Tuesday, March 27, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 25


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 25  
                    काम (कामना) को विकार कहा गया है, इसका अर्थ हुआ कि शुभ कामना भी एक विकार है | यह सत्य है कि काम एक विकार है परन्तु एक विकार होते हुए भी शुभकामना व्यक्ति के लिए उत्थान का मार्ग प्रशस्त करती है | प्रारम्भिक स्तर पर आध्यात्मिकता के लिए यह कामना भी आवश्यक है, जिससे हम संसार से विमुख हो सकें अर्थात संसार में रहते हुए भी उससे लिप्त न हों, आसक्त न हों | परन्तु अगर आत्म-बोध को पूर्णतः उपलब्ध होना है, तो अंततः इस शुभ कामना का भी त्याग करना होगा | भक्त प्रह्लाद से जब नरसिंह भगवान ने कहा कि वत्स ! कोई वरदान मांगो तो भक्त प्रह्लाद ने कहा कि मैं कोई वर नहीं चाहता | प्रह्लाद ने आगे कहा कि अगर फिर भी आपको वरदान के रूप में मुझे कुछ देना ही है तो आप मेरे पर इतनी कृपा कीजिये कि इस जीवन में मेरे मन में कभी कोई कामना ही न उठे | इससे भक्त प्रह्लाद ने स्पष्ट कर दिया है कि काम रुपी विकार के रहते परमात्मा से मिलन अर्थात मोक्ष असंभव है | परमात्मा के द्वार पर पहुँचने तक आपकी सभी कामनाएं गिर जानी चाहिए, सभी कामनाएं समाप्त हो जानी आवश्यक है |
                             इस प्रकार इस विवेचन से हमने काम को संक्षेप में जाना है | वैसे अकेले इस विकार काम पर ही बहुत कुछ लिखा जा सकता है परन्तु इस विषय को समझने के लिए इतना जान लेना ही पर्याप्त है | काम के कारण जो दूसरा प्रमुख विकार हमारे मन में प्रवेश करता है | आइये ! उसके बारे में भी संक्षेप में जान लेते हैं |
             दूसरा प्रमुख विकार है मोह  | मोह का अर्थ हैं ममता | जहाँ काम है वहां मोह अवश्य ही होगा | किसी एक विषय, स्थान, व्यक्ति अथवा वस्तु के प्रति लगाव का होना ही मोह है | हम जिस व्यक्ति, वस्तु अथवा विषय-भोग से सुख का अनुभव करते हैं, उसके प्रति हमारा विशेष लगाव हो जाता है | हम जानते हैं कि भौतिक संसार की सभी वस्तुएं व जीव अस्थाई और परिवर्तनशील है, माया है और इनके प्रति आकर्षण रखना अंत में दुःख ही देने वाला है, फिर भी हम अपने मोह (अज्ञान) के कारण उनसे बंधन को छोड़ नहीं पाते | मोह काम के कारण पैदा होता है | परमात्मा की माया हमें काम के माध्यम से एक प्रकार के आकर्षण में बाँध लेती है | यह माया का आकर्षण ही मोह (अज्ञान ) है | इस आकर्षण से छूटने का एक मात्र उपाय है, भक्ति | भक्ति अर्थात परमात्मा के प्रति प्रेम अर्थात आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो जाना |
                 सभी विकारों का अग्रणी (नेता) काम है | अतः हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण है कि हम हमारी कामनाओं पर अंकुश रखें और धीरे-धीरे उस अवस्था को उपलब्ध हो जाएँ जहाँ पर मन में किसी काम का जन्म ही न हो पाए | इसके लिए हमें हमारे सुख-भोग के साधनों के प्रति आसक्ति को कम करना होगा | विषय-भोग हमारी कामनाओं को हवा देते हैं, जिससे हमें कर्म करना पड़ता है | प्रत्येक कर्म जब सुख प्रदान करता है तब पुनः उस सुख के प्रति आसक्ति बढ़ती है और आसक्ति फिर एक नए काम को जन्म देती है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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