Tuesday, March 20, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 18


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 18
                 मोह परमात्मा की माया के कारण ही पैदा होता है और माया में ही पैदा होता है | मोह के कारण ही काम, क्रोध, लोभ, मद, ईर्ष्या आदि सब विकार मनुष्य के मन में जन्म ले लेते हैं | ये सभी नरक के द्वार हैं और मनुष्य को चाहिए कि वह इनसे बचकर रहे | मोह में फंसकर ही व्यक्ति सुख-दुःख का अनुभव करता है, वह सदैव अपने आपको असुरक्षित पाता है | अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से ज्ञान पाकर भी बार-बार मोह में फंसता जा रहा था और एक मात्र यही कारण था कि वह मोक्ष को उपलब्ध नहीं हो सका | अर्जुन इंद्र-पुत्र था और इंद्र स्वर्ग का राजा है, फिर भी अर्जुन सीधे स्वर्ग में भी नहीं पहुँच सका | जब स्वर्ग जाने के लिए पांचो भाई व द्रोपदी हिमालय आरोहण कर रहे थे तभी एक पहाड़ पर चढते समय फिसल कर गिर जाने से अर्जुन की मृत्यु हो गयी थी | देह छोड़ते समय भी उनके मन में स्वर्ग तक न पहुँच पाने का दुःख था | स्वर्ग जाने का मोह भी अंत समय में उसके दुःख का कारण रहा | इस प्रकार जीवन के अंत तक मोह नष्ट न होने के कारण वे कभी भी द्वंद्व से मुक्त नहीं हो सके थे | इस कारण से अर्जुन को प्रारम्भ में कुछ समय के लिए नरक में भी जाना पड़ा | नरक की अवधि भोगकर वहां से फिर वह अपने जैविक पिता इंद्र की नगरी स्वर्ग पहुंचे | जहाँ पर रहकर उन्होंने अपने मानव जीवन में किये गए सत्कर्मों का फल भोगा और पुनः पृथ्वी-लोक में मनुष्य के रूप में जन्म लिया | साक्षात् परमात्मा श्री कृष्ण का सानिध्य और उनसे प्राप्त किया ज्ञान भी अर्जुन को बैकुण्ठ में स्थान नहीं दिला सका | इसका कारण गीता-ज्ञान में कोई कमी होना नहीं है, बल्कि मनुष्य की कमजोरी है क्योंकि उसकी मानसिकता ही ऐसी हो गयी है कि वह बार-बार मोह में पड़ता रहता हैं | ज्ञान पाकर भी हम त्याज्य विकारों का त्याग नहीं कर पाते हैं अथवा एक बार त्यागने के बाद पुनः उनको ही अपना लेते हैं | यह हमें सोचने को विवश करता है कि ऐसा क्या किया जा सकता है, जिससे हम सदैव के लिए मोह और माया से मुक्त हो सकें ?
                      अर्जुन के मुक्त न होने का एक मात्र कारण केवल मोह का नष्ट न हो पाना ही नहीं था | कुरुक्षेत्र का युद्ध महाभारत समाप्त हो चूका था | अर्जुन को अपने आपको महायोद्धा मान लेने का अभिमान भी हो गया था | अभी कुछ दिन ही तो बीते थे उसे गीता-ज्ञान प्राप्त किये | फिर भी वह समझ नहीं पा रहा था कि युद्ध करने वाला, युद्ध में मरने वाला और युद्ध में मारने वाला  भला कोई व्यक्ति कैसे हो सकता है ? हाँ, श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता के प्रारम्भ में ही यहाँ तक स्पष्ट कर दिया था कि ‘मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्’ अर्थात ‘ये युद्ध भूमि में खड़े सभी योद्धा मारे जा चुके हैं, तू तो केवल इनको मारने का निमित मात्र बन जा |’ युद्ध की समाप्ति पर अर्जुन इस ज्ञान को विस्मृत कर चूका है | वह इस युद्ध में हुई विजय को केवल अपनी स्वयं की विजय मान रहा है | इस प्रकार अर्जुन में महाभारत युद्ध की विजय से उत्पन्न हुए अभिमान में और नारद में काम-विजय उपरांत जगे अभिमान में मूलभूत से कोई अंतर नहीं है | ऐसा अभिमान भी व्यक्ति को पतन की राह पर डाल देता है | नारद को तो श्री हरि ने अभिमान के गर्त से बाहर निकल लिया था | देखें ! अर्जुन के साथ श्री कृष्ण क्या करते हैं ?
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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