Saturday, March 17, 2018

गीता - ज्ञान की सार्थकता - 15


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 15
                          गीता महाभारत के भीष्म-पर्व के अंतर्गत आती है | गीता-ज्ञान से आगे की बातें महाभारत में वर्णित है | गीता-ज्ञान प्राप्त कर लेने के उपरांत अर्जुन ने कह दिया है कि वह अब वही करेगा, जैसा उसे भगवान श्री कृष्ण आदेश देंगे | उसके अनुसार उसका मोह नष्ट हो चूका था और मानसिक रूप से संशय रहित होकर वह स्थिर हो गया था | कुरुक्षेत्र की रण-भूमि में रण-भेरी बज चुकी है और युद्ध प्रारम्भ हो गया है | श्री कृष्ण के ज्ञान के प्रभाव से अर्जुन मन लगाकर युद्ध भी कर रहा है | समता का आचरण करते हुए वह समभाव से अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग कर रहा है | युद्ध अपनी निर्बाध गति से आगे बढ़ रहा है और आखिर एक दिन वह घडी आ जाती है, जब अर्जुन पुनः मोहग्रस्त हो जाता है | उधर सामने विरोधी पक्ष में पितामह भीष्म और इधर अर्जुन | अर्जुन के मानसिक दृष्टि पटल पर पितामह के साथ बाल्यकाल से लेकर आज तक के दृश्य एक-एक कर आ जा रहे हैं | वह अभी भी महा प्रतापी भीष्म को एक योद्धा न मानकर अपना पितामह ही मान रहा है | पितामह को सामने देखकर वह श्री कृष्ण द्वारा दिया गया यह ज्ञान भूल चूका है कि ‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च‘ अर्थात जन्म लेने वाले की मृत्यु और मरने वाले का जन्म होना निश्चित है | एक व्यक्ति को, एक योद्धा को केवल अपना पितामह मान लेना भी मोह है | इस प्रकार उत्पन्न हुए मोह के कारण भला अपने पितामह को वह कैसे मार सकता है ? अर्जुन इस मोह के वशीभूत होकर यह भी भूल गया था कि श्री कृष्ण ने कहा है कि ‘देही नित्यमवध्योSयं देहे सर्वस्य भारत अर्थात देह में स्थित यह देही सदैव ही अवध्य है यानि इसे मारा नहीं जा सकता, केवल देह मरती है | मोहग्रस्त होकर वह अपने क्षत्रिय धर्म को भी भूल गया था जहाँ उसका एकमात्र धर्म युद्ध करना होता है | जैसे तैसे भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को समझा बुझा कर इस मोह रुपी अज्ञान से बाहर निकालते हैं और इस प्रकार युद्ध फिर से अपनी लय प्राप्त कर लेता है और भीष्म को अर्जुन के द्वारा शर-शैया उपलब्ध होती है |
                       इसी प्रकार युद्ध की अवधि में ही अर्जुन जान चूका है कि कर्ण उसका बड़ा भाई है | एक बार फिर युद्ध में मोहग्रस्त होने की स्थिति अर्जुन के सामने उपस्थित हो जाती है | इस बार भीष्म के स्थान पर कर्ण अर्जुन के सामने होता है | मोह उसे एक बार फिर अपनी पकड़ में जकड़ लेता है | युद्धभूमि में निहत्था कर्ण अपने रथ के पहिये को दलदल से बाहर निकालने का प्रयास कर रहा है | निहत्थे पर प्रहार करना युद्ध के नियम के विरुद्ध होता है | अर्जुन इस नियम के वशीभूत हो जाता है और मोहग्रस्त होकर उसे केवल देख भर रहा है | श्री कृष्ण उसे फिर मोह से बाहर निकलते हुए स्मृति दिलाते हैं कि इस युद्ध में नियम अनेकों बार टूटे हैं | अभिमन्यु को भी तो नियम तोड़ कर मारा गया था | यह जानकर ही अर्जुन मोह से बाहर निकल पाता है और कर्ण का वध कर देता है | एक बार ज्ञान हो जाने के बाद भी बार-बार मोहग्रस्त हो जाना मनुष्य की नियति में होना ही कहा जा सकता है | मोह संसार का आकर्षण है इसलिए यह अंधकार है, अज्ञान है | अन्धकार को केवल आलोक से ही दूर किया जा सकता है | अज्ञान को केवल ज्ञान से ही मिटाया जा सकता है | वह ज्ञान, जो केवल पढ़ा अथवा सुना ही नहीं जाये बल्कि उस ज्ञान को गुना भी जाये, उस ज्ञान के अनुसार जिया जाये | जब व्यक्ति ज्ञान में जीने लगता है, वह पुनः मोह के जंगल में भटकता नहीं है | अर्जुन ने केवल ज्ञान को सुना ही था, ज्ञान के अनुसार चला नहीं था, उस ज्ञान को जिया नहीं था, उसको आत्मसात नहीं किया था |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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