Monday, March 5, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 3


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 3    
          श्रीमद्भगवद्गीता को आधार बनाते हुए कुछ समय पूर्व मैंने पाँच श्रृंखलाएं आपके समक्ष प्रस्तुत की थी | प्रारम्भ में हमने ‘न करोति न लिप्यते’ व ‘गहना कर्मणो गति’ श्रृंखलाओं में चिंतन करते हुए ‘कर्म-योग’ पर चर्चा की थी | तत्पश्चात ‘ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिम्’ नाम की श्रृंखला के अंतर्गत ‘ज्ञान-योग’ पर चिंतन किया गया था | ‘भक्ति-योग’ पर चिंतन के लिए ‘मन्मना भव मद्भक्तो’ श्रृंखला थी | भक्ति  की पराकाष्ठा पर पहुँचने और शरणागति को समझने के लिए पांचवीं श्रृंखला ‘मामेकं शरणं व्रज’ के अंतर्गत भक्ति और शरणागति के अति सूक्ष्म अंतर को समझने का प्रयास किया गया था | कर्म, भक्ति और ज्ञान मार्ग एक दूसरे के पूरक मार्ग है | मनुष्य के जीवन में कभी भी ऐसा अवसर नहीं आ सकता जब वह केवल एक मार्ग पर चलते हुए आत्म-बोध को उपलब्ध हो सके | यह ठीक वैसे ही है जैसे किसी भी मनुष्य में केवल एक ही प्राकृतिक गुण की उपस्थिति नहीं हो सकती | मनुष्य जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए सत, रज और तम तीनों प्राकृतिक गुणों की उपस्थिति होनी आवश्यक है | हाँ, यह बात अलग है कि तीनों गुणों में से किसी एक प्राकृतिक गुण की प्रधानता प्रत्येक मनुष्य में होती है | किसी में सत्व गुण की प्रधानता होती है, किसी में रज की और किसी में तमोगुण की | आत्म-बोध के लिए सांसारिक व्यक्ति के लिए कर्म-योग उपयुक्त अवश्य होता है, परन्तु आत्म-बोध के लिए कर्म के साथ-साथ ज्ञान और भक्ति की उपस्थिति भी आवश्यक होती है | केवल एक अकेले कर्म-योग से भी आत्म-ज्ञान होना संभव नहीं हो सकता |
                 कर्म-योग व्यक्ति के कुछ न कुछ करते रहने से सम्बंधित है | हमारे द्वारा किये जाने वाले कर्म हमारा व्यवहार (Conduct) निर्धारित करते है | भक्ति-योग मनुष्य की भावनाओं (Emotions) से सम्बंधित है जबकि ज्ञान-योग मनुष्य के व्यक्तित्व से, स्वयं के अस्तित्ववान (Personal identity) होने से सम्बंधित है | आत्म-बोध, केवल कुछ करने से अथवा जानने से अथवा भावना व्यक्त करने से, इन तीनों में से किसी अकेले एक से संभव नहीं हो सकता | तीनों का एक साथ उपस्थित होना आवश्यक है, तभी व्यक्ति योगी हो सकता है | हाँ, मनुष्य में उपस्थित प्रकृति के किसी एक गुण की प्रधानता इन तीनों में से किसी एक मार्ग अथवा योग के चयन को सुनिश्चित अवश्य ही कर देता है | प्रकृति के गुणों में से किसी एक गुण की प्रधानता  के अनुरूप ही मनुष्य को इनमें से कोई एक मार्ग अधिक प्रभावित करता है अथवा वह इन तीनों ही मार्गों से विमुख भी बना रह सकता है | सब कुछ प्रकृति के गुणों की उपस्थिति और किसी एक गुण की प्रधानता पर निर्भर करता है | जो व्यक्ति इन तीनों योग में से किसी भी एक योग को मुख्य साधन नहीं बना सकता इसका अर्थ यह नहीं है कि वह कर्म करने से भी विमुख हो जाता है | कर्म करना अलग है और कर्म-योगी होना अलग है | अतः व्यक्ति भले ही किसी एक योग को आत्मसात न करे परन्तु कर्म तो उसको फिर भी करने ही पड़ेंगे |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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