प्राणों
की रक्षा हो सके | प्राण रक्षा भी तत्त्व-ज्ञान की प्राप्ति के लिए ही करे |तत्त्व-ज्ञान
की इच्छा सब के लिए अत्यंत आवश्यक है, जिससे फिर से जन्म-मरण आदि दुखों की
प्राप्ति न हो |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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