गीता-ज्ञान की सार्थकता – 22
विकार (Disorder) क्या है और मनुष्य में आखिर
प्रवेश कैसे करते हैं ? इन प्रश्नों का उत्तर मिल जाने पर ही हम विकार-मुक्त होने
की सम्भावना तलाश सकते हैं अन्यथा नहीं | गीता-ज्ञान की सार्थकता तभी है, जब हम
समस्त विकारों से मुक्त हो जाएँ | जब कोई वस्तु अपने मूल स्वरूप को खो देती है, तब
कहा जा सकता है कि उस वस्तु में विकार आ गया है | इस भौतिक शरीर में विकार आने से
हम रोग-ग्रस्त हो जाते हैं और विकार के जाते ही रोग-मुक्त | दूध में विकार आ जाने
पर वह फट जाता है | दूध में पैदा हुए इस विकार को दूध का खट्टा हो जाना कहते हैं,
अर्थात खटास (Acid) ही वह विकार है, जो दूध
का स्वरूप परिवर्तित कर देता है | लेकिन अगर दूध में खमीर मिला दिया जाये तब भी
उसका स्वरूप परिवर्तित हो जाता है और वह दही बन जाता है | दूध का स्वरूप खमीर से भी
परिवर्तित होता है परन्तु खमीर (Yeast) विकार नहीं है | इस दूध के उदाहरण से विकार को समझने में
हमें सहायता मिलती है | खमीर विकार नहीं है क्योंकि इससे हमें दूध में छुपे मक्खन
को पाने में सहायता मिलती है जबकि खटास दूध में आया विकार है क्योंकि उससे दूध
अनुपयोगी हो जाता है | इस प्रकार विकार की परिभाषा स्पष्ट हो जाती है | विकार
मनुष्य के भीतर मन में प्रवेश करने वाला वह दोष है, जो उसे पतन की ओर ले जाता है |
विकार के स्थान पर मनुष्य में जब भक्ति प्रवेश करती है, तब मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप
को प्राप्त करने के लिए आत्म-ज्ञान की और अग्रसर होता है | विकार के प्रवेश करने
से व्यक्ति के स्वरूप में परिवर्तन होता है जबकि भक्ति के प्रवेश करने से व्यक्ति
अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त हो जाता है | व्यक्ति में विकार संसार के प्रति आसक्ति रखने
से प्रवेश पाते हैं जबकि भक्ति का प्रवेश संसार के प्रति अनासक्त होने से होता है |
अनासक्ति परमात्मा की और ले जाएगी और आसक्ति पतन की ओर |
जैसा
कि पूर्व में सभी विकार बतलाये गए हैं, फिर भी एक बार पुनः स्मरण करा दूं कि मुख्य
विकार छः हैं | ये षट्-विकार हैं - काम (Desires), क्रोध (Anger), लोभ/तृष्णा (Greed / Lust), मोह (Fascination), मद (Arrogance) मात्सर्य (Envy, Jealousy) | इन मुख्य विकारों के
बारे में आप सभी जानते ही हैं | मनुष्य के भीतर ये विकार प्रवेश कैसे करते हैं,
यही विचारणीय है | जब तक हम इन विकारों की प्रकृति को नहीं समझेंगे तब तक इन
विकारों से स्वयं को दूर नहीं रख पाएंगे
अथवा भीतर से बाहर नहीं निकाल पाएंगे | एक विकार दूसरे विकार से सम्बंधित (Inter related) होता है और एक दूसरे का पोषक (Nourisher) भी | सम्बंधित तो इस मायने में है कि जब एक
विकार हमारे भीतर प्रवेश करता है, तब दूसरा विकार धीरे-धीरे उसके पीछे-पीछे हमारे मन
में प्रवेश पा लेता है | एक विकार किसी दूसरे विकार का पोषक इस मायने में है कि एक
विकार दूसरे विकार को शक्ति प्रदान करता है, जिससे वे विकार व्यक्ति पर प्रभावी हो
जाते हैं और अपनी पकड़ को मजबूत बना लेते हैं | एक बार जब इन विकारों का प्रभुत्व
व्यक्ति पर स्थापित हो जाता है, तो फिर उन विकारों का त्याग करना लगभग असंभव हो
जाता है | उदाहरण स्वरूप जब एक (काम) कामना पूरी होती है तो व्यक्ति में लोभ
उत्पन्न होता है | लोभ फिर एक नए काम (कामना) को जन्म देता है और फिर उसकी पूर्ति
हो जाने पर लोभ और अधिक बढ़ कर तृष्णा बन जाता है | इस प्रकार दोनों विकार मन पर
अपनी पकड़ को मजबूत कर लेते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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