गीता-ज्ञान की सार्थकता – 20
अर्जुन को मोह और मद, ये दो विकार ही ले डूबे | भगवान श्री कृष्ण जैसे गुरु
भी उसे इन दो प्रमुख विकारों से मुक्ति नहीं दिला सके | इधर हम है, जो इन दो ही
नहीं बल्कि समस्त विकारों के साथ जीवन की गाड़ी को खेचे चले जा रहे हैं | ऐसे में हमारा
भविष्य कैसा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है | अर्जुन के दो विकार उसे बैकुण्ठ ही
नहीं, सीधे स्वर्ग तक को भी उपलब्ध नहीं करा सके, स्वर्ग से पहले उन्हें कुछ दिनों
के लिए नरक में जाना ही पड़ा था | अर्जुन के लिए बैकुण्ठ तो दिवास्वप्न ही बना रहा |
हम इस देह को त्यागने के बाद कहाँ होंगे, इसकी कल्पना की जा सकती है |
महाभारत
युद्ध से एक बात तो स्पष्ट हो गई कि मनुष्य को चाहे परमात्मा से ही ज्ञान क्यों न
मिल जाये, उसके लिए उस ज्ञान को जीवन भर स्मृति में बनाये रखना आवश्यक है | अगर
क्षण भर के लिए भी ज्ञान को विस्मृत किया तो मनुष्य किसी भी विकार से ग्रस्त हो
सकता है | इन विकारों में से किसी भी एक विकार के प्रवेश करते ही शेष सभी विकार
मनुष्य में एक-एक कर आ ही जायेंगे | इसीलिए आध्यात्मिक जीवन को सावधानीपूर्वक जीना
पड़ता है | ‘महाभारत’ में जब कुरुक्षेत्र-युद्ध के बाद श्री कृष्ण द्वारिका जा रहे होते हैं तब अर्जुन
उनसे गीता-ज्ञान को एक बार फिर से दोहराने को कहते हैं | यह सुनकर भगवान श्री
कृष्ण व्यथित हो जाते हैं | फिर भी वे एक बार अर्जुन को वही ज्ञान दुबारा देते हैं
| इस ज्ञान के संकलन को ‘अनु-गीता’ कहा जाता है | अनु-गीता में भक्ति-योग नहीं कहा
गया है | ज्ञान और कर्म-योग को पुनः कहा गया है | इसका पहला कारण है कि अर्जुन अब
युद्ध की मानसिकता से पूर्णतया बाहर निकल आया है और संसार में रम गया है | ऐसे में
उसको अधिक आवश्यकता कर्म-योग और ज्ञान की थी | दूसरा कारण है कि कर्म और ज्ञान के
अंतर्गत भक्ति-योग भी आ जाता है | अतः भगवान ने उसे अब भक्ति-योग के स्थान पर कर्म
और ज्ञान पर निर्देश देना अधिक उचित समझा, जिससे कि वह पुनः सांसारिक विकारों में
न फंस पाए |
विकार ही
बंधन है, विकार ही वह जाल है जिसके कारण हम संसार में उलझे रहते हैं | विकार ही
हमें कर्म-बंधन में डाल देता है | विकार ही सब समस्याओं की मूल में है | विकार से
मुक्त कैसे हुआ जा सकता है ? जब तक हम उन विकारों को भली भांति समझ नहीं लेंगे तब
तक उनसे मुक्त होने का विचार तक नहीं कर सकते | गीता-ज्ञान की सार्थकता तभी है, जब
हम इस ज्ञान को सदैव स्मृति में रखें तथा उसी ज्ञान के अनुसार चलें और अपने जीवन
को विकार-मुक्त बनायें |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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