गीता-ज्ञान की सार्थकता – 8
मनुष्य
के अतिरिक्त कोई अन्य प्राणी इस भय से मुक्त होने का विचार नहीं कर सकता | वह सदैव
भयग्रस्त ही बना रहता है | मनुष्य ऐसे किसी भी प्रकार के भय से मुक्त होने की मन
में इच्छाएं (Desires) पैदा करता है | वह भय से
मुक्त होने के लिए मन में विभिन्न प्रकार की इच्छाएँ लिए भोग सामग्री को एकत्रित करने
में लग जाता है | उसके द्वारा इस प्रकार भोग-सामग्री को संग्रह करने का कारण बनता
है, अब तक उसको जो कुछ भी मिला है, उसको अपर्याप्त मानना अर्थात सदैव एक प्रकार के
अभाव में जीना | यह कृत्रिम अभाव फिर से किसी नए भय को उत्पन्न कर देता है | इस
प्रकार भूख, भय, संग्रह और अभाव का कभी न टूट सकने वाला चक्र (Vicious cycle) बन जाता है जो व्यक्ति को जीवन में कभी भयमुक्त
नहीं होने देता | इस अभाव से उत्पन्न हुए भय के कारण मनुष्य अपने वर्चस्व (Dominancy) को बनाये और व्यक्तित्व (Personality) को बचाये रखने के लिए विभिन्न प्रकार के भोगों में
लिप्त होकर संतान उत्पत्ति (Reproduction) में लग जाता है | वह समझता है कि संतान उत्पन्न करने से वह
अल्प रूप से ही सही, इस संसार में सदैव के लिए विद्यमान अवश्य ही रह सकेगा |
परन्तु क्या केवल यही मार्ग है- भयमुक्त होने का ? ऐसा तो भयमुक्त होने के लिए मनुष्य
ही क्या, संसार के सभी प्राणी करते हैं | फिर चर प्राणियों के अंतर्गत आने वाले
बुद्धिमान प्राणी मनुष्य और अन्य प्राणियों में अन्तर ही क्या रह जायेगा ? भयमुक्त
होने के लिए संतानोत्पति, भोग सामग्री का संग्रह और स्वार्थ पूर्ति के लिए की जाने
वाली हिंसा के अतिरिक्त जो मार्ग है, उसी मार्ग को गीता में भगवान श्री कृष्ण
अर्जुन को स्पष्ट करते हैं | गीता की सार्थकता तभी है, जब हम भय मुक्त हो जाएँ और
इस बात को स्पष्ट रूप से समझ लें कि हिंसा कब और किस परिस्थिति में आवश्यक हो जाती
है ? कहने का अर्थ है कि केवल भूख मिटाने के लिए की गयी हिंसा भूख और भय दोनों को बढ़ाती
ही है, उनसे मुक्त नहीं कर सकती |
सभी चर प्राणी आहार(Feed), निद्रा(Sleep), भय (Fear) और मैथुन (Sex) में लीन है और मनुष्य भी इनसे अलग नहीं है |
परन्तु गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि बिना भयमुक्त हुए और
अहंकार को त्यागे बिना मनुष्य के जीवन में शांति नहीं आ सकती | अगर इन दो अर्थात
भय और अहंकार का त्याग मनुष्य नहीं कर सकता तो वह जीवन में कभी भी मुक्त नहीं हो
सकता | हालाँकि इन दो का त्याग करने के लिए मुक्ति की कामना पैदा करना आवश्यक है
परन्तु अंततः मुक्ति के लिए भी मुक्ति की कामना सहित सभी कामनाओं का त्याग करना आवश्यक
है | भय और अहंकार से मुक्त होने के लिए भगवान ने गीता में तीन मार्ग बताएं हैं, जिन्हें क्रमशः कर्म, ज्ञान और भक्ति-योग कहा
जाता है | बिना कर्म किये व्यक्ति क्या तो किसी को देगा और क्या किसी से प्राप्त
कर सकेगा ? अतः कर्म करने भी आवश्यक है | बिना ज्ञान के मनुष्य अपने होने का
उद्देश्य ही नहीं जान पायेगा | अतः व्यक्ति के लिए ज्ञान प्राप्त करना भी आवश्यक
है | बिना भक्ति की भावना के मनुष्य मात्र एक मशीन बन कर रह सकता है, वह केवल एक प्रकार
का यांत्रिक जीवन ही जी सकता है, जिस जीवन की कोई उपयोगिता नहीं है | अतः मनुष्य
का भावना प्रधान होना भी आवश्यक है | भावना से सम्बंधित भक्ति-योग नाम से भगवान ने
इसका वर्णन गीता में किया है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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